परिणाम और परेशानी

harish_rawatलोकसभा चुनाव के नतीजों के साथ ही उत्तराखंड के राजनीतिक आकाश में अस्थिरता के बादल मंडराने लगे हैं. प्रदेश की पांचों सीटों पर कांग्रेस पार्टी की करारी हार के बाद हरीश रावत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार का भविष्य कितना सुरक्षित होगा, इसको लेकर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं. जीत से लबरेज भाजपाइयों की मानें तो पार्टी को मिली शानदार जीत हरीश रावत सरकार की उल्टी गिनती का आधार तैयार कर चुकी है. सियासी हलकों में इस बात को लेकर भी चर्चा शुरू हो चुकी है कि तमाम गुटों में बंटे कांग्रेसी विधायक कहीं सरकार को झटका तो नहीं देने वाले हैं? इसके अलावा सरकार में शामिल निर्दलीय और बसपा विधायकों के रुख पर भी सबकी नजरें टिकी हुई हैं. इस सबके बीच लोकसभा चुनावों से ऐन पहले भाजपा में शामिल होने वाले आध्यात्मिक गुरु और पूर्व कांग्रेसी सतपाल महाराज ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए हरीश रावत से इस्तीफे की मांग तक कर दी है. उनका कहना था, ‘हरीश रावत ने लोक सभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने की कीमत पर ही विजय बहुगुणा से सीट हथियाई थी लिहाजा उन्हें नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए.’ हालांकि जानकारों की एक बड़ी जमात सतपाल की इस मांग को उनके सीएम बनने की छटपटाहट का नतीजा मान रही है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हरीश रावत सरकार पर खतरे की जो चर्चाएं चल रही हैं यदि वे निकट भविष्य में हकीकत में तब्दील होती हैं तो इसमें महाराज की भूमिका बहुत निर्णायक हो सकती है.

सतपाल महाराज के इस कदर निर्णायक होने की यह पूरी कहानी इस साल फरवरी से शुरू हुई. तब आरटीआई से मिली एक जानकारी से पता चला था कि प्रदेश की उद्यान मंत्री रहते हुए सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी अपने पति और बेटे को दिलवाई है. लोकसभा चुनावों से ठीक पहले हुए इस खुलासे से उत्तराखंड की सियायत में बवाल मच गया और विपक्षी दल भाजपा को प्रदेश सरकार पर वार करने का एक और मौका मिल गया. समूची भाजपा ने सतपाल महाराज का पुतला फूंकने के अलावा उनकी पत्नी अमृता रावत का इस्तीफा मांगा और मामले की सीबीआई जांच की मांग भी कर दी. आम चुनाव सिर पर थे और आपदा पुनर्वास कार्यों की नाकामी के बाद यह मामला महाराज के लिए दोहरी मुश्किलें पैदा कर चुका था. ऐसे में अपनी तय दिख रही हार को भांपते हुए उन्होंने एक दांव खेला. सरकार पर अपने संसदीय क्षेत्र की उपेक्षा का आरोप लगा कर पहले तो उन्होंने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया, और फिर अपनी ही पार्टी के खिलाफ बगावत करके भाजपा में शामिल हो गए. आध्यात्मिक गुरु से राजनेता बने सतपाल महाराज का यह ऐसा पैंतरा था जिसने कांग्रेस को पूरी तरह से सकते में डाल दिया. प्रवचन करने में सिद्धहस्त सतपाल महाराज के इस कदम का असर इतना चमत्कारिक रहा कि भाजपा की तरफ से उनके खिलाफ होने वाली आलोचनाएं प्रशस्तिगान में तब्दील हो गईं और कल तक बरछे, भाले लेकर तैयार बैठे भाजपाई ‘सतपाल महाराज-जिंदाबाद’ के नारे लगाने लगे. अब न तो भाजपा को अमृता रावत का इस्तीफा चाहिए था और न ही इस मामले की सीबीआई जांच में उसकी कोई दिलचस्पी रह गई थी. इस तरह देखा जाए तो सतपाल महाराज ने चुनाव में होने वाली संभावित हार से पीछा तो छुड़ाया ही साथ ही भाजपा में भी बड़े कद के नेता बन गए. भाजपा द्वारा खुद को हाथों-हाथ लिए जाने के बाद उन्होंने अपने बयानों से बार-बार संकेत दिए कि लोकसभा चुनावों के बाद उत्तराखंड की सरकार कभी भी गिर सकती है. उनके अलावा रविशंकर प्रसाद और नितिन गडकरी जैसे बड़े भाजपाई भी लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे संकेत देते दिखे.

लोकसभा चुनाव हो चुके हैं. भाजपा ने उत्तराखंड में कांग्रेस को शून्य पर समेट दिया है. अब क्या वास्तव में उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार गिर सकती है? और अगर ऐसा होता है तो इसमें सतपाल महाराज की क्या भूमिका होगी ?

प्रदेश की राजनीति को समझने-परखने वाले एक वर्ग की मानें तो लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन के बाद उत्तराखंड में भी पार्टी के अच्छे दिन आ सकते हैं. ऐसी स्थिति में महाराज की भूमिका को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि 70 सदस्यीय उत्तराखंड विधानसभा में 33 विधायकों वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार में तकरीबन आधा दर्जन ऐसे विधायक हैं जो महाराज के पक्के चेले माने जाते हैं. माना जा रहा है कि वे इनसे इस्तीफा दिलवाकर राज्य सरकार को अल्पमत में लाने के साथ ही भाजपा के लिए सरकार बनाने का एक अदद मौका भी बना सकते हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि गढवाल संसदीय क्षेत्र में सतपाल महाराज के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता नहीं था. इसके बाद भाजपा ने महाराज को अपनाकर कांग्रेस की ताकत बेहद सीमित कर दी. अब महाराज हरीश रावत सरकार को वेंटिलेटर पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे. लेकिन हरीश रावत भी मंझे हुए नेता हैं लिहाजा अपनी सरकार पर किसी भी तरह के संभावित खतरे को खत्म करने में वे भी कोई कसर नहीं छोड़ेगें, वह भी तब जब चुनौती देने वाला उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी हो.’

हरीश रावत और सतपाल महाराज के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंदिता जग जाहिर है. 2002 में रावत के प्रदेश का मुख्यमंत्री न बन पाने का मुख्य कारण महाराज को ही माना जाता है. कहा जाता है कि उनके विरोध की वजह से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी रावत के बजाय नारायण दत्त तिवारी के पास चली गई थी. इसके बाद 2012 में हुए राज्य विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद हरीश रावत के साथ वे खुद भी मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार थे. लेकिन तब पार्टी हाईकमान ने टिहरी से सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया और हरीश रावत को केंद्रीय मंत्रिमंडल में एडजस्ट करके कुछ समय के लिए उन्हें शांत कर दिया. मुख्यमंत्री न बन पाने के बाद तब सतपाल महाराज मंत्री बनने से भी महरूम रह गए थे. इसके बाद हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने विजय बहुगुणा को हटा कर उत्तराखंड की कमान हरीश रावत के हाथों में थमा दी और सतपाल महाराज की झोली एक बार फिर से खाली रह गई. आधा दर्जन विधायकों के समर्थन का दावा करने के बावजूद उनकी राजनीतिक हैसियत इस पूरे घटनाक्रम के बाद तब और सिमटती दिखने लगी जब रावत ने अपनी कैबिनेट की सदस्य और महाराज की पत्नी अमृता रावत से कुछ महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. जय सिंह रावत कहते हैं, ‘अपनी इस कदर उपेक्षा से नाराज महाराज कांग्रेस में अपना भविष्य कहीं से भी उजला नहीं देख पा रहे थे. उन्हें सबसे बड़ा दुख यह था कि उनके कट्टर प्रतिद्वंदी हरीश रावत को सूबे की सत्ता मिल गई थी. बेहद महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति वाले महाराज के लिए इस दोहरे झटके से उबर पाना आसान नहीं था. लिहाजा भाजपाई बेड़े में सवार होना उनको ज्यादा मुफीद लगा.’

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हालांकि महाराज के भाजपा में शामिल होने के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत समेत अन्य कांग्रेसी नेताओं ने प्रदेश सरकार को पूरी तरह सुरक्षित बताते हुए उनके इस कदम को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इसे उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के लिए उल्टी गिनती का संकेत बताया. विधानसभा में विपक्ष के नेता अजय भट्ट कहते हैं, ‘अब प्रदेश की सत्ता में हमारी वापसी तय है और इस काम में सतपाल महाराज की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहेगी.’

महाराज की जिस महत्वपूर्ण भूमिका की बात अजय भट्ट कर रहे हैं उसको लेकर दो तरह की संभावनाएं जताई जा रही हैं. पहली यह कि अपने समर्थक विधायकों की संख्या बढ़ा कर सतपाल महाराज हरीश रावत की सरकार को अल्पमत में ला दें और भाजपा को सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत मिल जाए. दूसरी संभावना यह जताई जा रही है कि यदि भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाती है तो महाराज अपने समर्थक विधायकों को फिदाईन बनाकर रावत सरकार को ही गिरा दें ताकि प्रदेश में चुनाव की नौबत आ जाए.

ऐसे में सवाल यह है कि यदि इन दोनों में से कोई भी संभावना सफल हो जाती है तो क्या भाजपा सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा सकती है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले कई कांग्रेसी दबी जुबान इस संभावना को स्वीकार कर रहे हैं. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘जहां तक मैं समझता हूं भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. आखिर पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता इस बात को कैसे पचा पाएंगे?’

चमोली की यह बात काफी हद तक सही मालूम पड़ती है. बताया जाता है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने से पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी और पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह समेत और भी कुछ पुराने भाजपाई खुश नहीं थे. ऐसे में इस बात की संभावना भी है कि सतपाल महाराज को भविष्य में प्रदेश की राजनीति में अहम जिम्मेदारी दिए जाने पर भाजपाई कुनबे के कई सदस्य भड़क सकते हैं. हालांकि ऐसी स्थिति में भाजपा सतपाल महाराज को  उस सीट से राज्यसभा में भेज सकती है जो अभी-अभी भगत सिंह कोश्यारी के लोकसभा पहुंचने के बाद खाली हुई है. लेकिन इसके लिए भी सतपाल महाराज को हरीश रावत की सरकार में सेंधमारी करनी होगी.

लेकिन क्या महाराज के लिए हरीश रावत को निपटाना इतना आसान होगा ? कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी सुरेंद्र अग्रवाल की माने तो महाराज का ऐसा कर पाना असंभव है. वे कहते हैं, ‘जिन आधे दर्जन विधायकों के समर्थन का दावा सतपाल महाराज कर रहे हैं, वे सभी हरीश रावत की सरकार को समर्थन जारी रखने की बात पहले ही कर चुके हैं. ऐसे में महाराज सिर्फ ख्याली पुलाव पका रहे हैं.’ गौरतलब है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने के तुरंत बाद उनके करीबी माने जाने वाले सभी विधायकों ने महाराज का अनुसरण करने की बातों को खारिज कर दिया था.

‘भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता यह कैसे पचा पाएंगे?’

लेकिन कई लोगों का मानना है कि महाराज समर्थक विधायकों का यह रुख बदल भी सकता है, बशर्ते कांग्रेस छोड़ने में उन्हें अपना हित दिखाई दे. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘उत्तराखंड के विधायकों का चरित्र हमेशा से ही सत्ताधारी दल की जी हुजूरी करने वाला रहा है, ऐसे में बड़ा लालच मिलने पर वे किसी भी पाले में जाने को तैयार रहेंगे.’ यह बात इस लिए भी काफी हद तक सही लगती है क्योंकि उत्तराखंड की सियासत में कई मौकों पर ऐसा नजारा दिख चुका है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले मौजूदा बदरीनाथ विधायक राजेंद्र भंडारी का 2007 में भाजपा को समर्थन देना इसका सटीक उदाहरण है. तब नंदप्रयाग विधानसभा से निर्दलीय जीत कर आए राजेंद्र भंडारी ने भुवन चंद्र खंडूरी की भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया था. राजेंद्र भंडारी पूरे पांच साल तक भाजपा की सरकार में मंत्री भी रहे. इसके अलावा महाराज के एक और समर्थक माने जाने वाले निर्दलीय विधायक मंत्री प्रसाद नैथानी भी इस बार कांग्रेस सरकार को समर्थन देकर मंत्री बन चुके हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी ने विधान सभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया था.

aam_chunavलेकिन विधायकों के सत्ता की तरफ झुकाव के इन दो उदाहरणों के बीच राजीव नयन बहुगुणा एक और बात भी कहते हैं, ‘राजनीतिक कौशल के मोर्चे पर सतपाल महाराज के मुकाबले हरीश रावत ज्यादा सक्षम नेता माने जाते हैं, और बहुत संभव है कि महाराज की पत्नी को छोड़ उनके खेमे के बाकी विधायकों को वे आसानी से अपने पाले में खींच लेंगे.’ वे सवालिया अंदाज में कहते हैं, ‘दशक भर तक सर-पैर पटकने के बाद सीएम की कुर्सी पाने वाले हरीश रावत क्या इतनी आसानी से हथियार डाल देंगें?’

डैमेज कंट्रोल की कला में माहिर होने के जिस गुण की ओर राजीव नयन बहुगुणा इशारा कर रहे हैं, उसकी एक झलक रावत हाल ही में दिखा भी चुके हैं. चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही उन्होंने अपनी पार्टी के सात विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर राज्यमंत्री स्तर का दर्जा दे दिया है. इन संसदीय सचिवों में से अधिकतर असंतुष्ठ खेमों के विधायक माने जाते हैं. इसके अलवा कहा जा रहा है कि दूसरे विधायकों के कानों तक भी वे भविष्य में उपकृत करने का दिलासा पहुंचा चुके हैं. ऐसे में यदि ये माननीय उनकी सरकार की ऑक्सीजन सप्लाई जारी रखते हैं तो फिर कोई भी स्थिति हरीश रावत की सरकार के लिए खतरा पैदा करती नहीं दिखती है, क्योंकि यदि इसके बाद सतापाल महाराज की पत्नी अमृता रावत विधायकी से इस्तीफा दे भी देती हैं, तब भी सरकार के पास 39 विधायकों का समर्थन रहेगा, जो कि बहुमत की संख्या से अधिक है. गौरतलब है कि बसपा और निर्दलीयों के गठजोड़ से बने पीडीएफ के सात सदस्य पहले से ही सरकार में सहयोगी हैं. हालांकि जानकारों की मानें तो सतपाल और भाजपा पीडीएफ पर भी लगातार डोरे डालने का काम जारी रखे हुए हैं.

एक संभावना पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के उन कदमों को लेकर भी बन रही है जिनको लेकर पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के राजनीतिक हलकों में खुसुर-फुसुर हो रही थी. दरअसल कुछ दिन पहले पत्रकारों ने विजय बहुगुणा से उनको सीएम की कुर्सी से हटाए जाने को लेकर सवाल पूछा था. टिहरी सीट पर अपने बेटे के चुनाव प्रचार के दौरान पूछे गए इस सवाल पर बहुगुणा ने 16 मई के बाद जवाब देने की बात कही थी. उनके इस जवाब के बाद एक आशंका यह बनी कि यदि भाजपा उनके राजनीतिक पुनर्वास का ठीक-ठाक इंतजाम करती है तो अपने समर्थक विधायकों के साथ वे भी भाजपा में शामिल हो सकते हैं. लेकिन जानकारों का एक वर्ग इस बात की बेहद कम गुंजाइश मान रहा है. दाताराम चमोली कहते हैं, ‘इस बात की संभावना न के बराबर है कि विजय बहुगुणा भाजपा में चले जाएं. 16 मई के बाद जवाब देने से उनका मतलब शायद यह रहा होगा कि हरीश रावत अपने नेतृत्व में कितनी सीटें ला पाते हैं. वैसे भी महाराज के भाजपा में जाने पर बहुगुणा ने हरीश रावत के खिलाफ हमले किए थे और आलाकमान तक संदेश पहुंचाया था कि महाराज को मनाया नहीं जा सका, जबकि वे अपने कार्यकाल में सभी को साथ लेकर चलने में कामयाब रहे थे. अब कांग्रेस के इतने खराब प्रदर्शन के बाद बहुगुणा का निशाना भी हरीश रावत की तरफ ही होगा.’

बहरहाल इन सारी आशंकाओं और संभावनाओं को लेकर जितने मुंह उतनी बातों वाला माहौल चरम पर है, ऐसे में सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि हरीश रावत का मिशन डैमेज कंट्रोल कामयाब हो पाता है या अपने भक्तों के बीच अवतारी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध सतपाल महाराज उत्तराखंड की राजनीति में किसी नए अवतार को जन्म देते हैं.