
तीस साल बाद केंद्र में प्रचंड बहुमत से आई मोदी सरकार अपने दो साल पूरे कर रही है. निजी तौर पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता की दौड़ में अपने प्रतिद्वंद्वी गठबंधन यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस) को काफी पीछे छोड़ते हुए एनडीए (नेशनल डेेमोक्रेटिक एलायंस) को जबरदस्त बढ़त दिलाई और प्रधानमंत्री बने. यह पहली बार था जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले ही सरकार बनाने के लिए जितना जरूरी है, उससे ज्यादा बहुमत हासिल किया. लोकसभा चुनाव 2014 के लिए जब चुनाव प्रचार खत्म हुआ, तब पार्टी ने दावा किया कि नरेंद्र मोदी ने अब तक तीन लाख किलोमीटर से अधिक यात्राएं कीं और परंपरागत व नए तरीकों से करीब 5,827 कार्यक्रमों में शिरकत की. मोदी ने कुल 437 जनसभाओं को संबोधित किया. उन्होंने प्रचार का नया तरीका अपनाते हुए 1,350 3डी रैलियां कीं. यह भारत के चुनावी इतिहास का सबसे बड़ा प्रचार अभियान था. भाजपा को इसका फायदा भी मिला. भाजपा ने अकेले 543 लोकसभा सीटों में से 282 सीटें जीत लीं और एनडीए गठबंधन को कुल 336 सीटें मिलीं. इसके उलट सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को महज 44 सीटें मिलीं और यूपीए गठबंधन को कुल 60 सीटें मिलीं.
‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने, तो थोड़ा समय लेकर खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे. केंद्र सरकार अभी तक उसी स्टेज में है, वादन से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं’
नरेंद्र मोदी ने देश भर में गुजरात मॉडल लागू करने, आर्थिक उदारीकरण को तेज करने, अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे ले जाने, किसानों और गरीबों का विकास करने, भारत की युवाशक्ति को वैश्विक स्तर पर ले जाने जैसे लोकलुभावन वादे किए. चुनावी वादों से जगी उम्मीद और नरेंद्र मोदी के प्रभावी व्यक्तित्व ने उन्हें ऐतिहासिक बढ़त दिलाई. अब जब नरेंद्र मोदी सरकार दो साल पूरे कर रही है, एक मजबूत सरकार और मजबूत प्रधानमंत्री का सिलसिलेवार आकलन भी किया जाना चाहिए.
हाल ही में आए सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के सर्वे में कहा गया कि 70 फीसदी लोग नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं, जबकि इसके उलट 49 फीसदी लोग मोदी के कामकाज से खुश नहीं हैं. यानी मोदी अब भी सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. लगभग हर जनमत सर्वेक्षण में मोदी की लोकप्रियता कायम है. फिलहाल किसी पार्टी का कोई नेता उन्हें चुनौती देता नहीं दिखता. इसके उलट कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता अपने सबसे निचले स्तर पर है. परिवारवाद और यूपीए-दो के समय हुए भ्रष्टाचार का ठप्पा कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है, तो दूसरी तरफ राहुल गांधी और सोनिया गांधी का व्यक्तित्व वह करिश्मा नहीं कर पा रहा है जो मोदी का मुकाबला करने के लिए जरूरी है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी केंद्र के दावेदारों में गिना जाता है लेकिन उनके पास मोदी जितना बड़ा तंत्र और संसाधन फिलहाल नहीं हैं.
हालांकि, मोदी की इस लोकप्रियता के बीच ही उनकी पार्टी को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा. लेकिन केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद पार्टी ने हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में सरकार भी बनाई. जबकि भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी राज्य में चुनाव जीत सकने में कामयाब नहीं हो सकी है.
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अतुल अनजान
महासचिव, सीपीआई
मोदी सरकार के दो साल आशाओं से भरे थे लेकिन जनता निराशाओं के घटाटोप अंधेरे में पहुंच गई. अच्छे दिन आने का मतलब अगर ये है कि हम 200 रुपये किलो दाल छह महीने से खाते रहे, तो बुरे दिनों की कल्पना करना ही दु:स्वप्न है. दो करोड़ लोगों को काम दिलाने का वादा करके देश की 65 प्रतिशत युवा आबादी का वोट लिया लेकिन 2015 के आंकड़े कहते हैं कि एक लाख चौदह हजार नौकरियां ही बन पाईं. सर्विस सेक्टर के अंदर जो नौकरियां बनीं वो सिर्फ हायर और फायर की हैं.
सरकार पीने का पानी नहीं दिला सकी लोगों को, डॉक्टरों ने कहा कि आपका पानी जहरीला है, इसलिए सबको कहा कि आरओ का पानी पीजिए. 18 हजार रुपये का आरओ मध्यवर्ग के घर-घर में पहुंचवा दिया गया. निम्न मध्यवर्ग से भी कह रहे हैं कि घर में आरओ जरूर लगवाओ. फिर नौजवानों से कहा कि आरओ लगाने से काम मिलेगा. तीन से ज्यादा कोई आदमी आरओ लगा नहीं सकता. एक आरओ लगाने का 150 रुपये मिलता है. एक युवा दिन में तीन आरओ लगाता है तो एक लीटर पेट्रोल भी जलाता है. यही रोजगार पैदा हुआ, कोई स्थायी रोजगार नहीं है. यह हायर ऐंड फायर का रोजगार है. सवाल यह है कि उस दो करोड़ रोजगार का क्या हुआ.
सितंबर 2014 में सरकार ने बताया था कि हमारा हस्तकला से निर्यात 29 बिलियन डॉलर का है. 2015 में वह 29 बिलियन डॉलर से घटकर 22 बिलियन डॉलर का हो गया. इसका क्या अर्थ है? भारत की अर्थव्यवस्था तब आगे बढ़ेगी जब हमारा निर्यात बढ़ता है. अगर हमारा आयात बढ़ता है तो उसका अर्थ है कि रोजगार के साधन घटते हैं. जो बाहरी फैक्टरियां लाकर आप लगा रहे हैं, वे तो हाइली स्किल्ड हैं. उसमें तो जरूरत ही नहीं है आदमी की. ये निर्यात जो घट गया, इसका मतलब है कि लघु और मझोले उद्योग बंद हो गए हैं. हस्तकला उद्योग खत्म हो गया. राजस्थान में लाख की चूड़ियों का कारोबार खत्म हो गया. मुरादाबाद में बर्तन पर नक्काशी का काम खत्म हो गया क्योंकि इसका निर्यात बंद हो गया. हजारों-हजार परिवार खत्म हो गए.
मनमोहन और मोदी दोनों की अर्थनीति एक ही है. मोदी की अर्थनीति के पितामह तो डॉ. मनमोहन सिंह ही हैं. सारा झगड़ा कमीशन का पैसा खाने को लेकर है. मोदी ने कहा था कि सौ दिन में काला धन लाएंगे, जन-धन योजना के तहत सबका खाता खुलवा दिया. बोले 15 लाख मिलेंगे. अब लोगों को यूनियन बनाकर प्रधानमंत्री के वादों का हिसाब मांगना चाहिए. दो वर्षों में मोदी ने साबित किया कि वे कॉरपोरेट घरानों के अभिन्न मित्र हैं. गरीब लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है. चोरबाजारी, कालाबाजारी, वायदा कारोबार करने वालों के साथ वे पहले भी थे, जिन्होंने उनके चुनाव की फंडिंग की, वे उनके साथ अब भी हैं. ये प्रतिबद्धता भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखी गई.
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केंद्र सरकार के दावों और मोदी के भाषणों में देश की विकास गति काफी उत्साहजनक है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सरकार के कामकाज को अभी जमीन पर उतरना बाकी है. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘जब कोई सितारवादक बैठता है सितार बजाने के लिए, तो थोड़ा समय लेता है, खूंटियां वगैरह कसता है. तबलावादक बैठता है तो तबले को ठीक करता है. यह समय बहुत थोड़ा होना चाहिए वरना दर्शक उकता जाएंगे अगर वह तबला ही ठीक करता रहेगा. केंद्र सरकार अब तक उसी स्टेज में है, वादन शुरू करने से पहले की ही स्टेज में. अभी तक उपलब्धियां सामने नहीं आ पाई हैं. बहुत सारी योजनाओं की घोषणा हुई है. दावे बहुत हैं. लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि कहा जा सके कि यह है दो साल के कामकाज का ठोस परिणाम. दावा तो यह था कि ठोस परिणाम मिलेगा. अब दो साल हो चुके हैं. लोग इंतजार कर रहे हैं, देखिए कब तक करते हैं. अभी तक किसी भी काम का कोई ठोस परिणाम नहीं मिला है. ये नहीं कहा जा सकता कि ये-ये नतीजे मिल गए हैं और जनता को इसका लाभ मिलना शुरू हो गया है.’
पठानकोट हमले पर आई संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है. देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कीं. अमेरिका वे कई बार गए. कथित तौर पर बिना किसी पूर्व योजना के पाकिस्तान भी पहुंच गए. ओबामा के रात्रिभोज में नवरात्र व्रत के साथ शामिल होने का इतिहास रचा तो ब्रिटेन की महारानी के साथ भोजन कर आए. हर देश में उनकी चर्चित सभाएं हुईं, जहां प्रवासी भारतीयों ने उनकी जय-जयकार भी की. इस दौरान वे स्थायी भाव के साथ कांग्रेस के 65 साला शासन की खूब आलोचना भी करते रहे. इन विदेश यात्राओं के दौरान भाजपा और मोदी सरकार ने इसे ‘न भूतो न भविष्यति’ के अंदाज में पेश किया कि हम दुनिया में भारत की नई पहचान बना रहे हैं. शुरुआती दौर में ऐसा माना भी गया कि मोदी के ताबड़तोड़ दौरों और विदेशों में बड़ी-बड़ी भारतीय सभाओं का अपना खास मतलब हो सकता है. चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूलना या अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए प्रेमपूर्वक संबोधन ‘बराक’ भी खासा चर्चित रहा. नवाज शरीफ के घरेलू कार्यक्रम में मोदी की शिरकत से एक दफा कोई भी सोच सकता था कि अब पाकिस्तान से भारत के रिश्ते बेहद मधुर होने वाले हैं.
सरकार के सौ दिन पूरे होने के बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मीडिया के सामने आईं और विदेश नीति पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा, ‘कूटनीति और विदेश नीति एक-दूसरे का पर्याय नहीं हैं. विदेश नीति अक्सर वही रहती है, लेकिन काम करने का तरीका बदलता है.’ मोदी की नई विदेश नीति को ‘फास्ट ट्रैक डिप्लोमेसी’ का नाम दिया गया. नरेंद्र मोदी पुरानी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ को अहमियत देते हुए पहली यात्रा पर भूटान गए. उसके बाद नेपाल और जापान की यात्रा की. उन्होंने कुछ ऐसे भी देशाें की यात्रा की जहां अभी तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री गया ही नहीं था, या दशकों पहले गया था. मोदी ने इजराइल की यात्रा की जहां अब तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. उन्होंने आयरलैंड की यात्रा की जहां पिछले 60 साल से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बांग्लादेश, म्यांमार, वियतनाम, सिंगापुर आदि देशों की यात्राएं कीं. इन सब देशों के साथ पाकिस्तान का मसला मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा.
‘अमेरिका के बरक्स देखें तो पता नहीं हम क्या हासिल करने में कामयाब रहे हैं. द्विपक्षीय संबंध आपसी व्यक्तिगत संबंधों के मोहताज नहीं होते. ओबामा ने पाकिस्तान द्वारा जैश-ए-मोहम्मद पर कोई कार्रवाई न करने को लेकर उंगली तक नहीं उठाई है. पाकिस्तान के मुद्दे पर हम खुद को मूर्ख बना रहे हैं’
लेकिन इन सब विदेश यात्राओं के चलते अब तक कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज नहीं की जा सकी है. भारत सरकार द्वारा विदेश में फंसे भारतीय नागरिकों को बचाने के लिए चलाए गए अभियान जरूर सफल रहे. युद्ध और आंतरिक संकट से जूझ रहे यमन में फंसे भारतीयों को बचाने के लिए भारत सरकार ने आॅपरेशन राहत चलाया था. अप्रैल 2015 में सफलतापूर्वक खत्म हुए इस अभियान में 5,600 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाला गया. इनमें 4,640 भारतीय नागरिक थे, बाकी 41 देशों के 960 विदेशी नागरिकों को भी भारतीय सैनिकों ने बचाया. युद्धग्रस्त यमन में बड़ी संख्या में भारतीय नर्सें और नागरिक फंसे हुए थे. यह किसी दूसरे देश में चलाया गया अब तक का सबसे बड़ा बचाव अभियान था. विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह की अगुवाई में चले इस अभियान में भारतीय नौसेना, वायुसेना, एयर इंडिया और भारतीय रेल शामिल थीं. इस अभियान की सफलता के चलते सरकार को खूब तारीफ मिली.
मोदी की अप्रत्याशित पाकिस्तान यात्रा के बीच अमेरिका ने पाकिस्तान की सामरिक मदद की और भारत की ओर से एक औपचारिक नाराजगी का प्रदर्शन भर हो सका. नेपाल जैसा देश, जो भारत का अनन्य पड़ोसी है, जो भारत चीन के बीच ‘बफर स्टेट’ की भूमिका निभाता रहा है, उससे रिश्ते बिगड़ गए. हालांकि, मोदी सरकार आम लोगों के बीच यह प्रचारित कर रही है कि उनकी सरकार की विदेश नीति काफी उम्दा है, लेकिन विशेषज्ञों की राय इसके उलट है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसे विदेश नीति की कामयाबी के तौर पर नहीं देखा जा सकता कि विदेशों में बहुत-से लोग मोदी को सुनने आते हैं. नेपाल से संबंध खराब होने, नेपाल की चीन से नजदीकी बढ़ने, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों से संबंधों में उल्लेखनीय सुधार न होने जैसे तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता. विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की नीति समझ में न आने वाली है. कई बार बातचीत होना, फिर टूटना, आतंकवाद के मुकदमों का आगे न बढ़ना और एक-दूसरे पर दोषारोपण करते जाना दोनों देशों की नीतिगत अगंभीरता को दिखाता है.
‘भाजपा सरकार की विदेश नीति में खामी है. ये अमेरिका से जाकर दोस्ती कर रहे हैं, जबकि नेपाल के साथ हमारा विरोध चल रहा है. यह गलत नीति के ही कारण है. इस समय तो विदेश नीति के मामले में कुछ भी ठीक नहीं है. भाजपा सरकार जिस तरह की नीति अपनाए हुए है, वह सही नहीं है’
मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकातों, दोनों के बीच साड़ी-शॉल आदि के आदान-प्रदान और शरीफ की मां से मोदी के मिलने जाने की खूब चर्चा हुई. इस सबके बावजूद अगस्त में प्रस्तावित विदेश सचिवों की वार्ता से ठीक पहले पाकिस्तान के हाई कमिश्नर ने कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत की और नतीजतन भारत सरकार ने 25 अगस्त की वार्ता रद्द कर दी.
पठानकोट हमले के मामले में पाकिस्तान एक तरफ जांच का दिखावा करता रहा और दूसरी तरफ वह जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ाने को लेकर अगंभीर भी बना रहा. इधर भारत की ओर से पाकिस्तानी जांच टीम को पठानकोट बेस तक ले जाया गया. यह एक रणनीतिक रूप से एक भारी चूक थी. पठानकोट हमला, पाकिस्तानी जांच टीम बुलाकर जांच करवाना, जांच टीम के लौटने के बाद पाकिस्तान का वार्ता से इनकार करना, ये सभी घटनाएं सरकार की विफलताओं में दर्ज हुईं. इस उठापटक के बीच सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं वैसी ही हो रही हैं, जैसे पिछले वर्षों में होती रही हैं.
पठानकोट हमले पर हाल ही में आई संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लचर सुरक्षा व्यवस्था पर चिंता जताते हुए कहा गया कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था अभी भी ठीक नहीं है. समिति ने कहा कि देश में आतंकरोधी गतिविधि में लगे सुरक्षा तंत्र में गंभीर खामी है. एसपी सलविंदर सिंह से एक बार फिर पूछताछ की जरूरत बताते हुए समिति ने कहा कि भारत की कोई काउंटर टेरर पॉलिसी नहीं है. सटीक जानकारी होने के बावजूद पठानकोट पर हमला नहीं रोका जा सका. इस हमले में पंजाब पुलिस की भूमिका की जांच होनी चाहिए. समिति के प्रमुख प्रदीप भट्टाचार्य ने बयान दिया कि पठानकोट में सुरक्षा-व्यवस्था खराब थी, एसपी पठानकोट की गतिविधि संदिग्ध थी, उनसे सवाल-जवाब ठीक से नहीं हुए. समिति ने गृह मंत्रालय को कठघरे में खड़ा करते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि बीएसएफ ने बेशक बॉर्डर में कंटीले तार लगाए हों लेकिन आतंकवादी अंदर घुसने में कामयाब हुए. समिति ने एयरबेस की सुरक्षा को लेकर भी कई अहम सवाल खड़े किए हैं. 31 सदस्यीय समिति ने यह सवाल भी उठाया है कि जब पठानकोट हमले में पाकिस्तानी एजेंसियों की भूमिका थी तो पाकिस्तानी जांच समिति को भारत क्यों आने दिया गया. समिति का कहना है कि मंत्रालय के ज्यादातर काम कागजों में सिमटे रहते हैं, जमीनी स्तर पर नहीं दिखते. इसे बदलने की जरूरत है. यह हमला दो जनवरी को हुआ था जिसमें सेना के सात जवान शहीद हुए थे. भारत ने इसके लिए आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद को जिम्मेदार ठहराया था. भारत का कहना है कि जैश प्रमुख मौलाना मसूद अजहर इस हमले का मास्टरमाइंड था.
‘सरकार की आर्थिक नीतियां गलत हैं. आज हिंदुस्तान में नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं. महंगाई बढ़ रही है. मजदूर विरोधी काम चल रहा है. कानून बदलकर उसे मजदूरों के खिलाफ किया जा रहा है. किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. यह नीतियों की पूरी तरह विफलता को दिखाता है.’
चीन के साथ संबंधों में भी कोई उल्लेखनीय सुधार देखने को नहीं मिला है. संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर को आतंकी घोषित करवाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने वीटो कर दिया. विदेश नीति के मामले में यह एक कमजोर कड़ी थी. इसके जवाब में भारत ने उइगर नेता डोल्कन ईसा को वीजा दे दिया और बाद में रद्द भी कर दिया. यह शायद चीन को एक संदेश देने की कोशिश थी. डोल्कन ईसा को चीन ने आतंकवादी घोषित किया है और उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी किया है. ईसा लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं लेकिन वे चीनी सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं. वे जर्मनी में निर्वासित जीवन जी रहे हैं. चीन का आरोप है कि इस्लाम को मानने वाले उइगर समुदाय के लोग शिनजियांग प्रांत में जो आंदोलन करते हैं उसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी गुटों से मदद मिलती है. चूंकि डोल्कन ईसा उइगरों के नेता हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से चीन के दुश्मन हुए. चीन की नाराजगी की चिंता न करके डोल्कन ईसा को भारत आने देना शायद ज्यादा मजबूत संदेश होता, लेकिन अंतत: उन्हें नहीं आने दिया गया. उनको वीजा देने या बाद में रद्द कर देने से कोई फर्क पड़ने के संकेत अब तक तो नहीं दिखे. यह जरूर स्थापित हुआ है कि शांतिपूर्ण लड़ाई लड़ने वाले डोल्कन ईसा चीन की नजर में आतंकवादी हैं, लेकिन कंधार कांड का कारण बना मसूद अजहर, जिस पर मुंबई हमलों और पठानकोट हमले की साजिश रचने का आरोप है, वह आतंकवादी नहीं है. फिलहाल उसकी इस मान्यता में भारत कोई अड़चन खड़ी नहीं कर पाया है.
अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘डोल्कन के मामले में भारत सरकार ने जिस तरह के डावांडोल रवैये का परिचय दिया, उसका उसकी विदेश नीति और खास तौर पर चीन नीति पर खासा असर पड़ेगा. डोल्कन को वीजा देने का भारत सरकार का फैसला इन मायनों में चौंकाने वाला था, क्योंकि अतीत में ऐसा कदम नहीं उठाया गया था. भारत ने डोल्कन को वीजा देने का फैसला तब लिया था जब चीन ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने के भारत के आग्रह के खिलाफ वीटो कर दिया था. चीन ने ऐसा पाकिस्तान के प्रति दोस्ती निभाने के लिए किया है. डोल्कन को वीजा देने का फैसला सही था. लेकिन डोल्कन का वीजा रद्द करने के मामले में अधिकृत रूप से अभी तक कुछ भी नहीं कहा गया है. सरकार इस मामले में जो भी सफाई दे, आम धारणा तो यही बनेगी कि वह चीन के सामने झुक गई और राजनीति व कूटनीति में आम राय का सर्वाधिक महत्व होता है.’