आपने बेरोकटोक पहनने की आजादी मांगी, घूमने-फिरने की आजादी मांगी, शराब पीने की आजादी मांगी, सेक्स-पार्टनर चुनने की आजादी मांगी, बहु-संबंधों की आजादी मांगी, जिम्मेदारियों से आजादी मांगी- उन्होंने दे दी! और इन सब आजादियों को मिला के ऐसा किरदार बना दिया जो अपने आसपास के हर इंसान को आतंकित किए रखता है… अब आप डैमेज-कंट्रोल करती रहिए.
फिल्में कम देखती हूं इसलिए स्त्रीवादी हिंदी फिल्मों पर कोई राय नहीं है. इस वजह से तुलना नहीं कर सकूंगी लेकिन ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखी है. सोशल मीडिया पर पढ़ा था कि एम्पावर्ड वीमेन की कहानी है. फिल्म देख के बस वो मुसलमान मर्द याद आए जो बुरका का समर्थन करते समय नग्नता का हवाला देते हैं, कि आप को शरीर ढकने से ऐतराज है क्योंकि आप न्यूडिटी पसंद करते हैं. मानो बुरका और न्यूडिटी के बीच जींस-टॉप, साड़ी, लहंगा, सलवार-कमीज, स्कर्ट-फ्रॉक आदि कुछ है ही नहीं. उसी तरह या तो एक महिला दबी-कुचली आदर्श नारी होगी या फिर बे-उसूल, बेवफा आजाद तितली. महानगरों में रह रही मेहनतकश, संघर्षरत, स्वयं-सिद्धा, स्वाभिमानी और व्यसनहीन ‘दत्तो’ का अकेले रह जाना बहुत सालता है.
तनु वेड्स मनु रिटर्न्स हॉल के भीतर आपको हंसने से फुर्सत नहीं देती. हॉल के बाहर आइए तो भोले-भाले क्यूट डायलॉग्स गाने की तरह गुनगुनाते रहिए. करैक्टर आर्टिस्ट्स के दृश्य इतने जानदार हैं कि मुख्य कलाकारों के बराबर खड़े हैं. यूपी और हरियाणा का समागम तो मानो दिल्लीवालों के दिल की बात हो गई. लेकिन इसके साथ-साथ ‘तनु’ और ‘दत्तो’ पर बारीक विश्लेषण भी जारी है. कुछ लोग इसे नारीवाद और एम्पावर्ड वीमेन के नजरिये से देख रहे हैं.
मुझे यकीन है कि इस फिल्म की पुरुष टीम नारी-स्वछंदता से भयभीत है. मजाक-मजाक में फिल्म बता गई है कि आज की शहरी लड़की खुद-परस्त, धोखेबाज, बेवफा, बे-दिल, पुरुष-शोषक और बे-किरदार इंसान है. वो पति पर कमाने, खिलाने, रखने का बोझ तो डालती ही है साथ ही वो पति को निरंतर एक आशिक, हंसोड़-मित्र और मनोवैज्ञानिक बने रहने का अतिरिक्त भार भी डालती है, और ये सब करते समय उसकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है. यानी पति तो उसको सुपरमैन चाहिए और खुद वो एक पैरासाइट जोंक है जो सिर्फ लेना जानती है, देना नहीं.
फिल्म देख वो मुसलमान मर्द याद आए जो बुरके का समर्थन करते समय हवाला देते हैं कि आपको शरीर ढकने से ऐतराज है क्योंकि आप नग्नता पसंद करते हैं
शादी के अंदर और बाहर बस वो पुरुष साथियों का इस्तेमाल कर रही है. पति-पुरुष तो छोड़िए वो खुद-परस्ती में इस हद तक अंधी है की नाकाम शादी से पीछा छुड़ाकर जब मायके में परिवार पर बोझ बनती है तब भी वो उनकी सामाजिक परिस्थिति का लिहाज नहीं करती और परिवार वाले इस आतंक में रहते हैं कि लंदन-रिटर्न बेटी किस परिस्थिति में जलील करवा दे. मायके में वापसी कर वो रोजगार या आत्मनिर्भर होने की कोशिश नहीं करती बल्कि निकल पड़ती है अपनी बोरियत मिटाने और पीछे छूट गए आशिकों में संभावनाएं तलाशने.
उसके कपड़े, उसके परिधान-श्रृंगार, उसकी शराब, उसका घूमना-फिरना, मर्दों का इस्तेमाल करना आदि सब कुछ कॉमेडी की चाशनी में ऐसे घोला गया है कि आपको उस वक्त ऐतराज नहीं होता, लेकिन अपने साथ ही बैठे एक नौजवान मर्द को चहकते हुए मैंने कहते सुना, ‘मेरी गर्लफ्रेंड भी ऐसी ही बवाली थी, हे भगवान तेरा शुक्र है कि पीछा छूट गया, वरना न काम का रहता न काज का !’ इस फिल्म में एक तनु के कारण बाकी सभी चरित्र दुखी हैं या
मुसीबत में हैं, ऐसी लड़की, नए कानूनों से डरे बैठे शहरी पुरुषों को सिर्फ और डरा सकती है.
अब हमारे हिंदी फिल्म निर्माता भी सामंती रिश्तेदारों की तरह, महिला की खुद-मुख्तारी को एक सुर में नग्नता, सुरापान, उन्मुक्त-यौन संबंध तक सीमित कर वही तर्क दे रहे हैं जो बुरके की अनिवार्यता पर कठमुल्ले देते हैं कि अगर आपको बंद-गोभी की तरह बुरका-बंद होने से ऐतराज है तो लाजमी तौर पर आप बिकिनी-न्यूडिटी समर्थक हैं, जबकि समाज की सच्चाई कुछ और है.
bilkul sahi farmaya lekin burka yahan kahan se aa gaya. ..aap ka kahan bilkul sahi hai ki nari ne jis roop mein modernism ko apnaya hai usse uska apna jivan hi pareshan ho gaya hai. …ultimately hum log chahe kahi bhi rahe Hume khane ko bhojan aur rahne ko ek ghar chahiye iske bad jo bhi hai wo hamari next zaroorat hai…jiske ke liye hum shangharsh karte hain..lekin ye azadi aur zimmedari se bhagna kahan se aa gaya. .
Has Lijye Lekin Khush hone wali baat nhi hai……………..mazedar haqeqat