बिहार में अपराधियों की बहार

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Photo- Tehelka Archive

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 12 फरवरी को राज्य में सुशासन की बहाली और कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बैठक खत्म कर उठने ही वाले होते हैं कि तभी भोजपुर इलाके से खबर आती है कि सोनवर्षा बाजार में विशेश्वर ओझा की हत्या कर दी गई. विशेश्वर ओझा भोजपुर इलाके में दबंग-धाकड़ और कुख्यात नेता होने के साथ ही भाजपा के उपाध्यक्ष भी थे, इसलिए उनकी हत्या की खबर जंगल की आग की तरह फैलती है. सोनवर्षा से लेकर पटना तक राजनीतिक गलियारा गरमा जाता है. भोजपुर से लेकर आरा तक तोड़फोड़ का सिलसिला शुरू होता है. पटना में भाजपाई नेता जंगलराज-जंगलराज का शोर कर 72 घंटे का अल्टीमेटम देते हैं कि कार्रवाई नहीं हुई तो पूरे राज्य में आंदोलन चलेगा. नीतीश कुमार की मीटिंग के रंग में भंग-सा पड़ जाता है. राहत की बात यह होती है कि थोड़ी ही देर में यह बात भी हवा में फैलने लगती है कि ओझा की हत्या उनके पुराने दुश्मन शिवाजीत मिश्रा के गुर्गों ने की है. शिवाजीत मिश्रा आरा जेल में बंद है. 100 बीघे जमीन पर कब्जे के लिए दोनों के बीच वर्षों की खूनी जंग का इतिहास भोजपुर के लोकमानस में कैद है. भोजपुर में दोनों के आपसी रंजिश में दर्जनों लाशें भी गिरी थीं.

भोजपुर इलाके में विशेश्वर ने पहले पंचायत चुनाव में अपने परिजनों को जितवाया. बाद में विधानसभा चुनाव में छोटे भाई की पत्नी को जितवाकर अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास करवाया. तीन माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में वह खुद ही मैदान में उतरे थे. भाजपा ने उन्हें शाहपुर विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया था. हालांकि प्रसिद्ध नेता शिवानंद तिवारी के बेटे राहुल तिवारी ने राजद के टिकट से चुनाव लड़ विशेश्वर को हरा दिया था. विशेश्वर की हत्या के बाद जदयू के लोग शिवाजीत मिश्र और विशेश्वर की अदावत वाली बातों को जोर-शोर से फैलाने की कोशिश करते हैं. इसका मकसद यह बताना होता है कि यह सिर्फ निजी रंजिश का परिणाम है. इसका राज्य की कानून-व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है. राज्य के डीजीपी पीके ठाकुर कहते हैं, ‘हम अपने स्तर से मामले को देख रहे हैं. अतिरिक्त पुलिस बल को लगाया गया है.’

नीतीश आंकड़ों से अपराध के कम होने का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से अपराध बढ़ा है उससे सुशासन के दावे पर सवाल खड़े हो रहे हैं

अगले दिन 13 फरवरी को विशेश्वर हत्याकांड को लेकर गरमाहट बढ़ी ही रहती है कि नवादा से एक खबर का विस्फोट होता है कि वहां के दबंग राजद विधायक राजवल्लभ यादव फरार हो गए हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ रही है लेकिन पटना से लेकर नवादा तक वे कहीं मिल नहीं रहे हैं. राजवल्लभ पर एक सप्ताह पहले ही 15 वर्षीया नाबालिक लड़की से बलात्कार करने का आरोप लगा है. उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी किए गए थे, जिसके बाद वे फरार हो गए. राजवल्लभ को उनकी पार्टी राजद अगले दिन निलंबित कर देती है. एक माह से भी कम समय में दूसरा मौका होता है, जब सत्ताधारी दल के विधायक को ऐसे कृत्य की वजह से निलंबित करना पड़ता है. इसके पहले जदयू के विधायक सरफराज आलम को भी ऐसे ही मामले में निलंबित किया गया था. सरफराज पर चलती ट्रेन में एक महिला के साथ छेड़खानी का आरोप लगता है. सत्तारूढ़ दल के ही एक कांग्रेसी विधायक सिद्धार्थ पर एक लड़की को उठाने का आरोप भी लग चुका है. राजवल्लभ यादव की घटना के बाद लालू प्रसाद यादव का बयान आता है, ‘पार्टी किसी किस्म की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेगी.’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बयान आता है, ‘ऐसी घटनाओं को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. चाहे कोई हो, कार्रवाई होगी. राजद ने अपने विधायक पर कार्रवाई की है.’ पर वह एक और बात जोड़ देते हैं, ‘ऐसी घटनाएं शर्मनाक हैं, लेकिन यह कहना सही नहीं है कि राज्य में अपराध बढ़ रहा है. पिछले तीन सालों से अपराध घट रहा है.’ नीतीश कुमार जब यह कहते हैं तो एक तरीके से खुद बिरनी के छत्ते में हाथ जैसा डालते हैं. वे आंकड़ों की तहजाल में जाकर अपराध के कम होने का हवाला देने की कोशिश करते हैं. ऐसा कहते वक्त वे ये भूल जाते हैं कि आंकड़े भले ही उन्हें तसल्ली दें लेकिन इस बार सत्ता संभालने के बाद पिछले ढाई माह में ही जितने किस्म की घटनाएं घटी हैं, उससे सिद्ध होता है कि अपराध का कम होना एक बात हो सकती है लेकिन अपराध की प्रवृत्ति जिस तरह से बदली है, उसे आंकड़ों के जरिये पुष्ट नहीं किया जा सकता. हां, मन को तसल्ली जरूर दे सकता है.

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मीडिया की साख की भी परीक्षा

जंगलराज बनाम मंगलराज के तमाम तहजाल के बीच एक तीसरा नजरिया भी है. यह मीडिया का नजरिया है. बिहार के चुनाव के वक्त ही ये बातें कही जा रही थीं कि मीडिया की असल परीक्षा की घड़ी अब आयी है. कुछ सालों पहले तक यह कहा जाता था कि नीतीश कुमार बिहार के मिस्टर चीफ एडिटर हैं, यानी मीडिया को नियंत्रित रखते हैं. तब भाजपा भी उनके साथ थी. ये बातें सिर्फ कही नहीं जाती थी, इस पर उठा बवाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की देहरी तक पहुंच चुका था. सुनवाइयों का दौर चला था. यह साबित करने की कोशिश हुई थी कि नीतीश कुमार सीधे मीडिया को नियंत्रित करते हैं और बिहार की मीडिया बिकाऊ हो गई है. बिहार की मीडिया नीतीश के नियंत्रण में थी या नहीं, यह वाद-विवाद और पड़ताल का विषय हो सकता है लेकिन तब यह सच्चाई थी कि बड़ी से बड़ी अपराध और कुशासन की खबरें अखबारों में, मीडिया में उस तरह से जगह नहीं पाती थी, जैसा कि जरूरत होती थी या कि जैसा अब हो रहा है. वह चाहे फारबिसगंज के भजनपुरा में अल्पसंख्यकों को मार दिए जाने का मामला हो या कोई और. लेकिन अब बारास्ता मीडिया बिहार में घटित होने वाली तमाम घटनाएं सतह पर आ रही हैं. जानकार बता रहे हैं कि मीडिया की वजह से भी अचानक अपराध इस किस्म का दिखने लगा है वरना यह रोग तो पुराना ही था, घटनाएं पहले भी हो रही थीं. जानकार बताते हैं कि इसके पीछे वजह दूसरी भी है. मीडिया द्वंद्व में फंसी हुई है. एक तरफ बिहार में नीतीश कुमार हैं, दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की सरकार. अपने बेहतर भविष्य के लिए उसे दोनों से बेहतर रिश्ता रखना है. अगर बिहार की खबरें दबेंगी या सतह पर नहीं लाई जाएंगी तो केंद्र की सरकार का अपना हिसाब-किताब होता है मीडिया घरानों से और अगर बिहार की बातों को ज्यादा ही सतह पर लाएंगे तो बिहार की सरकार भी अगले पांच साल के लिए बहुमत से चुनी गई है, सो उसका भी अपना हिसाब-किताब होता है. कुछ जानकार इसे मीडिया घरानों के विज्ञापन के कारोबार से जोड़कर देखते हैं और उसे ही दुविधा की वजह बताते हैं जबकि कुछ विश्लेषक इसे मीडिया के जातीय चरित्र के हिसाब से भी आंकते हुए बताते हैं कि चूंकि बिहार के मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है. अब पिछड़ों की सरकार बन गई है. लालू प्रसाद के साथ नीतीश का आना हजम नहीं हो रहा, इसलिए मीडिया में बैठे नुमाइंदे हर घटना पर नजर रख रहे हैं, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं. नीतीश जब तक भाजपा के साथ थे और घटनाएं होती थीं तो वही नुमाइंदे चुप्पी साधे रहते थे. बात दोनों सही हो सकती हैं या दोनों में से कोई भी नहीं. जो भी हो लेकिन नीतीश कुमार की इस पारी में मीडिया की साख की भी परीक्षा जारी है.

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अपराध का अनवरत सिलसिला

विशेश्वर की हत्या के मामले को आपसी रंजिश का ही मामला भर मान लें और राजवल्लभ के कृत्य को भी व्यक्तिगत कुकृत्य की परिधि में समेट देने के बावजूद तो भी पिछले दो-ढाई माह में बिहार में घटित घटनाओं पर गौर करें तो मालूम होगा कि कैसे अपराधी सिर्फ अपराध नहीं कर रहे बल्कि वे घटनाओं को ऐसे अंजाम दे रहे हैं, जैसे वे मान चुके हैं कि शासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ने वाला है. यह सिलसिला दरभंगा इंजीनियर हत्याकांड के बाद शुरू होता है. विगत माह दरभंगा में चड्डा एंड चड्डा कंपनी के दो इंजीनियरों की हत्या संतोष झा गिरोह के लोग करते हैं. बात सामने आती है कि जेल में बंद संतोष झा का गुर्गा मुकेश पाठक यह हत्या करता है. हत्या की वजह रंगदारी और लेवी नहीं देना बताया जाता है. मारे गए दोनों इंजीनियर बिहार के ही हैं इसलिए यह राष्ट्रीय स्तर पर उस तरह से चर्चा में नहीं आता. इस हत्याकांड पर न तो शासन के, न सत्तारूढ़ दल के लोग खुलकर बोलते हैं. बोलने की स्थिति भी नहीं बनती, क्योंकि जो मुकेश पाठक इस घटना को अंजाम देता है, वह पुलिस के सौजन्य से ही जेल से फरार होता है. लोग कहते हैं कि फरार करवाया गया है.

इस घटना पर कार्रवाई करने की बात नीतीश कुमार करते हैं. वे अपने अधिकारियों पर झल्लाते हैं कि जैसे भी हो रिजल्ट चाहिए. नीतीश कुमार कहते हैं कि अगर अपराध कम नहीं हुआ तो एसपी से लेकर थानेदारों तक नापेंगे, पर उनकी इस झुंझलाहट और झल्लाहट का पुलिस-प्रशासन पर कोई असर पड़ता नहीं दिखता. इसका उलटा असर जरूर होता है. बिहार में अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है. एक के बाद एक दनादन घटनाएं शुरू हो जाती हैं. इंजीनियर हत्याकांड के अगले ही दिन समस्तीपुर में अपराधी दिनदहाड़े एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के घर पर गोलियां बरसाते हैं. ये गोलियां भी रंगदारी नहीं दिए जाने के बाद धमकाने के लिए बरसाई जाती हैं. यह घटना भी समस्तीपुर में ही दबकर रह जाती है, लेकिन 18 जनवरी को एक ऐसा दिन आता है, जब एक बार फिर से जदयू और सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ता है. इस दिन एक खबर आती है कि चंपारण के एक बैंक से अपराधियों ने 20 लाख की लूट की. इस पर लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते लेकिन तभी खबर आती है कि जदयू की चर्चित विधायक व पूर्व मंत्री बीमा भारती का पति कुख्यात सरगना अवधेश मंडल पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद थाने से फरार हो गया. हालांकि दो दिनों के अंदर ही वह गिरफ्त में आ जाता है. लेकिन अवधेश के गिरफ्त में आने और फरार हो जाने की घटना की पड़ताल की गई तो जो कारण पता चले उसे किसी आंकड़े से पुष्ट नहीं किया जा सकता.