पार्टी कार्यकर्ता पार्टी के उस निर्णय की भी आलोचना करते हैं जिसके तहत पार्टी ने लोकसभा की 430 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे. दक्षिणी दिल्ली से पार्टी कार्यकर्ता चंद्रप्रसाद कहते हैं, ‘अगर पार्टी ने कार्यकर्ताओं से पूछा होता तो शायद कोई भी कार्यकर्ता इससे सहमति व्यक्त नहीं करता. लेकिन पार्टी कितने सीटों पर लड़ेगी, कहां से लड़ेगी, इस बारे में कार्यकर्ताओं की राय नहीं ली गई.’ ‘पूरे देश में लोकसभा चुनाव लड़ने का जो निर्णय पार्टी ने लिया उसमें संगठन की सलाह नहीं ली गई. भ्रष्ट लोगों को भी पार्टी ने टिकट दिया. यही कारण है कि स्थानीय स्तर संगठन लगभग खत्म हो चुका है.’ हिमाचल प्रदेश में पार्टी का काम देख रहे देशराज कहते हैं, ‘पार्टी ने प्रत्याशियों के चयन के लिए कुछ नियम तय किए थे लेकिन उन सभी को दरकिनार कर दिया गया.’
देशराज जैसे ही पार्टी के अन्य कई कार्यकर्ता इस बात से बेहद आहत नजर आते हैं कि कैसे पार्टी में चंद रोज पहले ही आए लोगों को टिकट दे दिया गया. लखनऊ में पार्टी के कार्यकर्ता विनय तिवारी कहते हैं, ‘जिन लोगों को टिकट दिया गया उनके इतिहास को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया. कई जगहों पर पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस में रहे ऐसे लोगों को भी टिकट दे दिया जिनके ऊपर गंभीर आरोप थे.’ पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेश दहिया भी विनय की बात से सहमति जताते हैं, ‘ये सही है कि चुनाव के समय दूसरी पार्टियों के बहुत से नाकारा लोग हमारी पार्टी में घुस गए. अब जिनको टिकट नहीं मिला वो पार्टी में ही रहकर उसकी जड़ में मट्ठा डालने लगे,’ चंडीगढ़ में पार्टी का काम देख रहे विजयपाल सिंह से यह पूछने पर कि क्या जब गुल पनाग को चंडीगढ़ का उम्मीदवार बनाया गया तो वहां के कार्यकर्ताओं की राय ली गई वे कहते हैं, ‘नहीं, अधिकांश जगहों के साथ ही चंडीगड़ में भी प्रत्याशी की पैराशुट लैंडिंग ही हुई. कार्यकर्ता से कुछ नहीं पूछा गया. हम खुद ही द्वंद में फंसे हैं कि मैडम चंडीगढ़ में रहेंगी या नहीं रहेंगी. आगे क्या होगा पता नहीं.’
कौशांबी में आम आदमी पार्टी का जो कार्यालय कभी कार्यकर्ताओं से गुलजार रहता था आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है. गिने-चुने कार्यकर्ता ही दिखाई देते है
पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं में से लंबे समय तक आरकेपुरम विधानसभा का काम देखते रहे लोकेश पार्टी के अपने आदर्शों से भटकने की बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी ने खुद नियम बनाया था कि सही और सच्चे लोगों को हम लोकतांत्रिक प्रक्रिया अर्थात स्थानीय जनता और कार्यकर्ताओं के फीडबैक के आधार पर टिकट देंगे. प्रत्याशियों के चयन की एक पूरी प्रक्रिया बनाई गई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी ने खुद अपने आदर्शों की हत्या कर दी. पैसे और रसूख वालों के हाथों में टिकट दिया गया. सही लोग यहां भी हाशिए पर थे.’ एक अन्य कार्यकर्ता कहते हैं, ‘पहले यह तय किया गया था कि चार महीने पहले पार्टी से जुड़ा होना एक पहली शर्त थी किसी के प्रत्याशी बनने की. लेकिन यहां तो स्थिति ऐसी थी कि लोग टिकट लेने के बाद पार्टी में आए. यही कारण है कि चांदनी चौक से पार्टी प्रत्याशी आशुतोष समेत कई लोकसभा प्रत्याशियों के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया. लेकिन पार्टी नेतृत्व के कान पर जू तक नहीं रेंगी.’
कई ऐसे पार्टी कार्यकर्ता हैं जो बनारस से मोदी के खिलाफ लड़ने के अरविंद केजरीवाल के फैसले पर भी सवाल उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘अरविंद दिल्ली में कितने लोकप्रिय हैं ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है. दिल्ली में हमारा संगठन भी बेहद मजबूत था. लोगों ने चंद महीने पहले ही हमें विधानसभा में ऐतिहासिक समर्थन दिया था. ऐसे में अगर अरविंद को लड़ना था तो वो दिल्ली से लड़े होते. अपनी सीट वो यहां से जीतते ही बाकि प्रत्याशियों का भी भला हो जाता. लेकिन पता नहीं उन्होंने बनारस क्यों चुना. अगर वो मोदी को हरा भी देते तो क्या आज मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते. दूसरे को हराने के चक्कर में हम खुद ही हार गए.’ लोकेश कहते हैं, ‘बनारस जाकर हमें अपनी ऐसी-तैसी कराने की जरूरत नहीं थी. गुस्सा लोगों का कांग्रेस के खिलाफ था और हम मोदी को हराने के लिए बनारस पहुंच गए.’
गांधीनगर क्षेत्र में पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता नरेंद्र पुराने अनुभवों का हवाला देते हुए सवाल खड़े करते हैं. वो कहते हैं, ‘शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ने के बारे में जब अरविंद ने सोचा तो उन्होंने इसमें वॉलंटियर्स की राय भी ली. लेकिन बनारस जाने के बारे में उन्होंने कार्यकर्ताओं से कुछ नहीं पूछा.’ पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार चुके एक प्रत्याशी कहते हैं, ‘पार्टी के पास जो भी सीमित संसाधन थे उसने एक सीट पर ही सब झोंक दिया. इस तरह से बाकी सीटें अनाथ जैसी थीं. अरविंद ने खुद कहा था कि उन्हें सिर्फ अमेठी और बनारस से मतलब है. अगर ऐसा था तो फिर पार्टी ने बाकी 400 सीटों पर क्यों प्रत्याशी उतारकर उनकी फजीहत कराई?’

कार्यकर्ताओं में से कई ऐसे भी हैं जो अरविंद को पार्टी की बुरी गत के लिए कम और योगेंद्र यादव की सदस्यता वाली पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी को ज्यादा जिम्मेंदार मानते हैं. पार्टी के एक नेता अरविंद का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘अरविंद खुद दिल्ली पर फोकस चाहते थे लेकिन बाकी मैंबर्स पूरे देश में जाने को आतुर थे. पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी ने अरविंद को ऐसा करने पर मजबूर किया था.’ लोकेश कहते हैं, ‘हम लोग योगेंद्र जी को पार्टी का चाणक्य समझते थे. वो एक पुराने राजनीतिक जानकार हैं. ऐसे में हुआ ये कि वो पार्टी में आए तो उन्हीं पुराने तरीकों को आजमाना शरू किया जो भाजपा और कांग्रेस वाले करते आए हैं. ये संभव है कि एक खास तरह की राजनीति को देखने की वजह से राजनीति को लेकर उनकी एक खास समझ बनी हो. वो आंदोलन से उभरी इस पार्टी की अलग राजनीतिक जरूरत को समझ नहीं पाए और वही राजनीतिक तौर तरीके यहां भी अपनाए जाने लगे जो इन पार्टियों में अपनाए जाते हैं.’
हालांकि ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या भी कम नहीं है जो सारी गड़बड़ियों के लिए सीधे अरविंद को दोषी मानते हैं. वे तर्क देते हैं कि कौन है पार्टी में जो कोई ऐसा निर्णय ले जिसके पक्ष में अरविंद न हों. ऐसे में अगर सफलता का सेहरा हाईकमान के माथे बांधा जाएगा तो फिर गड़बड़ी की जिम्मेंदारी भी उन्हें ही लेनी होगी.
एक समय पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता रहे लोकेश अब अपनी रोजी-रोटी की दुनिया में वापस लौट आए हैं. वो कहते हैं, ‘पहले लगता था कि मैं जो कुछ कर रहा हूं वो देश के लिए कर रहा हूं. हर आदमी इसी सोच के साथ जुड़ा था. बाद में जब पार्टी बनी तब भी हम उसे आंदोलन ही मानते थे. लेकिन दिल्ली का चुनाव जब आया तो पार्टी का आंदोलकारी चेहरा बदल चुका था. वो अब एक सामान्य राजनीतिक दल का रूप ले चुकी थी. आप भी भाजपा-कांग्रेस जैसी एक अन्य पार्टी बन गई.’ लोकेश अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं, ‘पार्टी में ऐसे तमाम लोग घुस गए जिनका विचारधारा से कोई मतलब नहीं था. वो शाजिया इल्मी का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘शाजिया को न तो आंदोलन से मतलब था न वो आंदोलन की विचारधारा वाली शख्स थीं. कांग्रेस और भाजपा के नेता जिस हल्की और फालतू भाषा में बात करते हैं वो भी इसी भाषा में बात करती थीं. ‘
पार्टी कार्यकर्ता बताते हैं कि कैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जिस बड़ी तादाद में लोग पार्टी में आए उससे भी पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा. वालंटियर बताते हैं कि इससे आंदोलन की विचारधारा वाले लोग साइड होते गए. बकौल लोकेश उन्होंने खुद अरविंद से कहा कि ‘हमें कोई न कोई क्राइटिरिया बनाना चाहिए. तो वो बोले बाद में छंटनी कर लेंगे. समय के साथ मैं पार्टी से निराश होता चला गया. फिर मैंने सोचा कि अगर मुझे समाज सेवा करनी है तो वो तो में पार्टी के बाहर किसी और माध्यम से भी कर लूंगा. इसके लिए आप में रहने की क्या जरूरत है.’
जो लोग अरविंद के निर्णय से खफा थे उन्होंने कार्यकर्ताओं पर ही गुस्सा निकालना शुरु कर दिया. इस कारण से भी कई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गए
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत के बाद उससे जुड़ने के लिए आई लोगों की बाढ़ ने आंदोलन के समय से काम रहे पार्टी कार्यकर्ताओं को हाशिए पर धकेल दिया. प्रिंस कहते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा के बाद और लोकसभा चुनाव के समय बहुत बड़ी तादाद में लोग पार्टी से जुड़े. लाखों लोग उसके कार्यकर्ता बने. एकाएक नए नेताओं की पार्टी में बाढ़ आ गई. ऐसे में धीरे-धीरे पुराने कार्यकर्ताओं की पूछ कम होती गई और नए लोग तवज्जो पाते गए. चंद्रभान एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले शाजिया इल्मी रेवाड़ी से अपनी दोस्त अंजना मेहता को ले आईं. उनके साथ उनके अपने लोग आए थे. अंजना ने यहां आकर आरके पुरम के कार्यकर्ताओं को परेशान करना शुरू कर दिया. यहां की पूरी टीम को वो तोड़ के चली गईं.’ पार्टी की तरफ से दिल्ली विधानसभा में प्रत्याशी रहे राजन प्रकाश कहते हैं, पार्टी में पुराने कार्यकर्ताओं को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा. पुराने कार्यकर्ताओं की दयनीय स्थिति हो गई थी. वहीं जो लोग बाहर से आए और जो बड़े नेताओं की परिक्रमा करने लगे उनका आज पार्टी में बोलबाला हो गया है.
पार्टी के कई कार्यकर्ता उसके भीतर खत्म हो रहे लोकतांत्रिक स्पेस का प्रश्न भी उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता रमेश परासर कहते हैं, ‘जो अरविंद स्वराज की बात करते हैं उन्होंने खुद पार्टी में इसका पालन नहीं किया. दुनियाभर से आप पारदर्शिता की उम्मीद करते हैं लेकिन खुद आप में इसका अभाव है. स्थिति ये है कि अगर कोई किसी गलत चीज का विरोध करता है या प्रश्न करता है तो अरविंद कहने लगते अरे वो लालची है, उसे टिकट चाहिए था. नहीं मिला तो विरोध करने लगा. पार्टी में लोकतंत्र का भयानक अभाव है. जिस तरह आप मायावती पर प्रश्न उठाकर बसपा में नहीं रह सकते. वैसे ही आप अरविंद पर प्रश्न उठाकर आप में नहीं रह सकते. जिन लोगों ने भी अरविंद की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाया है उन्हें गद्दार, कांग्रेस, भाजपा का एजेंट, टिकट का लालची और न जाने क्या क्या कहा गया है. कोई ऐसा स्पेस नहीं है जहां आप जाकर अपनी असहमति व्यक्त कर सकें. योगेंद्र यादव का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘अरविंद की सुप्रीमो वाली कार्यशैली पर उन्होंने प्रश्न क्या उठाया आपने देखा होगा कैसे मनीष सिसोदिया ने उन्हें हड़काने वाला पत्र भेज दिया. ये तो योगेंद्र यादव थे जो बच गए कोई और होता तो पार्टी उसे गद्दार ठहराकर कभी का बाहर कर चुकी होती.’
पार्टी के भीतर सिकुड़ते लोकतंत्र की चर्चा करते हुए एक कार्यकर्ता बताते हैं कि कुछ दिन पहले ही लोकसभा चुनाव में हार के बाद भविष्य की रणनीति तैयार करने को लेकर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में पार्टी की बैठक हुई थी. वहां जैसे ही कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखनी शुरू की वैसे ही नेताओं ने कार्यकर्ताओं को बोलने से रोक दिया. कहा, आप लोग अपनी बात लिख कर के दीजिए. वे कहते हैं, ‘पार्टी नेता कार्यकर्ताओं के प्रश्नों से जूझना नहीं चाहते थे. वो चाहते थे कि आप अपनी बात लिखकर के दीजिए ताकि नेता उसे कूड़े के ढ़ेर में फेंक सकें. ये लोग हर तरह के सवालों से बचना चाहते हैं.’ पार्टी के एक पूर्व कार्यकर्ता कहते हैं, पार्टी जानती है कार्यकर्ताओं में कितना रोष है. यही कारण है कि पार्टी नेशनल काउंसिल की मीटिंग नहीं बुलाती. पार्टी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वो मीडिया को देखकर अपनी रणनीति बनाती है.’
पार्टी से कार्यकर्ताओं की नाराजगी का प्रमाण पार्टी के कार्यालयों पर भी देखने को मिलता है. कौशांबी में आम आदमी पार्टी का जो कार्यालय कभी कार्यकर्ताओं से गुलजार रहता था आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है. गिने-चुने कार्यकर्ता ही दिखाई देते हैं. कनॉट प्लेस के पार्टी कार्यालय का भी वही हाल है. कुछ समय पहले तक यह जगह पार्टी कार्यकर्ताओं और पार्टी से जुड़ने को आतुर या समर्थकों से भरी रहती थी. राजन कहते हैं, ‘मुझे ऑफिस गए दो महीने से ज्यादा समय हो गया. अब वहां जाने का भी मन नहीं करता. ‘ चंद्रभान पिछले पांच महीने से पार्टी ऑफिस नहीं गए हैं.
पार्टी सूत्र बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के परिणाम आने बाद नए लोगों का पार्टी से जुड़ना लगभग बंद हो गया है. कोई भी नया कार्यकर्ता पिछले कुछ समय में पार्टी से नहीं जुड़ा है. पार्टी के लोग ये बताते हैं कि पहले जहां पार्टी की हेल्पलाइन की घंटियां लगातार बजती रहती थीं वहां अब सन्नाटा छाया हुआ है. असर चंदे पर भी पड़ा है. सामान्य परिस्थितियों में प्रतिदिन 30 लाख के करीब चंदा आता था जो अब हजारों में सिमट आया है. साल भर पहले से दिल्ली के विभिन्न इलाकों के लिए पार्टी के संपर्क नंबर या तो बंद पडे हैं या फोन की घंटी बजती रहती है कोई उठाता नहीं है. नरेंद्र कहते हैं, ‘सरकार छोड़ने के बाद लोगों के फोन आने बंद हो गए. अब शायद ही कोई सहायता के लिए फोन करता हो. ‘
चंद्रभान कहते हैं, ‘आरके पुरम विधानसभा के लिए जो पार्टी का मोबाइल नंबर था. उसका पार्टी ने चार महीने तक बिल भरने के बाद छोड़ दिया. नंबर बंद हो गया. ये वो नंबर था जिस पर यहां कि जनता हमसे संपर्क करती थी. मैंने उसका कुछ समय तक बिल भरकर चलाया. अधिकांश नंबरों का यही हाल है. उनका बिल नहीं भरा गया इसीलिए वो बंद पडे हैं. जो कार्यकर्ता अपने पैसे से बिल भर रहा है वो फोन चल रहे हैं.’ पिछले कुछ समय में आए अन्य बदलावों की चर्चा करते हुए चंद्रभान कहते हैं, ‘पहले अगर किसी कार्यकर्ता को कोई दिक्कत होती थी. उसका एक मैसेज आ जाता था तो पूरी पार्टी वहां पहुंच जाती थी. कोई आम आदमी भी अगर हेल्पलाइन पर फोन करके शिकायत करता था तो सारे लोग थाने पहुंच जाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब न कोई फोन करता है और न कोई सहायता के लिए कहीं जाता है. लोग भी अब सपोर्ट नहीं करते. जिसने आपको वोट नहीं दिया है वो मजे तो ले ही रहा है और जिन्होंने वोट दिया है वो अलग कोस रहे हैं. इस तरह से सभी का मनोबल टूट रहा है.
पार्टी छोड़कर जा रहे कई कार्यकर्ताओं के पीछे मोदी फैक्टर भी है. प्रिंस कहते हैं, ‘कई साथी मोदी से काफी प्रभावित हैं. उनका मानना है कि मोदी जी को एक मौका देना चाहिए. ये तबका सरकार बनने से पहले मोदी का समर्थक तो था लेकिन पार्टी में बना हुआ था. अब लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत और आप की हार के बाद ये लोग पार्टी छोड़कर चले गए.’
हालांकि अब कार्यकर्ताओं का कहना है कि पार्टी अब फिर से वॉलंटियर्स को लेकर संवेदनशील दिखाई दे रही है. हाल ही में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अरविंद ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि हो सकता है पार्टी ने पिछले कुछ निर्णयों में कार्यकर्ताओं की राय नहीं ली. इससे उनमें नाराजगी है. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. प्रिंस कहते हैं, ‘अरविंद ने कहा कि हमने जल्दी-जल्दी कई निर्णय लिए इस वजह से वॉलेंटियर्स की राय नहीं ली जा सकी.’
चंद्रभान कहते हैं, ‘अब फिर से पार्टी ने शुन्य से शुरूआत की है. फिर से कार्यक्रताओं को जिम्मेदारी दी जा रही है, उन्हें मनाया जा रहा है.’ पार्टी की जुझारू कार्यकर्ता रही दिवंगत संतोष कोली के भाई और सीमापुरी से विधायक धर्मेंद्र कोली कहते हैं, ‘आज ये नहीं कहा जा सकता कि कौन वॉलिंटियर पार्टी के साथ है, कौन नहीं. पहले कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच जाने पर सच में दिक्कत होती थी लेकिन अरविंद के माफी मांगने के बाद बहुत फर्क पड़ा है.’
लेकिन क्या इस दौर में अरविंद में भी कोई बड़ा बदलाव कार्यकर्ताओं ने महसूस किया है? इस सवाल के जवाब में प्रिंस कहते हैं, ‘कुछ खास नहीं लेकिन हां अब वो पहले से ज्यादा व्यस्त हो गए हैं और अब वो लोकपाल, भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों पर बात करने की जगह पार्टी और संगठन की चर्चा करते हैं.’
It is difficult to keep everybody happy. Any Change For The Country Not Possible Within Few Months. We Must Keep Patient If We Want Change. The People Who Has Left
The Party Did Good Because They Want Immediate Change Which is Not Possible. AAP Is An Honest Option We Should Have Faith. For example…We can see the work of the MLAs In DELHI They are still Doing Job For Their Constituencies. Why Not BJP’s And Congress Doing.
So Nobody Is Perfect They Are Trying For Their best Job To The People Mistake Will Happen And They Are Learning From The Mistakes. HAVE FAITH IN AAP/SUPPORT AAP. DEFINETELY CHANGE WILL COME WE ARE WAITING FOR.
sir… you hv not added our point of view as well… give me ur email id… i will share that me nd my team, what we had done….but how the party people behaved. This is Raman Bishnoi, from Abohar Punjab…job chhodi aur sab kuch kiya….but at the end…. u can understand. Arvind said to me… tum party bna lo… etna to tumhe aata hai… saali party hi aur bnani hoti to waha jhak marne gye the. Arvind haarne ke baad bhi Ghamand ki charam seema par tha… Punjab ki wajah se naak bachi aur achha hua hamara candidate nhi jita…. warna yeh log to hamari baat bhi na sunte…. khair enki samajh lag chuki thi esiliye wapis job join kar li.
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