27 साल का वनवास, दिल्ली की शीला से आस

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पिछले महीने की 17 जुलाई को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हल्की बौछार पड़ रही थी. कांग्रेस पार्टी ने इस दिन राजधानी में एक रोड शो का आयोजन किया था. अगले विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने के बाद एक तरह से यह पार्टी का शक्ति प्रदर्शन था. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष बने राज बब्बर भी इसमें शामिल होने वाले थे. इस दौरान अमौसी हवाई अड्डे के बाहर जहां एक ओर चुटकी लेने वाले कह रहे थे कि प्रकृति भी नहीं चाहती कि प्रदेश में कांग्रेसी आएं तो वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक था. उनका कहना था कि 27 साल के वनवास के खत्म होने की खुशी में बारिश तो बनती है.

राज बब्बर और शीला दीक्षित जब अमौसी हवाई अड्डे से बाहर निकले तो कार्यकर्ताओं का हुजूम उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा. अभी तक दिल्ली में सुनाई पड़ने वाला नारा ‘अबकी बार शीला सरकार’ वहां गूंज रहा था. हवाई अड्डे से लेकर मॉल एवेन्यू स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय तक पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ नजर आई.

जानकार बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर जा चुकी कांग्रेस में कई दशक बाद गांधी परिवार के इतर इतना जोश-खरोश नजर आया है. कांग्रेसी सिर्फ जिंदाबाद-जिदांबाद के नारे लगा रहे हैं. हालांकि कार्यक्रम के लिए बना हुआ मंच अधिक भीड़ जुटने की वजह से गिर गया और शीला दीक्षित को आंशिक चोट भी आई, लेकिन रोड शो जारी रहा.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है

इसके बाद इसी महीने की तीन तारीख को कांग्रेस ने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मोदी के गढ़ वाराणसी से पार्टी के चुनाव प्रचार की शुरुआत की. इस दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का काफिला जब एयरपोर्ट से शहर के लिए निकला तो इकट्ठी हुई भीड़ देखने लायक थी. इस दौरान सैकड़ों कार्यकर्ताओं के हाथों में ‘27 साल, यूपी बेहाल’ नारा लिखी हुई तख्तियां थीं. कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने प्रदेश की सपा सरकार और केंद्र की मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा. रोड शो के दौरान पार्टी की मुख्यमंत्री पद की दावेदार शीला दीक्षित, कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद, प्रदेश प्रमुख राज बब्बर, वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी और संजय सिंह भी सोनिया गांधी के साथ थे.

जानकारों का कहना था कि सावन के महीने में बाबा विश्वनाथ की नगरी से उत्तर प्रदेश चुनाव का श्रीगणेश करके कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. जहां एक ओर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री मोदी को उनके ही लोकसभा क्षेत्र में घेरने में सफल रहीं तो वहीं बनारस से कांग्रेस के उसी पुराने वोट बैंक की तलाश भी शुरू कर दी है जिसके बूते कांग्रेस 27 साल पहले तक राज करती रही थी.

वाराणसी में लगभग 15 लाख मतदाता हैं. इसमें से सबसे ज्यादा तीन लाख के करीब मुस्लिम मतदाता और ढाई लाख के करीब ब्राह्मण मतदाता हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस इसी ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है. 

विश्लेषक आंकड़ों को साधने की कोशिश को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रबंधक नियुक्त किए गए प्रशांत किशोर (पीके) की स्क्रिप्ट का हिस्सा बताते हैं. वे कहते हैं कि पहले कांग्रेस की दिल्ली से कानपुर की बस यात्रा, फिर लखनऊ में राहुल का कार्यकर्ताओं के साथ रैंप संवाद और सोनिया गांधी का बनारस में रोड शो, ये सब पीके की रणनीति के तहत किया जा रहा है जिसमें एक साथ पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदगी का एहसास कराने की योजना है.

इसके अलावा कांग्रेस लंबे समय से मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करने के खिलाफ रही है. कांग्रेस कहती रही है कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम का फैसला करते हैं. ऐसे मेें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित के नाम की घोषणा करना ही सिर्फ एक अचंभे वाली बात नहीं है बल्कि चुनाव से छह महीने पहले यह करना और भी अंचभित करने वाली बात है. विश्लेषक इसे भी प्रशांत किशोर की रणनीति बता रहे हैं.

कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई

 वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘पीके की रणनीति बहुत कारगर है. उसने राहुल गांधी से जो ड्रामा करवाया वह बहुत कारगर रहा है. राजनीति में अगर ड्रामा कारगर रहे तो वह बहुत फर्क डालता है. राहुल गांधी लोगों से संवाद कर रहे हैं. इसका प्रभाव पड़ेगा. हालांकि यह ड्रामा लगातार होते रहना चाहिए. कांग्रेस को हमेशा चर्चा में बने रहना होगा तभी वह एक विकल्प के रूप में उभर पाएगी. शीला को लाने का फैसला भी अभी सही है.’

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इसके अलावा उत्तर प्रदेश में जो भी नए नामों की घोषणा हुई हैं वे उत्तर प्रदेश में किसी भी धड़े से जुड़े नहीं हैं. प्रशांत किशोर ने गुटबाजी को पार्टी की सबसे बड़ी समस्या के रूप में पहचानने के बाद इसके समाधान के तौर पर नेताओं को जिम्मेदारियां दी हैं. जो लोग टिकट और नेतृत्वकारी भूमिका पाना चाहते थे, उन्हें खास तौर पर कुछ-न-कुछ जिम्मेदारियां दी गई हैं और प्रशांत किशोर की टीम उनके काम पर नजर रखे हुए है.

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘चुनावों के लिए एक प्रबंधक की जरूरत होती है. भाजपा में अमित शाह एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका ही निभाते हैं. किसी जमाने में पार्टियां अपने ही अंदर से चुनाव प्रबंधक तलाशती थीं. लेकिन अब इसके लिए बाहर की एजेंसियों को लाने का चलन शुरू हो गया है. प्रशांत किशोर इसी तरह का कामकाज करेंगे. चुनाव प्रबंधक की भूमिका के तौर पर वह सही नारे देने, सही से प्रचार करने, सही रणनीति बनाने का काम करेंगे.’

प्रशांत किशोर को कांग्रेस को अच्छा करते हुए दिखाना है ताकि गांधी ब्रांड एक बार फिर से अपने रंग में आ सकें. उत्तर प्रदेश के गांवों में अक्सर कांग्रेस के लिए कार्यकर्ता ढूंढ़ना मुश्किल होता है. इससे बचने के लिए किशोर ने टिकट की चाहत रखने वालों से बूथ स्तर पर उनकी ताकत और उनके समर्थकों की तादाद के बारे में पूछना शुरू किया है. वे हर प्रत्याशी से हर बूथ पर पांच समर्थकों की लिस्ट मांग रहे हैं.

तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकीं 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार चुनाव प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा

कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किशोर एक कुशल चुनाव प्रबंधक है. वह चुनाव के लिए प्रोफेशनल तरीके से पार्टी की ब्राडिंग करेंगे. अब चुनाव में इसकी बहुत जरूरत होती है. उनकी भूमिका पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक है.’

पिछले 27 सालों में कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई. पिछले छह विधानसभा चुनावों से पार्टी 50 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई है. विश्लेषक कहते हैं कि अगर हम राजनीति पर नजर डालें तो साठ के दशक से ही पिछड़े लोगों का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा था. कुछ जातियां लोहिया के साथ चली जाने लगीं और कुछ दीन दयाल उपाध्याय के साथ चली गईं. इसके बावजूद कांग्रेस के पास दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम के रूप में बड़ा वोट बैंक था. लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश में जातियों को लगने लगा कि उन्हें सीधी सत्ता चाहिए. इसलिए तमाम जातियों ने अपनी पार्टियां बनानी शुरू कर दी है. जिन्होंने पार्टी नहीं बनाई उन्होंने दावेदारी शुरू कर दी. इस तरह से यादवों, लोधियों, राजभरों और दलितों की बहुत सारी पार्टियां बनीं. इसका प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस की इंद्रधनुषी पार्टी की छवि टूट गई. इससे पूरे देश की राजनीति में परिवर्तन हुआ. कांग्रेस का क्षय इसी वजह से हुआ. कांग्रेस सिर्फ चुनाव की गलतियों से सत्ता से बाहर नहीं हुई है.

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण गैर-भाजपाई दलों से गठबंधन करना रहा है. प्रदेश में कांग्रेस ने सबसे पहले समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और बाद में वह बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. यह गठबंधन भी बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ा. अब जिन सीटों पर पार्टी ने गठजोड़ कर लिया वहां के कार्यकर्ता तो बेकार हो गए. ये कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों में चले गए. इसके अलावा कांग्रेस में जो भी बड़े नेता रहे उन्होंने दिल्ली की राह पकड़ ली. इससे पार्टी को बहुत नुकसान हुआ. अब जो सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने वाली फौज थी वह धीरे-धीरे खत्म होती गई. इसके बाद प्रदेश स्तर में पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं बचा जो कांग्रेस की पहचान को जिंदा रख सके.’

वहीं राम बहादुर राय के अनुसार, ‘कांग्रेस एक जमाने में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का प्रतिनिधित्व करती थी. सबसे पहले इस तरह के आंदोलनों से दूरी ने उसे खत्म करने का काम किया. इससे हटकर वह सिर्फ चुनाव जीतने और सरकार बनाने तक सीमित हो गई. इसके बाद जब मंडल आंदोलन चला और अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया तो राजनीति में बड़ा बदलाव आया लेकिन कांग्रेस इस दौर में कोई ठिकाना नहीं ढूंढ़ पाई. और अभी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है. सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस में इस बारे में कोई सोचने वाला भी नहीं है. वह बस जब चुनाव आता है तो जोर-आजमाइश करने में लग जाती है.’

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हालांकि हार की इस कड़वी सच्चाई को पार्टी के नेता भी स्वीकार करते हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किसी पार्टी के चुनाव जीतने और हारने के बहुत सारे कारण होते हैं. कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है. उसने देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन भी किया है. इस दौरान बहुत काम भी हुआ है, इस पर भी कोई बहस नहीं है. आज उत्तर प्रदेश में जो भी विकास दिखाई दे रहा है यह कांग्रेस की देन है. लेकिन लगातार सत्ता में रहने के चलते कांग्रेस के नेताओं की जनता से दूरी बढ़ गई. राजनीति में एक दौर यह भी आता है कि आप कितना भी काम कर लें लेकिन लोगों को यह जरूर लगना चाहिए कि आप उनके बीच में हैं. आप सुपरमैन नहीं हैं और आप उनके बीच हैं. मुझे लगता है कांग्रेस के लोगों से ये गलतियां हुईं. लोगों ने गांवों में जाना छोड़ दिया. लोगों से मिलना छोड़ दिया. जनता के सुख-दुख में वे उनके साथ नहीं रहे. इस वजह से ये सारे चीजें हुईं. इसके बाद सपा और बसपा का दौर आया जब जमकर जाति की राजनीति हुई फिर भाजपा ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया. कांग्रेस इससे दूर तो रही लेकिन इसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रही. यही हमारे हार का कारण रहा.’

राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था

फिलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उबारने के लिए सबसे पहले राहुल गांधी ने जिम्मेदारी संभाली थी. पिछले विधानसभा चुनाव में खूब सभाएं करने और गुस्सा दिखाने का उनका अभिनय भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का उद्धार नहीं कर पाया था. चुनाव में हार के बाद उन्होंने इसकी जिम्मेदारी भी ली और कहा कांग्रेस को मजबूत करने के लिए उसे थोड़ा समय देंगे. लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं. लोकसभा चुनावों में सिर्फ मां-बेटों के अलावा सभी प्रत्याशियों को मुंह की खानी पड़ी.

राहुल से नाउम्मीद उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी जब प्रियंका के नाम की गुहार लगा रहे थे तब उन्हें राहुल से इस बात की भी शिकायत थी कि उन्होंने विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को उतने दिन भी नहीं दिए जितने अपनी विदेश यात्राओं और छुट्टियों को दिए थे. ऐसे में जब कांग्रेस नेतृत्व ने प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश में जीत दिलाने का ठेका दिया तो कार्यकर्ताओं में फिर थोड़ी उम्मीद जगी थी कि अब जरूर चमत्कार होगा.

ऐसे में पहले कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी को बदला गया और प्रथम परिवार के चहेते गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश प्रभार दे दिया गया. इसके बाद लंबे चिंतन-मंथन का दौर चला और प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री की छुट्टी कर दी गई. कई दिनों के इंतजार के बाद पार्टी ने राज बब्बर के रूप में प्रदेश कांग्रेस को उसका नया अध्यक्ष दिया और अब शीला दीक्षित के रूप में प्रदेश कांग्रेस को एक मुख्यमंत्री का चेहरा भी दे दिया गया है.

इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में जितने भी कांग्रेसी नेता बचे हैं सभी को कुछ न कुछ जिम्मेदारी देकर खुश करने की कोशिश की जा रही है. डॉ. संजय सिंह को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया है तो प्रमोद तिवारी चुनाव संयोजन समिति के अध्यक्ष बने हैं. इस समिति में मोहसिना किदवई से लेकर प्रदीप माथुर तक कई बड़े नाम शामिल हैं.

अब हम इन नामों की चर्चा कर लेते हैं. सबसे पहले शीला दीक्षित. पंजाब के कपूरथला में जन्मीं और दिल्ली के जीसस एेंड मैरी स्कूल से शुरुआती व मिरांडा हाउस से विश्वविद्यालयी शिक्षा हासिल करने वाली शीला कपूर दीक्षित को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है. 1984 में वे कन्नौज से सांसद बनी थीं. वे उन्नाव के कांग्रेसी नेता उमाशंकर दीक्षित की बहू भी हैं लेकिन इतने पुराने इतिहास की बात से उनके राजनीतिक प्रभामंडल में ऐसा कुछ नहीं जुड़ता कि उन्हें उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के रूप में जनता हाथों हाथ लेने लगे.

‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है’

दिल्ली की मुख्यमंत्री के तौर पर लगे भ्रष्टाचार के दागों से भी वे पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी हैं. दिल्ली में तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद हालात यह पैदा हुए हैं कि आज विधानसभा में कांग्रेस का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है. शीला दीक्षित खुद बुरी तरह से विधानसभा चुनाव हार गई थीं. ऐसे में कई लोगों को तो यह भी शक है कि अगर वे कहीं से चुनाव लड़ीं तो खुद भी जीत पाएंगी या नहीं. इसके अलावा कुछ लोग उनके बाहरी होने का भी आरोप लगा रहे हैं. जानकार कहते हैं कि कुछ समय पहले तक वे खुद इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थीं. फिर 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘शीला दीक्षित को लाना कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी था कि पार्टी में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो अपने विधानसभा क्षेत्र में तो खूब रसूख वाले हैं लेकिन उससे बाहर उनकी कोई खास पहचान नहीं है. इसके चलते पार्टी में गुटबाजी खूब थी. अब शीला की वरिष्ठता के चलते उनके बीच का आपसी विवाद दूर हो सकता है. जहां तक दिल्ली में उनके प्रदर्शन का सवाल है तो राजनीति में हार-जीत चलती रहती है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास कोई भी नेता ऐसा नहीं था जिससे सारे लोग सहमत होते. इसलिए शीला को लाना एक बेहतर फैसला रहा.’

वहीं अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित का दिल्ली में क्या प्रदर्शन रहा है इससे उत्तर प्रदेश की जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता है. फर्क इस बात से पड़ता है कि पार्टी शीला दीक्षित को चुनाव मैदान में उतारकर क्या संदेश देना चाहती है. वह इससे दो संदेश देना चाहती है. पहला संदेश ब्राह्मण समाज के लिए है. वह यह कि यदि हम चुनाव जीते तो ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनेगा. आजकल ब्राह्मणों को भारतीय राजनीति में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का चलन खत्म हो चला है. यह संदेश बहुत दूरगामी होगा. दूसरा संदेश, शीला दीक्षित एक खास तरह के विकास के एजेंडे की भी नुमाइंदगी करती हैं. शीला दीक्षित ने दिल्ली में 15 साल सरकार चलाई है. इस दौरान उनके मॉडल की प्रशंसा खूब की गई. भले ही वे चुनाव हार गईं. कांग्रेस इसी मॉडल को उत्तर प्रदेश में पेश करना चाह रही है. अभी उत्तर प्रदेश की जनता ने पिछले 15 साल में या तो सपा का मॉडल देखा है या फिर बसपा का. यह एक तीसरा मॉडल जनता के सामने आया है.’

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हालांकि राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित के नाम का सीधा मतलब सिर्फ इतना है कि आपके पास कोई ऐसा नाम नहीं है जिसे चलाकर आप वोट हासिल कर सकें. प्रशांत किशोर की सलाह पर ऐसा किया गया है. अब प्रशांत किशोर शीला के अलावा किसी और को ढूंढ़ नहीं पाए. मेरा यह कहना नहीं है कि 2014 में शीला दीक्षित ने खराब प्रदर्शन किया तो उन्हें आगे मौका नहीं मिलना चाहिए लेकिन शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश की राजनीति से नाता कई दशक पहले खत्म हो चुका है. वह चुनाव सिर्फ इसलिए जीतने में सफल रहीं कि वे उत्तर प्रदेश की बहू रही हैं. अब ऐसे में प्रदेश से उनका नाता सिर्फ एक दो जिलों में ही रह गया है. इसके अलावा जब चुनाव प्रचार के दौरान कड़े परिश्रम की जरूरत होगी तो वे अपने स्वास्थ्य को कितना बेहतर बनाए रख पाएंगी. उनका चुनाव करके कांग्रेस ने जड़ों को मजबूत करने के बजाय कांग्रेस को बर्बाद करने की दिशा में काम करने की शुरुआत की है.’

इसके बाद बात आती है राज बब्बर की. राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था. लेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि गाजियाबाद में हार के बाद राज बब्बर का जादू अब उतर चुका है. समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव ने शायद इसीलिए उन्हें दगा हुआ कारतूस कहा है.

‘आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है’

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश के सपनों को हवा देने वाला कोई नेता अभी नहीं है. उनके पास नेतृत्व का इस कदर टोटा है कि वे राज बब्बर को ले आए हैं. राज बब्बर सिर्फ कुछ पंजाबी वोट बैंक को अपनी तरफ खींच पाएंगे. अब जब बड़ा आधार वोट आपसे खिसक रहा हो तो सिर्फ पंजाबी वोट बैंक को खींचकर आप क्या कर पाएंगे. दूसरी बात, राज बब्बर पुराने कांग्रेसी नहीं हैं, वे समाजवादी पार्टी से नाराज होकर कांग्रेस में आए थे. उनके जन्म स्थान आगरा में ही जाकर आप किसी से पूछें तो कोई उन्हें कांग्रेसी नहीं बताएगा वह उन्हें समाजवादी बता देगा. इनका चुनाव बताता है कि कांग्रेस को गैर-कांग्रेसियों के जरिए पुनर्जीवन देने की तैयारी की जा रही है.’

सोनिया गांधी ने राज बब्बर को जीत का जो मंत्र दिया है वह है, ‘टीम बनाओ, जीत दिलाओ.’ यह मंत्र सुनने में तो अच्छा ही लगता है लेकिन राज बब्बर के लिए सबसे बड़ी समस्या ही ‘टीम’ बनाने की है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अब जितने भी लोग हैं उनकी स्वाभाविक इच्छा रहती है कि टीम चाहे जिसकी भी बने, उन्हें इसका हिस्सा रहना ही चाहिए. राज बब्बर की दूसरी बड़ी समस्या जमीनी स्तर के अनुभव की कमी की है. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना उनके लिए आसान नहीं होगा. सबका साथ लेना आसान नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस के भीतर से ही उन पर बाहरी होने का लेबल लगाने की कोशिश शुरू हो गई है.

हालांकि शरत प्रधान इस फैसले को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘राज बब्बर के रूप में कांग्रेस के पास ऐसा चेहरा है जिसकी पूरी उत्तर प्रदेश में पहचान है. कांग्रेस को जनता के बीच में जाकर उनकी पहचान बताने की जरूरत नहीं है. वे ड्रामा भी क्रिएट कर सकते हैं, अच्छा भाषण भी दे सकते हैं. यह कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद रहेगा.’

अब बात प्रियंका गांधी की भूमिका की, जो एक प्रचारक के रूप में अब तक अमेठी-रायबरेली से बाहर नहीं निकली हैं. दूसरे, विधानसभा चुनावों में उनकी सभाओं में भीड़ जुटाना कांग्रेस के लिए इसलिए आसान नहीं होगा क्योंकि उसका निचले स्तर का सांगठनिक ढांचा बुरी तरह से चरमराया हुआ है. जानकारों का कहना है कि प्रियंका को लाने में कांग्रेस ने दस साल की देरी कर दी है. अब उनसे चमत्कार करने की उम्मीद बेमानी है.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी इस चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाएंगी. उनके नाम को सार्वजनिक न किए जाने का फायदा यह है कि अगर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती है तो उसका श्रेय उनके पास आएगा और अगर पार्टी बुरा प्रदर्शन करती है तो शीला दीक्षित जिम्मेदारी ले लेंगी.’

अगर हम कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो इसमें केवल सुधार ही हो सकता है. जानकार कहते हैं कि उन्होंने इस बार जो रणनीति बनाई है उससे हमें देखना है कि कितना सुधार होगा. कांग्रेस अभी सरकार बनाने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही है. अभी उसकी रणनीति सिर्फ अपनी 28 सीटों को 50 या 100 करने की है. वह मत विभाजन करने की कोशिश कर रही है. शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर यही करना चाह रही है. अब ब्राह्मण समाज इससे कितना प्रभावित होता है यह देखने वाली बात होगी. इसके अलावा इस रणनीति के हिसाब से उसे टिकटों का बंटवारा भी करना होगा. तभी आपका संदेश उस जनता के पास पहुंच पाएगा जिसे आपने टारगेट किया है. अभी तक उन्होंने जो भी किया है वह अच्छा किया है.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है, लेकिन उसके सामने संभावनाएं अपार हैं. प्रदेश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल से ऊब चुके हैं. ऐसे लोग एक नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि कांग्रेस इस स्थिति में आए कि वे उसे वोट दे सकें. खासकर मुस्लिम समुदाय मुलायम सिंह यादव से अब दूर जाना चाह रहा है. वह चाहता है कि कांग्रेस एक मजबूत विकल्प के रूप में सामने आए. अभी शीला दीक्षित और राज बब्बर के आने के बाद कांग्रेस एक विकल्प बन रही है. लेकिन उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’

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हालांकि राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के सामने 2006 में जो चुनौती थी वही 2016 में भी है. 2006 में राहुल गांधी पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में उतरे थे. उस दौरान चुनाव से करीब एक साल पहले उन्होंने गाजियाबाद से रोड शो की शुरुआत की थी. अब दस साल बाद फिर कांग्रेस बनारस से रोड शो की शुरुआत करके चुनाव प्रचार शुरू कर रही है. इस दौरान भीड़ की चर्चा हो रही है. लेकिन अगर आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है. इस भीड़ को देखकर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह कांग्रेस के लिए आतुर है. उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को 1989 में ही नकार दिया है. अभी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए बांहें फैलाए खड़ा है. अभी जो चुनाव हो रहे हैं उसमें सामाजिक समीकरण बहुत मायने रख रहा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किसी भी सामाजिक समीकरण में फिट नहीं बैठ रही है. अभी का हाल तो इतना बुरा है कि उसके बचे-खुचे विधायक भी पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं. मुझे लगता है कि कांग्रेस की सीटों की संख्या 2012 के मुकाबले घट ही जाएगी.’

वहीं कांग्रेस के नेता अपनी चुनौतियों को दूसरी तरह से गिनाते हैं. राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने एक तरफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने तो दूसरी तरफ जातिवादी ताकतों को खत्म करने की चुनौती है. पिछले 27 सालों में उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला बन चुका है. इस दौरान प्रदेश की जनता सरकारों से बहुत नाराज हुई है. सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल में प्रदेश का विकास रुक गया है. कांग्रेस के सामने चुनौती विकास के मामले में राज्य के पुराने गौरव को वापस दिलाने की है. इस बार जिस मजबूती के साथ नई टीम का गठन हुआ है और जिस मजबूती से पार्टी आगे बढ़ रही है, वह एक बेहतर विकल्प बनकर जनता के सामने आएगी. लोग कांग्रेस को एक उम्मीद के रूप में देख रहे हैं.’

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता किशोर वार्ष्णेय का कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में हमारा मुख्य लक्ष्य हिंदू और मुसलमान के नाम पर लोगों को बांटने वाली भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है. इसके लिए हमारी पार्टी पूरा प्रयास कर रही है. हम इस बार तीन अंकों में पहुंच जाएंगे. इस बार हमारा पूरा प्रयास यह है कि हम किंग मेकर की भूमिका में रहें. कांग्रेसी जिला स्तर पर रैलियां करेंगे. रोड शो होगा और हमारे कार्यकर्ता प्रदेश की जनता से संवाद कायम करेंगे. हमें सत्ता में वापस आना है और इसके लिए हमने तैयारी शुरू कर दी है. अभी लखनऊ और बनारस के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में लोग जुटे जो अच्छा संकेत है.’

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‘जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने हमने शीला मॉडल पेश किया है’

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पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन आदित्य की गिनती कांग्रेस के उन नेताओं में होती है जिन्हें केंद्र और प्रदेश दोनों जगहों पर राजनीति करने का अनुभव है. प्रदेश के अपेक्षाकृत पिछड़े इलाके बुंदेलखंड से आने वाले प्रदीप पिछली मनमोहन सरकार में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के रूप में काम कर चुके हैं. अभी उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बनी कांग्रेस की समन्वय समिति का सदस्य बनाया गया है. 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर उनसे बातचीत.

 

आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस के सामने क्या चुनौतियां हैं?

कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि प्रदेश को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए जातिवादी ताकतों को परास्त कैसे किया जाए. हम समझते हैं कि आज की जो स्थिति है इसमें चुनौतियां दूसरे दलों के सामने ज्यादा हो गई हैं. हमने तो शीला दीक्षित को लाकर विकास का एक मॉडल जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने पेश कर दिया है. हमारे सामने एक स्पष्ट चेहरा है. अब उसके सामने कोई चेहरा प्रदेश में दिखाई नहीं देता है. भाजपा अभी असमंजस में है. बसपा की मायावती का जो चेहरा है उस पर कितने धब्बे हैं यह लोगों को पता है और सपा के अखिलेश यादव तो पूरी तरह से फेल हो गए हैं. प्रदेश में कानून व्यवस्था नहीं है.

प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने की कितनी संभावना है?

कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी. अभी हमारा लखनऊ में रोड शो हुआ था. उसमें लाखों लोग बरसते पानी में इकट्ठा हुए. बनारस के कार्यक्रम में लाखों लोग उमड़े. सबसे बड़ी बात यह रही कि लोग अपना पैसा खर्च करके आए. यह एक संदेश है. जहां सपा पूरी सत्ता का प्रयोग करके लोगों को बुलाती है, बसपा लोगों को इकट्ठा करती है वहां कांग्रेस के समर्थन में जनता स्वत: स्फूर्त पहुंची.

विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस की रणनीति क्या है? इसमें प्रशांत किशोर की क्या भूमिका है?

प्रशांत किशोर कांग्रेस का सहयोग कर रहे हैं. उनकी जो रणनीति है वह यही है कि विकास के सहारे चुनाव लड़ा जाए, क्योंकि जनता विकास तलाश रही है. कांग्रेस इस बार पूरी तरह से उठकर खड़ी हो गई है.

प्रदेश में कांग्रेस 27 साल से सत्ता से बाहर है. इसका क्या कारण रहा?

सबसे बड़ी बात यह रही है कि बीते दिनों में लोगों ने जाति के नाम पर जनता को छला और विकास को नजरअंदाज किया गया. सपा, बसपा और भाजपा ने प्रदेश में विकास की एक ईंट नहीं लगाई. इस दौरान सिर्फ प्रदेश को बर्बाद करने का काम किया गया. यह सिर्फ एक शासन में नहीं हुआ. तीनों पार्टियों ने मिलकर प्रदेश को लूटा है. इस दौरान कोई भी औद्योगिक नीति नहीं बनी. अब लोगों को इसका एहसास हुआ है, लोग उमड़कर कांग्रेस के पास आ रहे हैं. अब जो लोग कांग्रेस से टिकट मांग रहे हैं वे हर बूथ पर पांच लोगों का नाम दे रहे हैं.

हाल में कुछ विधायकों ने पार्टी का दामन छोड़कर विरोधी दलों की शरण ली है?

विधायकों ने पार्टी नहीं छोड़ा है. उन्हें अनुशासन के चलते पार्टी से निकाला गया है. इन विधायकों ने पार्टी की ह्विप के खिलाफ वोट किया था. अब राहुल के नेतृत्व में पार्टी ने कड़ा निर्णय लेते हुए इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. अनुशासन सबसे पहले है. कोई भी पार्टी के साथ गद्दारी करेगा तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. अब जिन दलों ने उन्हें शरण दिया है उनके लिए बस इतना कहना है कि हमने जिन्हें रिजेक्ट किया वह उन्हें इस्तेमाल करने जा रहे हैं.

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की राजनीति से लंबे समय से दूर रही शीला दीक्षित पर दांव लगाया है. यह कितना सही फैसला है?

उत्तर प्रदेश के जितने नेता थे उन्होंने मिलकर हाईकमान से कहा कि शीला दीक्षित को प्रदेश में भेजा जाए. वे उत्तर प्रदेश की ही रहने वाली हैं और उनके अंदर एक अच्छी प्रशासनिक क्षमता है. उन्होंने दिल्ली को बेहतर स्थिति में पहुंचा दिया है. उन्हें उत्तर प्रदेश के नेताओं के अनुरोध और आग्रह पर भेजा गया है. उन्हें ऊपर से थोपा नहीं गया है.[/symple_box]