जयपुर के सवाई मानसिंह स्टेडियम में 31 अक्टूबर 2005 को तीसरे वनडे मुकाबले में श्रीलंका ने भारत के सामने 299 रनों का विशाल लक्ष्य रखा था. सहवाग और सचिन सस्ते में पवेलियन लौट चुके थे. ऐसे में हैल्मेट से बाहर कंधे तक झूलते बालोंवाले एक नये लड़के के सामने अनुभव से बड़ी चुनौती खड़ी थी. श्रीलंकाई आक्रमण का इसके बाद जो हश्र हुआ, वह अद्भुत और अकल्पनीय था. यह एक नायक के सृजन की शुरुआत थी. झारखंड की राजधानी रांची के साधारण युवा महेंद्र सिंह धोनी की चमत्कारिक यात्रा का पहला अध्याय था. धोनी ने जब ताबड़तोड़ बैटिंग शुरू की तो लाखों-करोड़ों दर्शकों ने तालियों के साथ इस नए नायक का इस्तकबाल किया. बार-बार सीमा रेखा के पार जाती गेंदों ने बता दिया कि धोनी सीमाओं में बंधकर नहीं रहेंगे. उनकी कामयाबी की स्वर्णिम किताब का पहला अध्याय लिखा जा चुका था. नाबाद 183 रनों की इस जीवट पारी के बाद भी किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन इस लड़के की कप्तानी में भारत टेस्ट रैंकिंग में नबंर वन और वनडे, टी-20 का विश्व विजेता बनेगा.
धोनी के उभार के साथ भारतीय क्रिकेट टीम एक नये सांचे और युग में ढल गई. टेस्ट क्रिकेट में धोनी के अलविदा कहते ही उस युग का भी अवसान हो गया. बड़े खिलाड़ी हमेशा स्थापित मान्यताओं से आगे बढ़ते हुए खेल को कुछ नया दे जाते हैं. धोनी ने क्रिकेट को हेलीकॉप्टर शॉट दिया. यह क्रिकेट के शब्दकोश में नया शब्द था. वनडे और टी-20 मैचों में धोनी निसंदेह बेहतरीन मैच फिनिशर हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि धोनी अपनी तरह के नायक थे. सचिन की तुलना ब्रैडमेन और गावस्कर से होती रही, गांगुली की कप्तानी की तुलना पोंटिंग से होती थी, लेकिन धोनी की तुलना किसी से करना तर्कसंगत नहीं है. इसलिए नहीं कि इन महान खिलाड़ियों से धोनी का कद बड़ा है, इसलिए कि धोनी अलग परिस्थितियों में बने नायक थे. नायक एक लम्हे में नहीं, उसके वक्त के पूरे फैलाव में बनता है. धोनी महानगर से निकलकर नायक नहीं बने थे. सामान्य परिवेश में रहकर महान सपने देखने और अपनी काबिलियत पर विश्वास ने उन्हें सफलतम बनाया. धोनी की उपलब्धि का लेखा-जोखा महज हार-जीत, शतक-अर्धशतक और रैंकिंग से नहीं हो सकता. ‘स्माल टाउन बिग ड्रीम्स’ का टैग धोनी के साथ शुरू हुआ और इसने क्रिकेट से इतर सभी क्षेत्र में छोटे शहरों के युवाओं की सफलता की नई परिभाषा लिखी. कभी कोका कोला ने यह कहकर उन्हें विज्ञापन में लेने से मना कर दिया था कि उनका उच्चारण ठीक नहीं है. बाद में वही धोनी राफेल नाडाल से भी बड़े ब्रॉण्ड बन गये.
धोनी ने महत्वपूर्ण सफलताएं देखीं, तो आलोचनाओं के निर्मम प्रहार भी सहे. सम्मान और प्रशंसकों का हुजूम देखा तो विवाद और आरोपों से भी अछूते नहीं रहे. सफलताओं ने जब आगे बढ़कर उन्हें चूमा तो लोगों ने कहा कि धोनी किस्मत के धनी हैं. जिस चीज को छूते हैं सोना बन जाती है. फिर उनके करियर, खेल और कप्तानी में ठहराव दिखने लगा. कप्तानी और बतौर खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट में खास तौर पर उनका भटकाव भी नजर आने लगा. आनेवाले समय में इतिहास जब इस खिलाड़ी का मूल्यांकन करेगा, निसंदेह उसमें उनकी आलोचनाएं और असफलताओं की भी लंबी फेहरिस्त रहेगी.
धोनी के पास सपने थे, लगन थी और थी उन्हें पूरा करने की जिद. मेकॉन कंपनी में एक मामूली मुलाजिम पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि उन्हें वर्ल्ड क्लास ट्रेनिंग दे सकें. रेलवे में टीसी से अपना सफर शुरू करनेवाले इस सतत योद्धा ने कभी हार नहीं मानी. कभी खड़गपुर में महज 300 रुपये की मैच फीस के साथ खेलनेवाले धोनी देखते-देखते खेल जगत के सबसे धनी खिलाड़ियों में शुमार हो गए.
सफलताओं ने जब आगे बढ़कर उन्हें चूमा तो लोगों ने कहा कि धोनी किस्मत के धनी हैं. फिर उनके करियर, खेल और कप्तानी में ठहराव का दौर आ गया
परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाना, प्रयोग करने और निर्णय लेने की क्षमता से उन्होंने असाधारण उपलब्धियां हासिल कीं. 33 वर्षीय धोनी ने अपना पहला टेस्ट मैच 2 दिसंबर 2005 में श्रीलंका के खिलाफ चेन्नई में खेला था. उन्होंने भारत के लिए 90 टेस्ट मैचों की 144 पारियों में 4,876 रन बनाए. इसमें 6 शतक और 33 अर्ध शतक शामिल हैं. टेस्ट मैचों में उनका उच्चतम स्कोर 224 रन है. कह सकते हैं कि एक मामले में धोनी के चरित्र में एक विरक्ति का अंश भी है, वरना 100 टेस्ट के मुहाने पर खड़ा होने के बावजूद वे उसके मोह में नहीं पड़े.
2008 में जब अनिल कुंबले ने चेन्नई में टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहा, तो उन्हें कंधे पर बिठाकर धोनी मैदान से बाहर ले गए. इसके बाद टेस्ट कप्तानी का भी भार उन्होंने अपने कंधे पर उठा लिया. इस जिम्मेदारी को न सिर्फ उठाया, बल्कि बखूबी निभाया. सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण जैसे सीनियर खिलाड़ियों के साथ युवाओं की टीम को धोनी ने एकजुट किया. सबकी प्रतिभा पहचानकर सबसे बेहतर टीम बनाने का सफर इतना आसान नहीं था. एक ओर अहं का टकराव था तो दूसरी ओर युवाओं का जोश. ऐसे में किसी कुशल सेनानायक की भूमिका धोनी ने बखूबी निभाई. धोनी के करिश्माई नेतृत्व का ही कमाल था कि टीम इंडिया टेस्ट क्रिकेट में नंबर वन बनी. सितंबर 2009 से जून 2011 तक टीम टेस्ट में नंबर वन रही. साल 2011 में ही उन्होंने भारत को 28 साल के इंतजार के बाद फिर से विश्व कप जिताया. उनकी कप्तानी में भारत ने 60 टेस्ट में से 27 जीते और 18 गंवाए. धोनी के नाम कप्तान के तौर पर भारत के लिए सबसे ज्यादा टेस्ट जीत का रिकॉर्ड दर्ज है. इसके साथ ही विकेटकीपर के तौर पर सबसे अधिक स्टंपिंग का रिकॉर्ड भी धोनी के ही नाम है.
मैदान पर अपने फैसलों को लेकर धोनी हमेशा चौंकाते रहे हैं. वहीं मैदान के बाहर बहुत खामोशी से अपनी जिंदगी जीते हैं. धोनी की जिंदगी से जुड़े लोगों का कहना है कि कप्तान बनने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में वही सहजता और स्नेह है. रांची में उनके पहले कोच रहे चंचल भट्टाचार्य कहते हैं, ‘माही ने कभी अहसास नहीं होने दिया कि वह स्टार है. रांची आता है तो मुझसे जरूर मिलता है. फरवरी 2013 में मेरे घर आते ही सीधे किचेन में घुस गया और मेरी पत्नी से फरमाइश की चाउमीन बनाने की.’ रांची के देउड़ी मंदिर में माथा टेकना या स्कूल-कॉलेज जमाने के दोस्त, सबके लिए कैप्टन कूल वही पुराने माही हैं.
धोनी का टेस्ट क्रिकेट से संन्यास का फैसला भी वैसा ही चौंकाने वाला रहा. किसी को भनक तक नहीं लगने दी और मेलबर्न में तीसरा टेस्ट खत्म होने के बाद संन्यास की घोषणा कर दी. संन्यास की इस घोषणा के साथ ही उनके समर्थन और विरोध में आवाजें उठने लगीं. पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद ने उन्हें ‘रणछोड़ दास’ कहा तो सौरभ गांगुली ने भी असहमति दर्ज की. बिशन सिंह बेदी ने भी इसे एक ‘असामान्य’ फैसला बताया. वहीं द्रविड़, सचिन समेत कई खिलाड़ियों ने उनके फैसले का सम्मान करने की बात कही. क्रिकेट जगत में इस बात की भी चर्चा है कि टीम में रवि शास्त्री और विराट कोहली के बढ़ते दखल के कारण भी धोनी ने यह फैसला लिया.