
बिहार में इस बार का चुनाव कई मायने में दिलचस्प है. 2010 से 2015 के बीच जो विधानसभा के सदस्य रहे, उनमें से सारे सत्ता और विपक्ष दोनों का मजा ले चुके हैं. जदयू सत्ता में भी रही है और एक दिन के लिए विपक्ष में भी, जब जीतन राम मांझी को बहुमत साबित करना था. कांग्रेस विपक्ष में भी रही है और सत्ता के समर्थन में भी. राजद और सीपीआई का भी वही हाल रहा. भाजपा तो सत्ता में रही ही और बाद में विपक्ष की भूमिका में आई. यह दिलचस्प है कि सभी सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों का मजा ले चुके लोग इस बार आपस में अलग-अलग खेमे में बंटकर एक-दूसरे की औकात नाप रहे हैं.
जब यह समाचार लिखा जा रहा है, तब बिहार की राजनीति में तंत्र-मंत्र वाला अध्याय परवान चढ़ा हुआ है. केंद्रीय राज्यमंत्री गिरिराज सिंह के सौजन्य से जारी नीतीश कुमार का वह वीडियो, जिसमें एक तांत्रिक उन्हें गले लगाए हुए दिख रहा है, उसे ही केंद्र में रखकर सारे आयोजन हो रहे हैं. नरेंद्र मोदी धुआंधार चुनावी प्रचार में हैं और सभी जगह नीतीश कुमार के नाम के पहले लोक-तांत्रिक नीतीश कुमार कहकर संबोधित कर रहे हैं. वे तांत्रिक प्रकरण को मुद्दा बनाने में पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. संभव है, जब तक यह पत्रिका आपके हाथों में पहुंचे और आप इस लिखे से गुजर रहे हों, तब तक कोई और चुनावी बम बिहार में फट चुका हो. कोई और वीडियो या फिर कोई और नया बयान चर्चा के केंद्र में होगा, क्योंकि तब बिहार में आखिरी चरण का चुनाव हो रहा होगा और जनता बेसब्री से चुनाव परिणाम का इंतजार करने के मूड में आ रही होगी. कौन हारेगा, कौन जीतेगा, यह कह सकने की स्थिति में इस बार कोई नहीं है. पूरे चुनावी दौर में अनुमानों का युद्ध तो चलता रहा लेकिन कोई भी सटीक अनुमान नहीं लगा सका. जीत और हार का फैसला आठ नवंबर को होगा.
नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला महागठबंधन जीतेगा तो उसके अलग मायने होंगे, राज्य की राजनीति के संदर्भ में भी और देश की राजनीति के संदर्भ में भी. भाजपा हारती या जीतती है तो भी उसका असर पार्टी की राजनीति पर दोनों ही स्तरों पर पड़ेगा. केंद्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर भी. हालांकि, हार या जीत से पहले नीतीश और भाजपा- दोनों ने कुछ हद तक बाजी को अपने पाले में कर रखा है. चित भी अपनी ओर और पट भी अपनी ओर. भाजपा ने पूरी कोशिश कर लड़ाई को मोदी बनाम नीतीश की बजाय मोदी बनाम लालू कर दिया है. लड़ाई को मोदी बनाम लालू करने से भाजपा को नुकसान में भी राहत की उम्मीद है. बिहार में लड़ाई अगर मोदी बनाम नीतीश होती और अगर भाजपा हारती तो भाजपा को ज्यादा नुकसान होता. नीतीश से हार का मतलब विकास के मसले पर हुई हार माना जाता.
नीतीश और मोदी में सीधे टकराव के बाद नीतीश की जीत का मतलब राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद बढ़ने का संकेत होता और नीतीश का कद बढ़ता तो फिर वे राष्ट्रीय स्तर पर बिखरे विपक्षी दलों की गोलबंदी की ताकत रखते. लेकिन लालू प्रसाद के नेतृत्व में महागठबंधन की जीत के बाद भाजपा यह कहकर खुद को तसल्ली दे सकने की स्थिति में रहेगी और लोगों को भी समझाएगी कि घृणित जात-पात की राजनीति से हार गई. जानकार बता रहे हैं कि इसलिए भाजपा ने आगे की पूरी राजनीति को संभाले रखने के लिए लड़ाई को लालू बनाम मोदी में बदल दिया है, नीतीश बनाम मोदी में नहीं रहने दिया. दूसरी ओर नीतीश ने भी इस पूरी लड़ाई में अपने को कंफर्ट जोन में रखा है. वे लालू प्रसाद के साथ रहते हुए भी लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय के मसले को या अगड़े बनाम पिछड़े की लड़ाई वाले मसले को नहीं उठा रहे. क्योंकि नीतीश अपनी छवि का नुकसान नहीं चाहते, इसलिए वे जीत और हार दोनों की स्थिति में अपनी छवि को बनाए-बचाए रखना चाहते हैं. इस पूरे चुनाव में यह दिखा भी जब पूरी बिहार की राजनीति फिसलन के रास्ते चलती रही, रोजाना बयानों के वार चलते रहे और निचले पायदान तक पहुंचते रहे, नीतीश ने अपने आपको संभाले रखा. खैर, यह पूरी सियासत तो जीत और हार के बाद की है, जो आठ नवंबर के बाद तय होगा लेकिन बिहार में इस जीत-हार के बाद एक और बात चारों तरफ चर्चा में है और लोग यह मानने लगे हैं कि इस जीत-हार के खेल में जीत किसी की हो, हार बिहार की हो चुकी है.
नैराश्य का यह भाव उपजने की ठोस वजहें भी हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं कि बिहार में इस बार जो बयान चल रहे हैं, उसका असर चुनाव में वोट पाने में कितना होगा, वह तो नेता भी नहीं बता सकते लेकिन यह तय है कि इस चुनाव के बाद बिहार एक बार फिर अराजक दौर में पहुंचेगा और बड़े नेताओं द्वारा दिए गए बयानों का असर निचले स्तर तक पहुंचकर अराजकता को बढ़ावा देगा. ज्ञानेश्वर या उन जैसे लोग अगर ऐसी बात कर रहे हैं तो उसके पीछे कोई रहस्य नहीं. बिहार की राजनीति की शुरुआत इस बार चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति का पता लगाने से हुई थी और उसके बाद विकास, बीफ, अगड़ा-पिछड़ा, डीएनए, नरपिशाच, नरभक्षी जैसे शब्दों से गुजरते हुए अब तांत्रिक और स्त्री के चरित्र हनन तक पहुंची है. उन बयानों पर एक बार गौर कर सकते हैं, जो इस बार बिहार के चुनाव में छाए रहे.
‘जितने भी गुंडे-बवाली-मवाली हैं, सब लालू यादव के दामाद हैं.’
‘अमित शाह नरभक्षी है.’
‘मोटा तोंदवाला अमित शाह इतना मोटा है कि लिफ्ट में फंस गया था.’
‘लालू प्रसाद यादव के रिश्तेदार शैतान हैं क्या?’