‘बोरिया-बिस्तरा बांधना’ एक पुराना मुहावरा है. लेकिन इसका अर्थ हमेशा एक-सा नहीं रहा. एक जगह से ऊब गए तो बोरिया-बिस्तरा बांधा और चल पड़े देशाटन को. जी हां, तब पर्यटन शब्द चलन में नहीं था पर देशाटन के लिए निकलने वालों की कोई कमी नहीं थी. अपने आसपास या दूर को जानना-पहचानना, दो-चार-दस दिन के लिए नहीं, लंबे निकल जाना और लौट कर बिना बुद्धू बने घर वापस आना खूब चलता था. इस देशाटन में दिशाएं, पड़ाव या मंजिल, कुछ भी तय नहीं रहता था.
तीर्थाटन इससे बिल्कुल अलग था. दिशा, जगह, पड़ाव, मंजिल, मौसम सब कुछ तय रहता था. तीर्थ सब दिशाओं में थे. सचमुच उत्तर, दक्खिन, पूरब और पच्छिम. तीर्थ भी सब धर्मों के, केवल हिंदुओं के नहीं. फिर कुछ तीर्थ ऐसे भी जिनमें अन्य धर्मों के लोग भी आते-जाते थे. हर पीढ़ी की ऐसी इच्छा होती कि अपनी अगली पीढ़ी के हाथों घर-गिरस्ती सौंपने से पहले एक बार इनमें से कुछ तीर्थों के दर्शन कर ही लें. शरीर में सामर्थ्य हो तो अपने दम पर नहीं तो श्रवण या सरवण कुमारों की भी कोई कमी नहीं थी जो अपने बूढ़े माता-पिता को बहंगी में उठा कर सब दिखा लाते थे, घुमा लाते थे.
ये तीर्थ भी दो तरह के माने गए थे. एक स्थावर यानी किसी विशेष स्थान पर बने थे. इन तक लोगों को खुद ही जाना पड़ता था, पुण्य कमाने. लेकिन कुछ ऐसे भी तीर्थ बन जाते थे, जिन तक जाना नहीं पड़ता था- वे तो आपके शहर, गांव, घर दरवाजे पर स्वयं आकर दस्तक दे देते थे. ऐसे तीर्थ जंगम-तीर्थ कहलाते थे- यानी चलते-फिरते तीर्थ. समाज में बिना स्वार्थ साधे, सबके लिए कुछ न कुछ अच्छा करते-करते कुछ विशेष लोग संत, विभूति जंगम तीर्थ बन जाते थे. उनका घर आ जाना या उनको कहीं मिल जाना तीर्थ जैसा पुण्य, आनंद दे जाता था. आज भी हमारे-आपके जीवन में सारी भागदौड़ के बाद ऐसे कुछ लोग मिल ही जाते हैं जिनसे मिलकर सब तनाव दूर हो जाते हैं.
समय के साथ बहुत-सी चीजें, व्यवस्थाएं बदलती हैं. सब कुछ रोका नहीं जा सकता. लेकिन हमें पता तो रहे, होश तो रहे कि हमारे आसपास धीरे-धीरे या खूब तेजी से क्या-कुछ बदलता जा रहा है.
आज के पर्यटन से पहले देशाटन और तीर्थाटन था और सब जगह इसके साथ एक पूरी अर्थव्यवस्था थी. उससे तीर्थों के आसपास के अनगिनत गांव, शहर भी जुड़े रहते थे. वह आज के पर्यटन उद्योग की तरह नहीं था. एक तरह का ग्रामोद्योग या कुटीर उद्योग था.
सैर-सपाटे पर जाने का या कहें आकर्षक विज्ञापन छापकर जबरन सैर करवाने का एक नया उद्योग खड़ा हो चुका है
उदाहरण के लिए, बदरीनाथ या हिमालय की चार धाम यात्रा को ही लें. यह तीर्थयात्रा साल में तब भी आज की तरह ही कोई छह महीने चलती थी. पूरे देश से लोग यहां आते थे. हिमालय में तब सड़कें नहीं थीं. मैदान में बसे हरिद्वार या ऋषिकेश से सारी यात्रा पैदल ही पूरी की जाती थी. प्रारंभिक मैदानी पड़ाव में, हरिद्वार आदि में धर्मशालाएं, बड़े-बड़े भवन थे. पर फिर उसके बाद सारे पैदल रास्ते में ठहरने, रुकने, खाने-पीने का सारा इंतजाम रास्ते में दोनों तरफ पड़ने वाले छोटे-बड़े गांवों के हाथों में ही रहता था. पूरा देश स्वर्ग जाने वाली इन छोटी-छोटी पगडंडियों से पैदल ही चढ़ता-उतरता था. हां, कुछ लोग तब भी सामर्थ्य, मजबूरी आदि के कारण पालकी, डोली या खच्चर का प्रयोग कर लेते थे. इंदौर रियासत की रानी अहिल्या बाई पालकी से ही बदरीनाथ गई थीं और आज के चमोली जिले के पास गोचर नामक एक छोटे-से कस्बे में अपनी उदारता, जीव दया और किसानों की जमीन के अधिग्रहण के कुछ सुंदर नमूने आज के नए राजा-रानियों के लिए भी छोड़ गई थीं.
यह सारा रास्ता मील में नहीं बांटा गया था. कहां पगडंडी सीधी चढ़ाई चढ़ती है, कहां थोड़ी समतल भूमि है, कितनी थकान किस हिस्से में आएगी, उस हिसाब से इसके पड़ाव बांटे गए थे. इतनी चढ़ाई चढ़ गए, थक गए तो सामने दिखती थीं सुंदर चट्टियां. चट्टी यानी मिट्टी-गोबर से लिपी-पुती सुंदर बड़ी-बड़ी, लंबी-चौड़ी सीढ़ियां. रेल के पहले दर्जे की शायिकाओं जैसी अनगिनत सीढ़ियां. इन पर प्रायः साफ-सुथरे बोरे स्वागत में बिछे रहते थे. लोग अपने साथ कुछ हल्का-फुल्का बिछौना लाए हैं तो उसे इन चट्टियों पर बोरे के ऊपर बिछाकर आराम करेंगे. नहीं तो गांव के कई घरों से चट्टी पर जमा किए गए गद्दे-तकिए, रजाई, कंबल, मोटी ऊन की बनी दरियां नाममात्र की राशि पर प्रेम से उपलब्ध हो जाती थीं. इन दरियों को दन कहा जाता था और गलीचे, कालीननुमा ये दन इतने आकर्षक होते थे कि यात्रा से लौटते समय इनमें से कुछ के सौदे भी हो जाते थे. हाथ के काम का उचित दाम बुनकर को मिल जाता था. इन सेवाओं का शुल्क भी बाद में ही आया. शुरू में तो एक-सी सुविधा का दाम अलग-अलग लोग अपनी हैसियत और इच्छा, श्रद्धा से चुकाते थे.
इन्हीं चट्टियों के किनारे के गांव अपने-अपने घरों से अपनी बचत का सामान, फल, सब्जी, दूध-घी, आटा, दाल, चावल, गरम पानी- सारा इंतजाम किया करते थे. पूरे देश के कोने-कोने से आए तीर्थयात्रियों का पैसा इन गांवों में बरस जाता था. छह महीने की यह मौसमी अर्थव्यवस्था पहाड़ों की सर्दी को थोड़ा गरम बनाए रखती थी.
आजादी के बाद इन पैदल रास्तों के किनारे-किनारे धीरे-धीरे मोटरगाड़ी जाने लायक सड़कें बनने लगीं. पर इन सड़कों का विस्तार बहुत ही धीमी गति से हो रहा था. अचानक सन 1962 में चीन की सीमा पर हुई हलचल ने इस काम में तेजी ला दी. सेना को अपना भारी साजो-सामान सीमा चौकियों तक पहुंचाना था. इस तरह ये पगडंडियां उजड़ने लगीं. इस शानदार व्यवस्था की कुछ पुरानी स्मृति लंबे बदरीनाथ मार्ग पर बदरीनाथ मंदिर से थोड़ा नीचे बनी हनुमान चट्टी नाम की सुंदर जगह अभी भी छिपी है.
इन चट्टियों की इस तरह विदाई से इतने बड़े तीर्थक्षेत्र के पैदल रास्ते के दोनों ओर बसे गांवों में कैसी उदासी छाई होगी- इस बारे में उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों ने, सामाजिक संस्थाओं तक ने शायद ही कभी ध्यान दिया हो. साथ ही मोटर सड़क के आ जाने से कैसे कुछ इने-गिने होटल मालिकों, पांच-सात बस कंपनियों पर कितनी नयी भगवत कृपा बरसी होगी- इसका भी लेखा-जोखा नहीं रखा जा सका है.
आज यह तीर्थाटन पर्यटन में बदल गया है. सैर-सपाटे पर जाने का, या कहें आकर्षक विज्ञापन छापकर जबरन सैर करवाने का पूरा एक नया उद्योग खड़ा हो चुका है. अब तो यह देश की सीमाएं तोड़कर लंदन, पेरिस, हांग कांग, मकाऊ, सिंगापुर, दुबई- न जाने कहां-कहां की चाट लगा रहा है. तीर्थयात्राएं अभी भी हो रही हैं पर वे भी इसी पर्यटन का हिस्सा बन गई हैं. उन्हें भी बाजार की टनाटन पैसा कमाने वाली व्यवस्था ने निगल लिया है. उत्तर से दक्षिण तक के बड़े-बड़े मंदिर, तीर्थ स्थान अब कंप्यूटर से जुड़ गए हैं. ई-आरती, ई-बुकिंग, ई-दर्शन, ई-यात्रा – भगवान का सब कुछ बाजार ने अपनी लालची तिजोरी में डाल लिया है. शायद भगवान भी आने वाले दिनों में ई-कृपा बांटने लगें.