लेकिन यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था. मुझे भी जल्दी अवसर नहीं मिला. लंबा संघर्ष करना पड़ा. एक बात गुलजार साहब ने समझाई थी कि अवसर टारगेट की तरह होते हैं. वह कब आपके सामने आ जाएगा, आपको पता नहीं चलेगा. आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी. अगर आप यह सोचते हैं कि अवसर आएगा तो गन साफ करके, गोली भरकर, फिर फायर करेंगे तो टारगेट निकल जाएगा. इसलिए हमेशा तैयार रहना होगा और धैर्य भी बनाए रखना होगा.
संघर्ष लंबा तो था लेकिन मुझे लगता है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आने वाले लोगों के जितने विरोधी हैं, उससे ज्यादा समर्थक हैं. मैं अपनी ही फिल्मों की बात करूं तो अब मेरी ऐसी कमाल की जगह बन गई है कि मुझे हिट या फ्लॉप की चिंता नहीं रहती. अब फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या बोल रहा है. सच तो बाहर आ ही जाता है. यह नैचुरल प्रोसेस है. यह सभी के साथ होगा, इसलिए बगैर घबराए ईमानदारी से अपनी सोच पर काम करने की जरूरत है. अगर सभी लोग सड़क पर चल रहे हों और आप निकल कर कच्चे रास्ते पर आ जाएंगे तो लोग कहेंगे कि उल्लू का पट्ठा है. वे आपको खींच कर सड़क पर लाने की कोशिश करेंगे. उन्हें डर रहेगा कि कच्चे रास्ते से ही कहीं यह आगे न निकल जाए. वे चाहेंगे कि हम उनकी चाल में आ जाएं. लेकिन मेरे लिए तो अपना चुना कच्चा रास्ता ही ज्यादा अच्छा है.
लेकिन इस कच्चे का अर्थ डार्क फिल्म नहीं था. यह संयोग से ही हुआ कि मेरी फिल्में डार्क होती हैं. बस लोगों को पसंद आ गईं फिल्में. मुझे मानव मस्तिष्क में चल रही खुराफातें आकर्षित करती हैं. इंसानी दिमाग की अंधेरी तरफ जबरदस्त ड्रामा रहता है. हमलोग सिनेमा में उसे दिखाने से बचते हैं. हम लोग डील ही नहीं कर पाते. मुझे लगता है कि इस पर काम करना चाहिए. अगर ‘मैकबेथ’ और ‘ओथेलो’ चार सौ साल से लोकप्रिय है तो उसकी अपील का असर समझ सकते हैं. सच कहूं तो मैं तो कॉमेडी फिल्म बनाने की पूरी तैयारी कर चुका था. ‘मिस्टर मेहता और मिसेज सिंह’ की स्क्रिप्ट तैयार थी, लेकिन वह फिल्म नहीं बन सकी.
अब भी मैं देश-विदेश की फिल्में देखता रहता हूं. मुझे व्यक्तिगत तौर पर स्कॉरसीज, कपोला, वांग कार वाई और किस्लोवस्की की फिल्में पसंद हैं.
राजकुमार हिरानी की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देख कर बहुत जोश आया और प्रेरणा मिली. ‘लगान’ या ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ बना पाना बहुत मुश्किल है जिसमें मुख्यधारा में भी रहें और अपने सेंस भी ना छोड़ें. आप पूरी डिग्निटी के साथ एक बड़ी फिल्म बना दें, यह बड़ा मुश्किल काम है. दर्शकों में जहां एक्सपोजर है, जहां अच्छी पढ़ाई-लिखाई है, उनकी समझ अलग है. जहां रोटी-पानी के लिए ही दिक्कत है, उनको फिर आप उस तरह से सिनेमा कैसे दिखा सकते हैं? हमारे यहां ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ भी हिट होती है, ‘इश्किया’ भी हिट होती है. ‘वो आती जवानी रात में’, वो भी चलती है अपने लेवल पर. हमारे यहां दर्शकों के तीन-चार प्रकार हैं. एक अजीब-सा सिस्टम है जिसमें सबके लिए जगह है. आप जिस तरह के लोगों से आयडेंटीफाई करते हैं, अगर उन्हीं से आप प्रशंसा चाहते हैं तो फिर आपको उन्हीं के लिए फिल्म बनानी चाहिए.
लेकिन मेरे खयाल से अब भी हिंदी सिनेमा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. हम अभी भी जीरो हैं. आप्रवासी भारतीयों की संख्या ज्यादा है. वे फिल्में देखने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करते हें. किसी भी फिल्म का बिजनेस 75 और 100 करोड़ हो जाता है, लेकिन क्वालिटी जीरो रहती है. मेरे खयाल से ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद कोई भी हिंदी फिल्म इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की नहीं बनी है. मीरा नायर की फिल्में अच्छी होती हैं. अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारा कमर्शियल सिनेमा ‘लाफिंग स्टॉक’ ही है. माना जाता है कि हम केवल हंसते-नाचते और गाते रहते हैं. धारणा ऐसी बन गई है कि हमारी फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता. अजीब बात तो यह है कि टोरंटो फेस्टिवल में ‘कभी अलविदा ना कहना’ चुन ली जाती है और ‘ओमकारा’ रिजेक्ट हो जाती है. मैं यह नहीं कहता कि एक ही प्रकार का सिनेमा बने. हर कोई ‘ओमकारा’ बनाने लगेगा तो माहौल रूखा हो जाएगा. लेकिन ऐसा चुनाव मेरी समझ में नहीं आता और मैं कनफ्यूज्ड हो जाता हूं.
इस पर यह और कि मुंबई में जान-पहचान के लोग केवल फिल्मों की ही बातें करते हैं. बचने के लिए मैं अक्सर मुंबई से बाहर निकल जाता हूं. आम आदमी की तरह रहने और जीने की कोशिश करता हूं. टिकट की कतार में लग जाता हूं, किसी रेस्तरां में बैठ जाता हूं. बाहर निकलो तो दुनिया के आम लोगों से मेलजोल होता है और अपनी भी खबर लगती है. पता चलता है कि अभी क्या और कैसे हो रहा है. वैसे तो सूचना के इतने माध्यम आ गए हैं, लेकिन दुनिया से सीधे जुड़ने का अब भी कोई विकल्प नहीं है.
इन दिनों एक बहुत अच्छा परिवर्तन यह आया है कि मल्टीप्लेक्स के आने की वजह से छोटी और गंभीर फिल्में भी हिट हो रही हैं. मुझे लगता है कि राज कपूर के समय में श्याम बेनेगल और सत्यजीत रे की फिल्मों के दर्शक बिल्कुल नहीं थे. अब 25 प्रतिशत दर्शक वैसे हैं. उस वक्त विश्व सिनेमा का बिल्कुल एक्सपोजर नहीं था. यूरोपियन फिल्में आती नहीं थीं. फेस्टिवल में खास प्रतिशत में ही लोग देखते थे. करोड़ों की आबादी में चार हजार लोग ही ढंग की विदेशी फिल्में देख पाते थे. अब एक्सपोजर के बाद दर्शक और फिल्ममेकर दोनों बदले हैं. पहले शायद मजबूरी में राज कपूर को व्यावसायिक फिल्में बनानी पड़ती होंगी. हमें नहीं पता. हो सकता है कि राज कपूर यूरोप में जाकर देखते हों तो उनको लगता हो कि यार मैं ऐसी फिल्में बना पाता, पर मेरे देश में दर्शक ही नहीं हैं यह देखने के लिए. आज वे होते तो बहुत खुश होते.
अजय ब्रह्मात्मज से बातचीत पर आधारित.
मुलत: 100 साल का सिनेमा(15 मई 2012) में प्रकाशित