‘कॉल मी कैटलिन’ (मुझे कैटलिन बुलाएं), उसने कहा और पूरी दुनिया भड़क उठी. यह प्रसिद्ध पत्रिका ‘वैनिटी फेयर’ के जुलाई 2015 के कवर पर लिखा वाक्य था, जो हाल ही में ऑपरेशन के जरिये पुरुष से महिला में तब्दील हुए प्रसिद्द अमेरिकी एथलीट और अभिनेता ब्रूस जेनर (अब कैटलिन जेनर) के बारे में था. गौरतलब है कि ब्रूस अमेरिका के प्रसिद्ध करदशियां परिवार से भी ताल्लुक रखते हैं. ब्रूस ने तीन शादियां की थीं. तीसरी शादी उन्होंने अभिनेत्री क्रिस करदशियां से की, जिससे उनकी दो बेटियां मॉडल- कैंडल और कायली जेनर हैं. क्रिस करदशियांं की पहली शादी से तीन बेटियां- कर्टनी, किम और कोह्ल करदशियां हैं. इस तरह से ब्रूस उनके सौतेले पिता हैं. बहरहाल पत्रिका के इस कवर ने ट्रांसजेंडरों के मुद्दे को मीडिया विमर्श के केंद्र में ला दिया है.
ट्रांसजेंडर हमारे समाज का एक बहिष्कृत अंग समझे जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उनको बेइज्जती और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. अगर आपको लगता है कि ऐसे माहौल में जीना मुश्किल है, जहां महिलाओं को शर्मिंदा किया जाता है, रोने वाले पुरुषों का मजाक बनाया जाता है, तो हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है जहां से इसकी शुरुआत होती है, जहां हम पैदा होते ही लड़के और लड़कियों को क्रमशः नीले और गुलाबी रंग के कोड में बांट देते हैं. सोचिए ऐसे वर्गीकृत समाज में उनकी क्या दशा होती होगी जो समाज के बनाए पैमाने पर फिट ही नहीं बैठते.
इस बारे में देश की पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’
सीबीएसई की 12वीं की जीव विज्ञान की किताब के तीसरे पाठ का शीर्षक ‘मानव प्रजनन’ है, जिसमें बताया गया है कि मानव जाति किस तरह प्रजनन करती है और कैसे पुरुष और नारी के जननांग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं. इसी शारीरिक अंतर के कारण लिंग दो भागों यानी स्त्री और पुरुष में बांटे गए हैं.
हालांकि हर व्यक्ति का लिंग उसके जन्म के समय निर्धारित हो चुका होता है पर ये जरूरी नहीं कि वही लिंग ही उसकी पहचान हो. बस इन दोनों बातों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाना ही हमारे देश में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को हाशिये पर धकेल देता है. इस साल 15 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए इस सोच के दायरे से आगे निकलने की कोशिश की. तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद थिरु तिरुची सिवा की राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल (2014) की प्रस्तावनाओं को संज्ञान में लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को सभी ट्रांस-पीपुल को कानूनी पहचान देने का आदेश दिया. जहां एक तरफ इस निर्णय को एक उपेक्षित तबके को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास के रूप में सराहना मिली, वहीं इस फैसले को पूरे देश के ट्रांस पुरुषों और ट्रांस महिलाओं की आलोचना भी झेलनी पड़ी.
पहली ट्रांसजेंडर रैंप-वाक ट्रेनर नाज जोशी (34) बताती हैं, ‘जब से होश संभाला, मैंने अपने शरीर और आत्मा में एक किस्म का टकराव महसूस किया. स्कूल में जब किसी कार्यक्रम में टीचर मुझे लड़की की तरह सजातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता पर जब मुझे लड़के के रूप में पेश किया जाता तो मैं बहुत असहज रहती. ट्रांसजेंडर लोगों के साथ ये परेशानी होती है कि उनके शरीर और आत्मा में तालमेल नहीं हो पाता. लिंग का संबंध सिर्फ शारीरिक संरचना से ही तो नहीं होता.’
इस फैसले की भाषा पर सवाल उठाते हुए ट्रांस-मेन और सामाजिक कार्यकर्ता जी. इमान सेम्मलर कहते हैं, ‘कोर्ट ने सभी किन्नरों को ‘थर्ड जेंडर’ कहा है. कोर्ट ने कहा है कि वे महिला नहीं हैं क्योंकि उनके पास प्रजनन अंग नहीं हैं, उन्हें मासिक स्राव नहीं होता और वे ‘बधिया पुरुष’ हैं.’
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय में ट्रांसजेंडर समुदाय के उत्थान के लिए बनाई गई कई नीतियां दोधारी तलवार के जैसी हैं. जी. सेम्मलर आगे बताते हैं, ‘2010 में कर्नाटक सरकार ने इस समुदाय को लाभावित करने के लिए आदेश जारी किए थे जिन्हें अब अन्य पिछड़ा वर्ग की 2ए श्रेणी में जोड़ दिया गया है. हम अब तक इसके लागू होने की राह देख रहे हैं जबकि ऐसी अफवाहें रही हैं कि समुदाय के लिए जो काम कराए जाएंगे, उसके अधिकार एनजीओ को देकर उन्हें फायदा पहुंचाया जाएगा. अप्रैल 2011 में, कर्नाटक सरकार ने, पूर्व कानून सचिव और कर्नाटक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के पूर्व उपाध्यक्ष केआर चमय्या के आदेश के अनुसार स्टेट पुलिस एक्ट में सेक्शन 36 लाकर कुछ संशोधन किए गए थे. इस सेक्शन का उद्देश्य किन्नरों द्वारा की जाने वाली आपत्तिजनक गतिविधियों की रोकथाम था. इसके अनुसार पुलिस को उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले ऐसे सभी किन्नरों का रिकॉर्ड रखना था जिन पर छोटे लड़कों को अपहृत करने या अप्राकृतिक अपराध करने का शक हो. ये क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट का हिस्सा है जिसका देश में अब भी पालन हो रहा है जबकि हम सुप्रीम कोर्ट के ट्रांस-पीपुल को पहचान देने के अधिकार की खुशी मना रहे हैं.’
दशकों तक समाज से बहिष्कृत रहे इस समुदाय को पहली बार हैदराबाद यूनक एक्ट में ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित किया गया था. ये एक्ट 1871 के एक पुराने और क्रूर क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट पर आधारित है, जिसमें कुछ विशेष जाति और जनजातियों को शामिल किया गया है, जिन्हें जन्म से ही अपराधी माना जाता है. इसके तहत सभी हिजड़ों, जो बच्चों के अपहरण या उन्हें बधिया बनाने या फिर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के तहत किए गए किसी अपराध के लिए शक के दायरे में हों, के नाम और पते दर्ज करने के बारे में कहा गया है. इसी के अनुसार देश के ट्रांसजेंडर लोगों को अपराधी मान लिया गया और एक नागरिक के बतौर उन्हें मिलने वाले मूल अधिकारों को भी छीन लिया गया. किसी भी पहचान पत्र या कानूनी कागज के न होने की स्थिति में देश में इस समुदाय के लोग स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार के अवसरों से वंचित और मुख्यधारा से कटे हुए हैं. ऐसे में इतने लंबे समय की पीड़ा के बाद ट्रांसजेंडरों को कानूनी पहचान देने की बात मरहम की तरह लगती है.

एक व्यक्ति ‘एस’ दक्षिणी दिल्ली के एक सुनसान इलाके में अपना छोटा सा व्यापार करते हैं. अपने ग्राहकों से वे बहुत ही अच्छी तरह से पेश आते हैं. उनके इस रवैये के बावजूद उनकी दुकान में आने वाले पुरुषों का उनके स्त्रैण व्यवहार पर ताने मारना बंद नहीं होता. वह कहते हैं, ‘बचपन से ही मेरी सारी दोस्त लड़कियां ही थीं, मुझे उनकी तरह तैयार होना भी बहुत अच्छा लगता था. पर अब ऐसा संभव नहीं है. ऐसा करूंगा तो लोग मुझसे पूछेंगे कि क्या मैं छक्का हूं.’ वे खुद को पुरुष ही कहते हैं और विवाहित भी हैं.