
‘यह मूर्ति कैसी?’ ‘ये लाफिंग बुद्धा है.’ ‘मजेदार लग रहा है.’ ‘सो तो है, इससे ‘गुडलक’ आता है’ ‘कैसे?’ ‘देख नहीं रहे, कितना खिलखिला कर हंस रहा है!’ ‘तो!’ ‘हंसने से वैसे भी मनहूसियत दूर हो जाती है.’ ‘तो आप खुद क्यों नहीं हंसते?’ मेरी इस बात पर वे मुस्कुराए. ‘कहां यार, हंसने के मौके ही कितने मिलते हैं! बहुत फास्ट लाइफ हो गई है.’ तभी मुझे कमरे में भाई साहब की हंसती हुई तस्वीर दिखी. ‘इसमें तो आप हंस रहे हैं!’ ‘हंस कहां रहा हूं?’ ‘मुझे तो साफ दिख रहा है!’ ‘जो तुम समझ रहे हो, वो नहीं है.’ ‘क्या मतलब?’ ‘अरे यार, फोटो खींचने से पहले फोटोग्राफर कहता नहीं है, ‘से चीज’, वही ‘चीज’ बोल रहा हूं.’ वहां से विदा लेते समय एक बार फिर मैंने लाफिंग बुद्धा को देखा.
आज भाई साहब के ऑफिस आया हूं. किसलिए? वहीं पुराना कारण- इधर से गुजर रहा था, सोचा कि आप से मिलता चलूं. ऑफिस में घुसते ही मैंने भाई साहब को हंसते देखा. कमाल है! भाई साहब हंस रहे हैं! मैंने पूछा, ‘क्या बात है भाई साहब बहुत हंस रहे थे!’ मेरा ये कहना था कि यकायक भाई साहब ने गंभीर मुद्रा अख्तियार कर ली. जैसे मैंने कोई हल्की बात करके उनकी शान में गुस्ताखी कर दी हो. थोड़ी देर बाद कुछ सोचते हुए खुद ही बोले, ‘वो क्या है कि बॉस हंस रहे थे न!’ ‘मैं कुछ समझा नहीं भाई साहब!’ भाई साहब थोड़ा तैश में बोले, ‘नौकरी करोगे तो खुद ही जान जाओगे !’ मैं सहमकर उनके ऑफिस में इधर-उधर देखने लगा. भाई साहब मेरी वस्तुस्थिति भांप कर बोले, ‘अरे यार, यह समझ लो कि ऑफिस का यह अघोषित परंतु अनिवार्य नियम होता है, बॉस के साथ उसके मातहत को भी हंसना पड़ता है.’ ‘समझ गया हूं भाई साहब, यह ऑफिस वाली हंसी है!’ मैंने कहा. मेरी यह बात सुनकर भाई साहब मुस्कुराए़.