दो साल की मोदी सरकार, अच्छे दिनों का इंतजार

फोटो साभारः asia361.com
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तीस साल बाद केंद्र में प्रचंड बहुमत से आई मोदी सरकार अपने दो साल पूरे कर रही है. निजी तौर पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता की दौड़ में अपने प्रतिद्वंद्वी गठबंधन यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस) को काफी पीछे छोड़ते हुए एनडीए (नेशनल डेेमोक्रेटिक एलायंस) को जबरदस्त बढ़त दिलाई और प्रधानमंत्री बने. यह पहली बार था जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले ही सरकार बनाने के लिए जितना जरूरी है, उससे ज्यादा बहुमत हासिल किया. लोकसभा चुनाव 2014 के लिए जब चुनाव प्रचार खत्म हुआ, तब पार्टी ने दावा किया कि नरेंद्र मोदी ने अब तक तीन लाख किलोमीटर से अधिक यात्राएं कीं और परंपरागत व नए तरीकों से करीब 5,827 कार्यक्रमों में शिरकत की. मोदी ने कुल 437 जनसभाओं को संबोधित किया. उन्होंने प्रचार का नया तरीका अपनाते हुए 1,350 3डी रैलियां कीं. यह भारत के चुनावी इतिहास का सबसे बड़ा प्रचार अभियान था. भाजपा को इसका फायदा भी मिला. भाजपा ने अकेले 543 लोकसभा सीटों में  से 282 सीटें जीत लीं और एनडीए गठबंधन को कुल 336 सीटें मिलीं. इसके उलट सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को महज 44 सीटें मिलीं और यूपीए गठबंधन को कुल 60 सीटें मिलीं.

‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने, तो थोड़ा समय लेकर खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे. केंद्र सरकार अभी तक उसी स्टेज में है, वादन से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं’ 

नरेंद्र मोदी ने देश भर में गुजरात मॉडल लागू करने, आर्थिक उदारीकरण को तेज करने, अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे ले जाने, किसानों और गरीबों का विकास करने, भारत की युवाशक्ति को वैश्विक स्तर पर ले जाने जैसे लोकलुभावन वादे किए. चुनावी वादों से जगी उम्मीद और नरेंद्र मोदी के प्रभावी व्यक्तित्व ने उन्हें ऐतिहासिक बढ़त दिलाई. अब जब नरेंद्र मोदी सरकार दो साल पूरे कर रही है, एक मजबूत सरकार और मजबूत प्रधानमंत्री का सिलसिलेवार आकलन भी किया जाना चाहिए.

हाल ही में आए सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के सर्वे में कहा गया कि 70 फीसदी लोग नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं, जबकि इसके उलट 49 फीसदी लोग मोदी के कामकाज से खुश नहीं हैं. यानी मोदी अब भी सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. लगभग हर जनमत सर्वेक्षण में मोदी की लोकप्रियता कायम है. फिलहाल किसी पार्टी का कोई नेता उन्हें चुनौती देता नहीं दिखता. इसके उलट कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता अपने सबसे निचले स्तर पर है. परिवारवाद और यूपीए-दो के समय हुए भ्रष्टाचार का ठप्पा कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है, तो दूसरी तरफ राहुल गांधी और सोनिया गांधी का व्यक्तित्व वह करिश्मा नहीं कर पा रहा है जो मोदी का मुकाबला करने के लिए जरूरी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी केंद्र के दावेदारों में गिना जाता है लेकिन उनके पास मोदी जितना बड़ा तंत्र और संसाधन फिलहाल नहीं हैं.

हालांकि, मोदी की इस लोकप्रियता के बीच ही उनकी पार्टी को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा. लेकिन केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद पार्टी ने हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में सरकार भी बनाई. जबकि भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी राज्य में चुनाव जीत सकने में कामयाब नहीं हो सकी है.

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अतुल अनजान
महासचिव, सीपीआई

मोदी सरकार के दो साल आशाओं से भरे थे लेकिन जनता निराशाओं के घटाटोप अंधेरे में पहुंच गई. अच्छे दिन आने का मतलब अगर ये है कि हम 200 रुपये किलो दाल छह महीने से खाते रहे, तो बुरे दिनों की कल्पना करना ही दु:स्वप्न है. दो करोड़ लोगों को काम दिलाने का वादा करके देश की 65 प्रतिशत युवा आबादी का वोट लिया लेकिन 2015 के आंकड़े कहते हैं कि एक लाख चौदह हजार नौकरियां ही बन पाईं. सर्विस सेक्टर के अंदर जो नौकरियां बनीं वो सिर्फ हायर और फायर की हैं.
सरकार पीने का पानी नहीं दिला सकी लोगों को, डॉक्टरों ने कहा कि आपका पानी जहरीला है, इसलिए सबको कहा कि आरओ का पानी पीजिए. 18 हजार रुपये का आरओ मध्यवर्ग के घर-घर में पहुंचवा दिया गया. निम्न मध्यवर्ग से भी कह रहे हैं कि घर में आरओ जरूर लगवाओ. फिर नौजवानों से कहा कि आरओ लगाने से काम मिलेगा. तीन से ज्यादा कोई आदमी आरओ लगा नहीं सकता. एक आरओ लगाने का 150 रुपये मिलता है. एक युवा दिन में तीन आरओ लगाता है तो एक लीटर पेट्रोल भी जलाता है. यही रोजगार पैदा हुआ, कोई स्थायी रोजगार नहीं है. यह हायर ऐंड फायर का रोजगार है. सवाल यह है कि उस दो करोड़ रोजगार का क्या हुआ.
सितंबर 2014 में सरकार ने बताया था कि हमारा हस्तकला से निर्यात 29 बिलियन डॉलर का है. 2015 में वह 29 बिलियन डॉलर से घटकर 22 बिलियन डॉलर का हो गया. इसका क्या अर्थ है? भारत की अर्थव्यवस्था तब आगे बढ़ेगी जब हमारा निर्यात बढ़ता है. अगर हमारा आयात बढ़ता है तो उसका अर्थ है कि रोजगार के साधन घटते हैं. जो बाहरी फैक्टरियां लाकर आप लगा रहे हैं, वे तो हाइली स्किल्ड हैं. उसमें तो जरूरत ही नहीं है आदमी की. ये निर्यात जो घट गया, इसका मतलब है कि लघु और मझोले उद्योग बंद हो गए हैं. हस्तकला उद्योग खत्म हो गया. राजस्थान में लाख की चूड़ियों का कारोबार खत्म हो गया. मुरादाबाद में बर्तन पर नक्काशी का काम खत्म हो गया क्योंकि इसका निर्यात बंद हो गया. हजारों-हजार परिवार खत्म हो गए.
मनमोहन और मोदी दोनों की अर्थनीति एक ही है. मोदी की अर्थनीति के पितामह तो डॉ. मनमोहन सिंह ही हैं. सारा झगड़ा कमीशन का पैसा खाने को लेकर है. मोदी ने कहा था कि सौ दिन में काला धन लाएंगे, जन-धन योजना के तहत सबका खाता खुलवा दिया. बोले 15 लाख मिलेंगे. अब लोगों को यूनियन बनाकर प्रधानमंत्री के वादों का हिसाब मांगना चाहिए. दो वर्षों में मोदी ने साबित किया कि वे कॉरपोरेट घरानों के अभिन्न मित्र हैं. गरीब लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. चोरबाजारी, कालाबाजारी, वायदा कारोबार करने वालों के साथ वे पहले भी थे, जिन्होंने उनके चुनाव की फंडिंग की, वे उनके साथ अब भी हैं. ये प्रतिबद्धता भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखी गई.

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केंद्र सरकार के दावों और मोदी के भाषणों में देश की विकास गति काफी उत्साहजनक है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सरकार के कामकाज को अभी जमीन पर उतरना बाकी है. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने के लिए, तो थोड़ा समय लेता है, खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे अगर वह तबला ही ठीक करता रहेगा. केंद्र सरकार अब तक उसी स्टेज में है, वादन शुरू करने से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं. बहुत सारी योजनाओं की घोषणा हुई है. दावे बहुत हैं. लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि कहा जा सके कि यह है दो साल के कामकाज का ठोस परिणाम. दावा तो यह था कि ठोस परिणाम मिलेगा. अब दो साल हो चुके हैं. लोग इंतजार कर रहे हैं, देखिए कब तक करते हैं. अभी तक किसी भी काम का कोई ठोस परिणाम नहीं मिला है. ये नहीं कहा जा सकता कि ये-ये नतीजे मिल गए हैं और जनता को इसका लाभ मिलना शुरू हो गया है.’

पठानकोट हमले पर आई संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है. देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका 

प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल यात्रा पर नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल यात्रा पर नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कीं. अमेरिका वे कई बार गए. कथित तौर पर बिना किसी पूर्व योजना के पाकिस्तान भी पहुंच गए. ओबामा के रात्रिभोज में नवरात्र व्रत के साथ शामिल होने का इतिहास रचा तो ब्रिटेन की महारानी के साथ भोजन कर आए. हर देश में उनकी चर्चित सभाएं हुईं, जहां प्रवासी भारतीयों ने उनकी जय-जयकार भी की. इस दौरान वे स्थायी भाव के साथ कांग्रेस के 65 साला शासन की खूब आलोचना भी करते रहे. इन विदेश यात्राओं के दौरान भाजपा और मोदी सरकार ने इसे ‘न भूतो न भविष्यति’ के अंदाज में पेश किया कि हम दुनिया में भारत की नई पहचान बना रहे हैं. शुरुआती दौर में ऐसा माना भी गया कि मोदी के ताबड़तोड़ दौरों और विदेशों में बड़ी-बड़ी भारतीय सभाओं का अपना खास मतलब हो सकता है. चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूलना या अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए प्रेमपूर्वक संबोधन ‘बराक’ भी खासा चर्चित रहा. नवाज शरीफ के घरेलू कार्यक्रम में मोदी की शिरकत से एक दफा कोई भी सोच सकता था कि अब पाकिस्तान से भारत के रिश्ते बेहद मधुर होने वाले हैं.

सरकार के सौ दिन पूरे होने के बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मीडिया के सामने आईं और विदेश नीति पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा, ‘कूटनीति और विदेश नीति एक-दूसरे का पर्याय नहीं हैं. विदेश नीति अक्सर वही रहती है, लेकिन काम करने का तरीका बदलता है.’ मोदी की नई विदेश नीति को ‘फास्ट ट्रैक डिप्लोमेसी’ का नाम दिया गया. नरेंद्र मोदी पुरानी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ को अहमियत देते हुए पहली यात्रा पर भूटान गए. उसके बाद नेपाल और जापान की यात्रा की. उन्होंने कुछ ऐसे भी देशाें की यात्रा की जहां अभी तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री गया ही नहीं था, या दशकों पहले गया था. मोदी ने इजराइल की यात्रा की जहां अब तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. उन्होंने आयरलैंड की यात्रा की जहां पिछले 60 साल से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बांग्लादेश, म्यांमार, वियतनाम, सिंगापुर आदि देशों की यात्राएं कीं. इन सब देशों के साथ पाकिस्तान का मसला मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा.

‘अमेरिका के बरक्स देखें तो पता नहीं हम क्या हासिल करने में कामयाब रहे हैं. द्विपक्षीय संबंध आपसी व्यक्तिगत संबंधों के मोहताज नहीं होते. ओबामा ने पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद पर कोई कार्रवाई न करने को लेकर उंगली तक नहीं उठाई है. पाकिस्तान के मुद्दे पर हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं’ 

लेकिन इन सब विदेश यात्राओं के चलते अब तक कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज नहीं की जा सकी है. भारत सरकार द्वारा विदेश में फंसे भारतीय नागरिकों को बचाने के लिए चलाए गए अभियान जरूर सफल रहे. युद्ध और आंतरिक संकट से जूझ रहे यमन में फंसे भारतीयों को बचाने के लिए भारत सरकार ने आॅपरेशन राहत चलाया था. अप्रैल 2015 में सफलतापूर्वक खत्म हुए इस ​अभियान में 5,600 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाला गया. इनमें 4,640 भारतीय नागरिक थे, बाकी 41 देशों के 960 विदेशी नागरिकों को भी भारतीय सैनिकों ने बचाया. युद्धग्रस्त यमन में बड़ी संख्या में भारतीय नर्सें और नागरिक फंसे हुए थे. यह किसी दूसरे देश में चलाया गया अब तक का सबसे बड़ा बचाव अभियान था. विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह की अगुवाई में चले इस अभियान में भारतीय नौसेना, वायुसेना, एयर इंडिया और भारतीय रेल शामिल थीं. इस अभियान की सफलता के चलते सरकार को खूब तारीफ मिली.

मोदी की अप्रत्याशित पाकिस्तान यात्रा के बीच अमेरिका ने पाकिस्तान की सामरिक मदद की और भारत की ओर से एक औपचारिक नाराजगी का प्रदर्शन भर हो सका. नेपाल जैसा देश, जो भारत का अनन्य पड़ोसी है, जो भारत चीन के बीच ‘बफर स्टेट’ की भूमिका निभाता रहा है, उससे रिश्ते बिगड़ गए. हालांकि, मोदी सरकार आम लोगों के बीच यह प्रचारित कर रही है कि उनकी सरकार की विदेश नीति काफी उम्दा है, लेकिन विशेषज्ञों की राय इसके उलट है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसे विदेश नीति की कामयाबी के तौर पर नहीं देखा जा सकता कि विदेशों में बहुत-से लोग मोदी को सुनने आते हैं. नेपाल से संबंध खराब होने, नेपाल की चीन से नजदीकी बढ़ने, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों से संबंधों में उल्लेखनीय सुधार न होने जैसे तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता. विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की नीति समझ में न आने वाली है. कई बार बातचीत होना, फिर टूटना, आतंकवाद के मुकदमों का आगे न बढ़ना और एक-दूसरे पर दोषारोपण करते जाना दोनों देशों की नीतिगत अगंभीरता को दिखाता है.

‘भाजपा सरकार की विदेश नीति में खामी है. ये अमेरिका से जाकर दोस्ती कर रहे हैं, जबकि नेपाल के साथ हमारा विरोध चल रहा है. यह गलत नीति के ही कारण है. इस समय तो विदेश नीति के मामले में कुछ भी ठीक नहीं है. भाजपा सरकार जिस तरह की नीति अपनाए हुए है, वह सही नहीं है’

मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकातों, दोनों के बीच साड़ी-शॉल आदि के आदान-प्रदान और शरीफ की मां से मोदी के मिलने जाने की खूब चर्चा हुई. इस सबके बावजूद अगस्त में प्रस्तावित विदेश सचिवों की वार्ता से ठीक पहले पाकिस्तान के हाई कमिश्नर ने कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत की और नतीजतन भारत सरकार ने 25 अगस्त की वार्ता रद्द कर दी.

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पठानकोट हमले के मामले में पाकिस्तान एक तरफ जांच का दिखावा करता रहा और दूसरी तरफ वह जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को लेकर अगंभीर भी बना रहा. इधर भारत की ओर से पाकिस्तानी जांच टीम को पठानकोट बेस तक ले जाया गया. यह एक रणनीतिक रूप से एक भारी चूक थी. पठानकोट हमला, पाकिस्तानी जांच टीम बुलाकर जांच करवाना, जांच टीम के लौटने के बाद पाकिस्तान का वार्ता से इनकार करना, ये सभी घटनाएं सरकार की विफलताओं में दर्ज हुईं. इस उठापटक के बीच सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं वैसी ही हो रही हैं, जैसे पिछले वर्षों में होती रही हैं.

पठानकोट हमले पर हाल ही में आई संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लचर सुरक्षा व्यवस्था पर चिंता जताते हुए कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था अभी भी ठीक नहीं है. समिति ने कहा कि देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. एसपी सलविंदर सिंह से एक बार फिर पूछताछ की जरूरत बताते हुए समिति ने कहा कि भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका. इस हमले में पंजाब पुलिस की भूमिका की जांच होनी चाहिए. समिति के प्रमुख प्रदीप भट्टाचार्य ने बयान दिया कि पठानकोट में सुरक्षा-व्यवस्था खराब थी, एसपी पठानकोट की गतिविधि संदिग्ध थी, उनसे सवाल-जवाब ठीक से नहीं हुए. समिति ने गृह मंत्रालय को कठघरे में खड़ा करते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि बीएसएफ ने बेशक बॉर्डर में कंटीले तार लगाए हों लेकिन आतंकवादी अंदर घुसने में कामयाब हुए. समिति ने एयरबेस की सुरक्षा को लेकर भी कई अहम सवाल खड़े किए हैं. 31 सदस्यीय समिति ने यह सवाल भी उठाया है कि जब पठानकोट हमले में पाकिस्तानी एजेंसियों की भूमिका थी तो पाकिस्तानी जांच समिति को भारत क्यों आने दिया गया. समिति का कहना है कि मंत्रालय के ज्यादातर काम कागजों में सिमटे रहते हैं, जमीनी स्तर पर नहीं दिखते. इसे बदलने की जरूरत है. यह हमला दो जनवरी को हुआ था जिसमें सेना के सात जवान शहीद हुए थे. भारत ने इसके लिए आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद को जिम्मेदार ठहराया था. भारत का कहना है कि जैश प्रमुख मौलाना मसूद अजहर इस हमले का मास्टरमाइंड था.

‘सरकार की आर्थिक नीतियां गलत हैं. आज हिंदुस्तान में नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. महंगाई बढ़ रही है. मजदूर विरोधी काम चल रहा है. कानून बदलकर उसे मजदूरों के खिलाफ किया जा रहा है. किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. यह नीतियों की पूरी तरह विफलता को दिखाता है.’

चीन के साथ संबंधों में भी कोई उल्लेखनीय सुधार देखने को नहीं मिला है. संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर को आतंकी घोषित करवाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने वीटो कर दिया. विदेश नीति के मामले में यह एक कमजोर कड़ी थी. इसके जवाब में भारत ने उइगर नेता डोल्कन ईसा को वीजा दे दिया और बाद में रद्द भी कर दिया. यह शायद चीन को एक संदेश देने की कोशिश थी. डोल्कन ईसा को चीन ने आतंकवादी घोषित किया है और उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी किया है. ईसा लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं लेकिन वे चीनी सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं. वे जर्मनी में निर्वासित जीवन जी रहे हैं. चीन का आरोप है कि इस्लाम को मानने वाले उइगर समुदाय के लोग शिनजियांग प्रांत में जो आंदोलन करते हैं उसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी गुटों से मदद मिलती है. चूंकि डोल्कन ईसा उइगरों के नेता हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से चीन के दुश्मन हुए. चीन की नाराजगी की चिंता न करके डोल्कन ईसा को भारत आने देना शायद ज्यादा मजबूत संदेश होता, लेकिन अंतत: उन्हें नहीं आने दिया गया. उनको वीजा देने या बाद में रद्द कर देने से कोई फर्क पड़ने के संकेत अब तक तो नहीं दिखे. यह जरूर स्थापित हुआ है कि शांतिपूर्ण लड़ाई लड़ने वाले डोल्कन ईसा चीन की नजर में आतंकवादी हैं, लेकिन कंधार कांड का कारण बना मसूद अजहर, जिस पर मुंबई हमलों और पठानकोट हमले की साजिश रचने का आरोप है, वह आतंकवादी नहीं है. फिलहाल उसकी इस मान्यता में भारत कोई अड़चन खड़ी नहीं कर पाया है.

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अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘डोल्कन के मामले में भारत सरकार ने जिस तरह के डावांडोल रवैये का परिचय दिया, उसका उसकी विदेश नीति और खास तौर पर चीन नीति पर खासा असर पड़ेगा. डोल्कन को वीजा देने का भारत सरकार का फैसला इन मायनों में चौंकाने वाला था, क्योंकि अतीत में ऐसा कदम नहीं उठाया गया था. भारत ने डोल्कन को वीजा देने का फैसला तब लिया था जब चीन ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने के भारत के आग्रह के खिलाफ वीटो कर दिया था. चीन ने ऐसा पाकिस्तान के प्रति दोस्ती निभाने के लिए किया है. डोल्कन को वीजा देने का फैसला सही था. लेकिन डोल्कन का वीजा रद्द करने के मामले में अधिकृत रूप से अभी तक कुछ भी नहीं कहा गया है. सरकार इस मामले में जो भी सफाई दे, आम धारणा तो यही बनेगी कि वह चीन के सामने झुक गई और राजनीति व कूटनीति में आम राय का सर्वाधिक महत्व होता है.’

‘अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई उछाल नहीं है. जितनी ग्रोथ रेट दिखाई जा रही है, उतनी तो 10-12 साल से चल रही है. 2004 से 09 के बीच ग्रोथ रेट इससे भी ज्यादा थी. रोजगार मिलना शुरू नहीं हुआ. बाजार पूरी तरह बंद पड़ा हुआ है. बड़े पूंजीपति अपनी संपत्तियां बेच रहे हैं ताकि अपना कर्ज चुका सकें’ 

रक्षा और विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन का कहना है, ‘वास्तविक स्थिति क्या है, ये तो उन्हीं को पता है जिन्होंने ये निर्णय लिया है. चीन के साथ पेचीदगियां बहुत हैं. एक तो सामरिक स्तर पर जिस तरीके का चीन का रवैया है, उनके जो हित हैं, वो भारत के हित के साथ मेल नहीं खाते. मुझे लगता है कि चीन के साथ कई स्तर पर निपटना पड़ेगा. कई मामलों में आप चीन के साथ सख्ती दिखा सकते हैं लेकिन फिर कई में आपको नरमी बरतनी होगी.’

सुशांत सरीन का कहना है, ‘पाकिस्तान पर नीति में एक तरह से कमजोरी है. पिछले दो साल में कम से कम पांच बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पहल की है. हाल में भी जब रिश्तों में कड़वाहट आई तो उसे बेहतर करने की कोशिश नरेंद्र मोदी ने की. लेकिन लगता है कि पहले के प्रधानमंत्रियों की कोशिशों की तरह उनकी कोशिश का कोई असर नजर नहीं आ रहा. दूसरा पहलू है नरेंद्र मोदी का सऊदी अरब या यूएई जाकर नए सामरिक समीकरण बनाने की कोशिश करना. ये कदम इसमें एक बड़ा बदलाव है. एक सच्चाई भारत को स्वीकार करनी होगी कि अगर नेताओं के व्यक्तिगत संबंध अच्छे भी हैं तो इससे मुल्कों के संबंध बेहतर नहीं हो जाते. जिस नाटकीयता से लाहौर की यात्रा हुई, उसकी जरूरत नहीं थी. उसका एक नकारात्मक पहलू यह रहा कि जब से मोदी सरकार आई थी तब से पाकिस्तान में जो डर या हिचकिचाहट थी- मोदी की नीतियां पाकिस्तान को लेकर पिछली सरकारों से बिल्कुल अलग होंगी; वो लगभग पूरी तरह से खत्म हो गई है.’

आॅल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव रह चुके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गुरुदास दासगुप्ता कहते हैं, ‘भाजपा सरकार की विदेश नीतियों में खामी है. ये अमेरिका से जाकर दोस्ती कर रहे हैं, जबकि नेपाल के साथ हमारा विरोध चल रहा है. यह गलत नीतियों के ही कारण है. इस समय तो विदेश नीति के मामले में कुछ भी ठीक नहीं है. सरकार जिस तरह की नीति अपनाए हुए है, वह सही नीति नहीं है. चीन और पाकिस्तान दोनों एक नहीं है. पाकिस्तान से हमारे यहां आतंकी आते हैं. लेकिन चीन के साथ ऐसा कुछ नहीं है. उसके साथ कोई द्वंद्व नहीं होना चाहिए. अच्छी दोस्ती होनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है.’

‘ये सुधार की बात करते हैं तो सिर्फ आर्थिक सुधार की बात करते हैं. हमारी पूरी मशीनरी पुरानी हो गई है. नियम-कानून पुराने हो गए. प्रशासनिक सुधार, चुनाव सुधार, पुलिस सुधार, न्यायिक सुधार- ये सब मसले लंबे अरसे से लटके पड़े हैं. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह इन सुधारों की शुरुआत करेगी’ 

वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके पत्रकार अरुण शौरी ने पिछले दिनों एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में मोदी की विदेश नीति पर सवाल उठाते हुए कहा, ‘पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते फिलहाल समझ से बाहर हैं. पाकिस्तान के साथ नरेंद्र मोदी की विदेश नीति न तो संवैधानिक है और न ही तार्किक. पाकिस्तान के पीएम ने अपनी चालबाजी से भारत को अब तक गुमराह किया है. पाकिस्तान ने हालिया दिनों में भारत को केवल मूर्ख बनाने का काम किया. देश के नागरिक से लेकर सेना के जवान तक संतुष्ट नहीं हैं. फिर कौन-से सुशासन की बात हो रही है?’ शौरी ने कहा, ‘अमेरिका के बरक्स देखें तो पता नहीं हम क्या हासिल करने में कामयाब रहे हैं. द्विपक्षीय संबंध आपसी व्यक्तिगत संबंधों के मोहताज नहीं होते. ओबामा ने अफगानिस्तान शांति वार्ता से भारत को अलग करने या फिर पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद पर कोई कार्रवाई न करने को लेकर उंगली तक नहीं उठाई है. पाकिस्तान के मुद्दे पर हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं. कश्मीरी अलगाववादियों के पाकिस्तान के साथ वार्ता करने को लेकर रवैया लचर है. पाकिस्तानी जांचकर्ताओं को पठानकोट एयरबेस का निरीक्षण करने की अनुमति देना मूर्खतापूर्ण फैसला था. चीन के मुद्दे पर ध्यान और गंभीरता की कमी साफ देखी जा सकती है. मोदी को लगता है कि वे चीन को खुश कर सकते हैं लेकिन वर्तमान में चीन पुराने कश्मीर राज्य के 20 प्रतिशत हिस्से पर काबिज है और हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए जब वह कहे कि कश्मीर का मसला द्विपक्षीय नहीं बल्कि त्रिपक्षीय है.’

राजनीतिक विश्लेेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘विदेश नीति के मामले में स्थिति है कि नेपाल हमारा पड़ोसी है और आज उससे हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं. पाकिस्तान से ठंडे-गरम संबंध होते हैं, वह भी आज किसी खास हालत में नहीं है. विदेश नीति के मामले में जब हम अपने पड़ोसियों से भी अच्छे संबंध नहीं रख पाए हैं तो इस मामले में और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? मुझे नहीं लगता कि सरकार ने दो साल में कुछ ऐसा किया है जिस पर गर्व किया जा सके.’

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की सालाना बैठक में भाग लेने अमेरिका गए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने डाउ जोंस ऐंड कंपनी की मैग्जीन ‘मार्केटवॉच’ से एक इंटरव्यू में कहा, ‘मुझे लगता है कि हमें अब भी वह स्थान हासिल करना है जहां हम संतुष्ट हो सकें. हमारे यहां लोकोक्ति है, अंधों में काना राजा. हम थोड़े-बहुत वैसे ही हैं.’ हालांकि, कमजोर वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच आईएमएफ समेत विभिन्न संस्थान भारतीय अर्थव्यवस्था को सराह चुके हैं, लेकिन रघुराम राजन की निगाह में यह फिलहाल ‘अंधों में काना राजा’ जैसी स्थिति में है. राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए कई उल्लेखनीय उपाय जरूर किए हैं. उन्होंने अपने इस इंटरव्यू में कहा, ‘हम उस मोड़ की ओर बढ़ रहे हैं जहां हम अपनी मध्यावधि वृद्धि लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं क्योंकि हालात ठीक हो रहे हैं. निवेश में मजबूती आ रही है. हमारे यहां काफी कुछ व्यापक स्थिरता है. (अर्थव्यवस्था) भले ही हर झटके से अछूती नहीं हो लेकिन बहुत-से झटकों से बची है.’

इस बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ उत्साहजनक तथ्य भी सामने आए हैं जो इसकी मजबूती को लेकर आशा जगाते हैं. चालू खाते और राजकोषीय घाटे का नियंत्रण में आना, वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) का आना, महंगाई 11 से घटकर 5 प्रतिशत से नीचे आना, इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में चल रहे सुधार, दो बैंक खातों में मोबाइल से पैसा ट्रांसफर करने का नया प्लेटफॉर्म शुरू होना आदि चीजें अर्थव्यवस्था को मजबूती देंगी, ऐसे अनुमान लगाए जा रहे हैं. हालांकि, अर्थव्यवस्था के मसले पर सरकार अब तक जितना कुछ कर सकी है, उससे ज्यादा का चुनावी वादा किया गया था. दहाई अंक में वृद्धि दर, दो करोड़ नौकरियां, मनरेगा, आधार जैसी योजनाएं खत्म करने जैसे वादे अधूरे हैं.

अर्थव्यवस्था के बारे में अरुण शौरी का कहना है, ‘पुनरुद्धार के सिर्फ छोटे-मोटे संकेत प्रभावी होते दिखाई दे रहे हैं और ऐसे में सरकार के दावों की जांच होनी चाहिए. निवेश को पुनर्जीवित करने की मुख्य चुनौती पर कोई प्रगति नहीं है. टैक्स सुधार और बैंकिंग सुधार नहीं हो पाए हैं.’ गुरुदास दासगुप्ता कहते हैं, ‘सरकार की आर्थिक नीतियां गलत हैं. आज हिंदुस्तान में नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. महंगाई बढ़ रही है. मजदूर विरोधी काम चल रहा है. कानून बदलकर उसे मजदूरों के खिलाफ किया जा रहा है. किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. यह नीतियों की पूरी तरह विफलता को दिखाता है.’

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अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई उछाल नहीं है. जितनी ग्रोथ रेट दिखाई जा रही है, उतनी ग्रोथ रेट तो 10-12 साल से चल रही है. 2004 से 09 के बीच ग्रोथ रेट इससे भी ज्यादा थी. रोजगार मिलना शुरू नहीं हुआ. बाजार पूरी तरह बंद पड़ा हुआ है. हिंदू में खबर छपी है कि हिंदुस्तान के दस बड़े पूंजीपति अपनी संपत्तियां बेच रहे हैं ताकि अपना कर्ज चुका सकें. जाहिर है कि बिजनेस करके अपना कर्ज चुका सकने की हालत में वे नहीं हैं. इसमें अंबानी ब्रदर्स हैं, अडाणी हैं. ये तो स्थिति है. न तो बाजार को कोई उछाल मिल रहा है. न निवेश में कोई बड़ी पहल हुई है. इन चीजों की जब आलोचना की जाती है तो सरकार कहती है, नहीं, हम अभी तक काम कर रहे थे, अब इसके नतीजे निकलने शुरू होंगे.’

घरेलू मामलों में भारतीय कानून और राज व्यवस्था में बहुत सी खामियां लंबे समय से चिह्नित की जा रही हैं. इन पर समय-समय पर चर्चा होने के साथ सुधारों की बात उठती रही है. नरेंद्र मोदी ने भी वादा किया था कि वे पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को रद्द करके सुधारों का रास्ता साफ करेंगे. लेकिन कानून बनाने के मसले पर अब तक सरकार कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई है. लोकसभा में सरकार मजबूत है, लेकिन राज्यसभा में सरकार बहुमत में नहीं है. ज्यादातर कानूनी मसलों पर सर्वदलीय आम राय कायम न हो पाने के कारण ज्यादातर कानून या तो पेश ही नहीं हो सके हैं, या फिर वे पास नहीं हो सके. नई सरकार के मुकाबले यूपीए सरकार को याद करें तो उसने देश को सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, आधार, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार जैसे कानून दिए थे जो आम जनता, खासकर गरीबों के लिए मील का पत्थर हैं. जबकि मोदी सरकार की जो भी योजनाएं या कानून अब तक सामने आए हैं वे जनपक्षीय होने की जगह पूंजीपरस्त दिखते हैं. मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप और स्वच्छ भारत अभियान आदि सरकारी स्तर के नारे हैं जिनसे गरीब जनता को फिलहाल तो कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है. अभी यह भी देखने में नहीं आया है कि सरकार आम जनता या गरीबों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने जा रही हो.

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तो उससे उम्मीद यह थी कि जो बहुत सारे सुधार तीस-चालीस साल से लटके पड़े हैं, उन्हें सरकार पूरा करेगी. ये सुधार की बात करते हैं तो सिर्फ आर्थिक सुधार की बात करते हैं. हमारी पूरी मशीनरी पुरानी हो गई है. नियम-कानून पुराने हो गए. प्रशासनिक सुधार नहीं हुए हैं, चुनाव सुधार नहीं हुए हैं, पुलिस सुधार नहीं हुए हैं, न्यायिक सुधार नहीं हुए हैं. ये सब मसले लंबे अरसे से लटके पड़े हैं. मोदी बस औद्योगिक सुधार की बात करते हैं, लेकिन शासन चलाने के लिए तो ये सारे सुधार भी होने चाहिए. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह इन सुधारों की शुरुआत करेगी. पहले ब्लू प्रिंट तैयारी करेगी, उसके बाद शुरुआत होगी तो दस-बारह साल लगेंगे. लेकिन मोदी सरकार ने इन सारे सुधारों को लेकर अब तक कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया है.’

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रचार करते समय नरेंद्र मोदी मंचों से कहते थे कि देश के संसाधन पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद 13 राज्यों में सूखा पड़ा तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा कि लोगों को मरता हुआ नहीं छोड़ सकते. पिछले दो साल में किसान आत्महत्याओं के आंकड़े और बढ़े हैं. कृषि और आर्थिक मामलों के जानकार देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि सरकार कृषि के बारे में शायद भूल ही गई है. अक्सर देखा गया है कि चुनाव के पहले सरकारें किसानों की बात करती हैं और सत्ता में आने के बाद सिर्फ कॉरपोरेट की बात करती हैं. कृषि की हालत बेहद दयनीय है. शुक्रिया सुप्रीम कोर्ट का कि उसने फटकार लगाई तो सरकार को इस बात का एहसास हुआ कि सूखा पड़ा हुआ है. 2014 में किसानों की आत्महत्या की रोजाना की एवरेज 42 आ रही थी. 2015 में यह बढ़कर 52 हो गई.’

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देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘किसानों की समस्या उत्पादन या पानी नहीं है, समस्या आय की है. किसान की आय हमने जानबूझकर ऐसी रखी है कि उसे तो मरना ही मरना है. किसान आत्महत्या के मामले में पंजाब महाराष्ट्र से आगे निकल रहा है. इसका कारण यह है कि आपने किसान को आमदनी नहीं दी. पंजाब में खेती से जो किसान की वास्तविक आय है वह एक हेक्टेयर पर तीन हजार रुपये है. चपरासी की जो बेसिक सैलरी है वह 18 हजार रुपये है, जिसे सरकार 21 हजार करने जा रही है. इसको कोई एड्रेस नहीं करना चाहता.’ अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘कुछ योजनाओं की केवल घोषणाएं हुई हैं, कोई परिणाम नहीं आया है. जन-धन योजना मोदी की पहली योजना थी. आज तक उसकी व्यवस्थित समीक्षा सामने नहीं आई है कि कितने खाते खुले और लोग उनका कैसे इस्तेमाल कर रहे हैं. क्या जमीन पर उसका कोई लाभ हुआ है? मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्किल इंडिया, ये सब सुनने में बहुत अच्छी योजनाएं हैं. मोदी की प्रवृत्ति के बारे में उनके गुरु लालकृष्ण आडवाणी, जो बाद में उनके प्रतिद्वंद्वी हो गए, ने कहा था कि नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे इवेंट मैनेजर हैं.  मेरा कहना है कि अभी तक के दो वर्ष तो इवेंट मैनेजमेंट और रीपैकेजिंग में गुजर गए. इस इवेंट मैनेजमेंट का नतीजा क्या निकलेगा, ये देखने की बात होगी.’

गांवों के विकास के सवाल पर सीपीआई के महासचिव अतुल अनजान कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने कहा कि हर सांसद एक गांव को गोद लेगा. सात लाख गांवों में से सात सौ गांव गोद लेने वाली इस अनोखी योजना का यह हाल है कि उनके अपने ही ज्यादातर सांसदों ने कोई गांव गोद नहीं लिया. जिस गांव को मोदी जी ने गोद लिया था, वहीं उनका उम्मीदवार स्थानीय चुनाव हार गया. राजनाथ और कलराज के गांव में यही हाल हुआ. लोकसभा के सिर्फ 44 सांसदों ने गांव गोद लिया और राज्यसभा के 8 सांसदों ने, बाकी ने नहीं लिया. उनके अपने ही सांसद उनकी बात नहीं सुन रहे. इसलिए कह रहा हूं कि दो साल का कार्यकाल तो पूरी तरह असफलता का काल है.’

आॅल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के चेयरमैन शैलेंद्र दुबे कहते हैं, ‘नई सरकार से आकांक्षाएं बहुत ज्यादा थीं. लेकिन दो साल में यह हालत हुई है 2008 कि मंदी के समय जितना रोजगार पैदा हुआ था, उससे कम रोजगार इनके समय में पैदा हुआ है. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार पहले जैसा बना हुआ है. श्रम कानूनों में जितने भी संशोधन हो रहे हैं वे मजदूरों के विरोध में हैं. सरकार की नीति से पावर सेक्टर में आठ लाख करोड़ का नुकसान हुआ है. 3.8 लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ है और 4.3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज हो चुका है. इसकी दो वजहें हैं. पहली- महंगी बिजली खरीदकर उपभोक्ताओं को दी जा रही है. महंगी बिजली खरीद का कारण है कि बिजली की खरीद केवल प्राइवेट सेक्टर से की जा रही है, जिससे महंगी बिजली खरीदी जा रही है. ऊर्जा नीति में संतुलन नहीं है. दूसरे, बिजली को राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. किसानों के साथ कुछ सेक्टरों में फ्री देने और बिजली चोरी को राजनीतिक संरक्षण, ये घाटे के बड़े कारण हैं. इस पर कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण यह घाटा हुआ है. क्रोनी कैपिटलिज्म तो वैसे ही बना हुआ है. चुनिंदा औद्योगिक घराने अंबानी और अडाणी को फायदा पहुंचाया जा रहा है.’

गंगा को साफ-सुथरा करने के लिए ‘नमामि गंगे’ मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है. हालांकि, गंगा की सफाई के प्रयास पिछले तीस वर्षों से जारी हैं और अब तक कोई नतीजा सामने नहीं आया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, 40 प्रमुख नदियों में से 35 बुरी तरह प्रदूषित हैं, जिनका पानी पीने लायक बिल्कुल नहीं है. कुछ समय पहले गंगा सफाई मसले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मौजूदा कार्ययोजनाओं से लगता नहीं कि गंगा 200 वर्षों में भी साफ हो पाएगी. ‘नमामि गंगे’ योजना पर वर्ष 2014-15 में 324.88 लाख रुपये खर्च किए गए और अगले पांच साल के लिए 20 हजार करोड़ रुपये स्वीकृत हुए. हालांकि अभी तक ‘नमामि गंगे’ अभियान अपने शुरुआती चरण में भी नहीं पहुंचा है.

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भारत की युवा आबादी के लिहाज से शिक्षा का क्षेत्र बेहद अहम है जो कि पिछले दो साल से लगातार विवादों में है. लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में टकराव और उथल-पुथल का माहौल रहा. जेएनयू, हैदराबाद, बीएचयू, इलाहाबाद, एनआईटी कश्मीर और जादवपुर विश्वविद्यालयों में संघ-भाजपा समर्थकों और बाकी दलों या विचारधाराओं के छात्रों के बीच जबरदस्त टकराव की स्थितियां पैदा हुईं. इसके उलट शिक्षा के क्षेत्र में अब तक कोई उल्लेखनीय पहलकदमी नहीं हुई है. यूपीएससी के पूर्व सदस्य प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘जहां तक मुझे याद पड़ता है, शैक्षिक नीतियों में औपचारिक रूप से कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं है. उच्च शिक्षा की नीति कागज पर तो वही है जो कपिल सिब्बल के समय थी. अब सवाल ये है कि आप किस तरह के लोगों को नियुक्त कर रहे हैं. किस तरह का वातावरण विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के कामकाज में बनाया है. अब खबरें आ रही हैं कि इलाहाबाद के कुलपति ने असंतोष प्रकट किया है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का हस्तक्षेप बहुत बढ़ रहा है. ये गंभीर समस्याएं हैं. स्कूली शिक्षा समवर्ती सूची में है तो केंद्र और राज्य दोनों की ओर से कोई महत्वपूर्ण पहल नहीं हो रही है. जहां तक मुझे याद है कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुए हैं, लेकिन दोनों बजटों में शिक्षा का बजट कम कर दिया गया. एक तरफ शिक्षा बढ़ानी है दूसरी तरफ बजट में कटौती की जा रही है.’

‘जहां तक मुझे याद पड़ता है, शैक्षिक नीतियों में औपचारिक रूप से कोई बुनियादी बदलाव तो आया नहीं है. उच्च शिक्षा की नीति कागज पर तो वही है जो कपिल सिब्बल के समय थी. सवाल ये है कि आप किस तरह के लोगों को नियुक्त कर रहे हैं. किस तरह का वातावरण विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के कामकाज में बनाया है’

भाजपा के सत्ता में आने के बाद उसके कई सांसदों और नेताओं के विवादित बयान लगातार सियासी माहौल को सांप्रदायिक रंग भी देते हैं. लव जिहाद, राम मंदिर, बीफ, गोहत्या, राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्र आदि मसले इस पूरे दो साल के कार्यकाल में हमेशा न सिर्फ चर्चा में रहे हैं, बल्कि इन्हें लेकर कई जगह उपद्रव की स्थितियां बनीं. प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में इस पर कड़ा बयान देकर अपने नेताओें को सलाह भी दी थी कि ‘इस तरह की अनाप-शनाप बयानबाजी बंद होनी चाहिए’ लेकिन शायद हिंदूवादी अभियान चलाने वाले उनके सहयोगियों ने कोई सबक नहीं सीखा. केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति, सांसद योगी आदित्यनाथ, सांसद साक्षी महाराज, विश्व हिंदू परिषद की नेता साध्वी प्राची, संगीत सोम आदि नेताओें की लगातार सांप्रदायिक बयानबाजी पर रोक न लगाना भी सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करता है. दादरी में अखलाक की हत्या के बाद शुरू हुई असहिष्णुता के विवाद ने सरकार की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फजीहत करवाई. कथित तौर पर कट्टरपंथी हिंदू संगठनों द्वारा तीन लेखकों की हत्या से गुस्साए लेखक खुलकर सरकार के विरोध में आए तो यह मसला व्यापक स्तर पर उठा. हालांकि, असहिष्णुता की बहस को सरकार ने राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह ठहराने का प्रयास किया. इतिहासकार एस इरफान हबीब कहते हैं, ‘आज जो संघ का राष्ट्रवाद है वह धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव करता है. जो उनके इस मानदंड को पूरा करता है वह राष्ट्रवादी है और जो नहीं कर पाता है उसे यह राष्ट्रवादी मानने से इनकार कर देते हैं. चूंकि पहली बार उनकी सरकार बनी है, तो अब इसे पूरे देश में लागू करने की कोशिश की जा रही है.’ पुरुषोत्तम अग्रवाल चिंता जताते हैं, ‘देश में यह पहली बार है जब बोलना, लिखना या असहमति जताना गुनाह हो गया है. इस लिहाज से यह संकट का समय है.’ अरुण शौरी अपने इंटरव्यू में कहते हैं, ‘मुझे इस बात का डर है कि मोदी के नेतृत्व में सरकार जिस दिशा में कदम बढ़ा रही है वह भारत के लिए अच्छा नहीं है. इशारों में धमकियां देने का दौर चल रहा है. नागरिक स्वतंत्रता पर लगाम लगाने के क्रम में और अधिक व्यवस्थित प्रयास भी किए जाएंगे.’