‘बच्चों को न्याय दिलाने के लिए अभी भी बहुत काम बाकी है’

उसी तरह तीसरे मामले में कानूनी तौर पर न्याय होता दिखा. हालांकि बच्चे की मानसिक पीड़ा उस कष्ट से और बढ़ी जो उसके समुदाय ने दिया. बच्चे को मिले मानसिक आघात से निकालने की बजाय लोग इस घटना के राजनीतिकरण में लगे रहे. बाल यौन उत्पीड़न के मामलों में बच्चे को सदमे से उबारने के लिए न्याय के अलावा सामाजिक स्थिरता, नियमित स्वास्थ्य सेवाओं और निरंतर परामर्श की जरूरत भी महत्वपूर्ण होती है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

सालों के संघर्ष के बाद बच्चों की यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल अॉफेंस एक्ट (पोक्सो अधिनियम) 2012 लागू हुआ, जिसके तहत बच्चों के यौन उत्पीड़न को दंडनीय अपराध माना गया और न्याय की पूरी प्रक्रिया को पीड़ित बच्चे के अनुकूल रखने का प्रयास हुआ. पहले अश्लीलता और उत्पीड़न से जुड़े मामलों में मुकदमा चलाना काफी मुश्किल था क्योंकि सभी मामले भारतीय दंड संहिता के तहत ही दर्ज होते थे.

हालांकि इस कानून के अमल में आने के तीन साल बाद भी पीड़ित बच्चों की स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. पोक्सो कानून के अनुसार ऐसे किसी भी मामले को विशेष किशोर संरक्षण इकाई में रिपोर्ट करना होगा. पोक्सो  पीड़ित की सुरक्षा और विभिन्न सुविधाएं देने के लिए बाल कल्याण समितियों की भूमिका भी स्पष्ट करता है पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि ये बाल कल्याण समितियां भी बाल यौन उत्पीड़न के जटिल मामलों से निपटने के लिए बहुत योग्य नहीं हैं.

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ‘समेकित बाल संरक्षण योजना’ को लाने का उद्देश्य देश के सभी बच्चों के लिए संरक्षणपूर्ण वातावरण बनाना था, जहां उन्हें समुचित आर्थिक सुविधाएं और सहयोग दिया जा सके, पर भूमिकाओं की अस्पष्टता और संविदा कर्मियों की कम तनख्वाह के मुद्दे के चलते इसका क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं हो पाया. इन समस्याओं से पार पाना अभी तो मुश्किल लग रहा है.

पोक्सो के क्रियान्वयन और देखरेख के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोग जवाबदेह हैं. इन आयोगों को राज्य सरकारों द्वारा प्रतिपादित दिशा-निर्देशों की भी निगरानी करनी होती है. पर ज्यादातर राज्य आयोग घटिया बुनियादी ढांचे, संसाधनों की कमी और स्वायत्तता और शक्ति की कमी से जूझ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश राज्य आयोग ने पांच सदस्यों को एक साल के लिए नियुक्त किया लेकिन वर्तमान में आयोग में सिर्फ एक सदस्य है. इसी तरह हरियाणा और राजस्थान के आयोगों में भी सिर्फ एक -एक सदस्य ही है.

इस कानून की धारा 35, स्पेशल पोक्सो कोर्ट के लिए ये अनिवार्य करती है कि पीड़ित बच्चे के बयान और सबूत 30 दिन के अंदर रिकॉर्ड करे और एक साल के अंदर मामले का निपटारा करे. देश के कई भागों में या तो इन मामलों को सुनने के लिए कोई स्थायी कोर्ट नहीं है और अगर है तो फिर वे काम नहीं कर रहे हैं. पोक्सो के प्रावधानों को अमल में लाने के लिए फिर से समीक्षा की जरूरत है. इस कानून को सफल रूप से क्रियान्वित करने के लिए ऐसे मामलों का अनिवार्य रूप से रिपोर्ट होना और पीड़ित की क्षतिपूर्ति का जनता की नजर में आना बहुत जरूरी है.

एनसीआरबी के अनुसार, पोक्सो एक्ट के तहत 2014 में दर्ज मामलों की संख्या 9,712 थी, जिनमें से 6,982 मामलों को निपटा दिया गया. जो 8,379 मामले कोर्ट में चले उनमें से कुल 406 केसों का ट्रायल पूरा हो पाया, जिसमें सिर्फ 1.19 प्रतिशत (100 केस) मामलों में ही आरोपियों को सजा हो पाई. शहरों में हालत थोड़ी ठीक है लेकिन ग्रामीण इलाकों में अब भी इस योजना का प्रसार-प्रचार बाकी है.

सजा मिलने के खराब आंकड़ों और स्पेशल कोर्ट की भारी कमी को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि हमें अपने बच्चों को न्याय दिलाने के लिए अभी बहुत काम करना है. उसी से साबित होगा कि हम अपने बच्चों के खिलाफ किसी भी तरह का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं करते.

(लेखिका चाइल्ड राइट्स एंड यू की निदेशक (नीति एवं अनुसंधान) हैं)

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