
स्लम में रहने वालों को शंघाई में बसाने के सपने दिखाना भारत में कोई नई बात नहीं है. इन सपनों को संज्ञा दी जाती है विकास की. विकास के नाम पर देश में कई योजनाएं आईं, राजनीतिक नेतृत्व ने कई वादे किए. कभी पटना को पट्टाया बनाने की बात चली तो कभी जयपुर को सिंगापुर की तर्ज पर विकसित करने की. इसी कड़ी का ताजा सब्जबाग स्मार्ट सिटी परियोजना है, जहां विकास की अपार संभावनाएं खुद में समेटे शहरों का चयन करके उन्हें स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा. लेकिन यहां हम बात करने जा रहे हैं ऐसी ही एक अन्य परियोजना की, जिसमें विकास के दावे बढ़-चढ़कर किए गए थे, एक ऐसे शहर की जिसमें विकास की अपार संभावनाएं देखी गई थीं और उस शहर के लोगों के उन सपनों की जो उन्होंने भविष्य के लिए पाल रखे थे. स्मार्ट सिटी की तरह उस परियोजना में भी शहरों का चयन किया गया था, बस अंतर इतना था कि वह परियोजना शहरों के अंदर खाली जगह में नए शहर बनाने की बात करती थी.
तीन दशक पहले 1985 में जब देश की राजधानी दिल्ली से आबादी का दबाव कम करने की योजना बनी तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की अवधारणा ने जन्म लिया. 1989 में राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र योजना बोर्ड (एनसीआरपीबी) ने अपनी क्षेत्रीय योजना 2001 के तहत दिल्ली से 400 किलोमीटर के दायरे में पांच राज्यों के पांच शहरों को चिह्नित किया. ये वे शहर थे जो सामरिक, धार्मिक और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नहीं थे और अपने अंदर विकास की अपार संभावनाएं समेटे हुए थे. इन शहरों से लगी खाली जमीन पर नए शहर बसाने की योजना बनाई गई. प्रस्तावना थी कि इन शहरों में शिक्षा के लिए बड़े शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय हों, रोजगार के लिए उद्योग-धंधों के साथ-साथ विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) का विकास करके वहां बड़ा निवेश लाया जाए, उच्चस्तरीय यातायात सुविधाएं हों और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की तर्ज पर इन शहरों का विकास हो ताकि इन शहरों के आसपास से दिल्ली पलायन करने वाली आबादी को वहीं रोका जा सके और दिल्ली को भविष्य में पड़ने वाले जनसंख्या के भारी दबाव से बचाया जा सके. मध्य प्रदेश से ग्वालियर, हरियाणा से हिसार, राजस्थान से कोटा, पंजाब से पटियाला और उत्तर प्रदेश से बरेली को चुना गया.
ग्वालियर को इन शहरों में विशेष रूप से तरजीह दी गई. कारण- एक तो ग्वालियर की भौगोलिक स्थिति और यहां राष्ट्रीय महत्व के कई संस्थानों का होना और दूसरा दिग्गज कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का ग्वालियर से जुड़ाव. इस पूरी कवायद को ‘काउंटर मैग्नेट सिटी परियोजना’ नाम दिया गया. उस समय इस सरकारी कवायद को लेकर ग्वालियरवासियों में कुछ-कुछ वैसा ही उत्साह था जैसा वर्तमान में स्मार्ट सिटी को लेकर है.
‘1992 से 2003 तक का समय तो आप निकाल दीजिए. फंड की कोई व्यवस्था नहीं थी. 1993 में भाजपा की जगह कांग्रेस सरकार आ गई. कांग्रेस के समय कोई काम नहीं हुआ. 2003 में जब भाजपा सरकार आई तब काम शुरू हुआ’
1992 में मध्य प्रदेश सरकार ने विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण (साडा) का गठन किया और उसे काउंटर मैग्नेट सिटी के सपने को साकार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. जल्द ही ग्वालियर के पश्चिमी क्षेत्र में 30,000 हेक्टेयर भूमि चिह्नित कर ली गई, जहां नए शहर का विकास करना था. इसमें वनक्षेत्र, कृषि भूमि और सरकारी भूमि शामिल थे. प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने जोर-शोर से योजना का शुभारंभ किया. लोगों ने भी वहां जमीन खरीदने में रुचि दिखाई और किसानों ने भी नए शहर के विकास की राह में बाधक न बनते हुए स्वेच्छा से अपनी जमीन साडा को सौंप दी. राजेश बाबू ने भी इसी काउंटर मैग्नेट सिटी में जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था. इस आधुनिक शहर में रहने का सपना संजाेने वाले राजेश बाबू बताते हैं, ‘नए शहर में होटल, मॉल, रिसॉर्ट, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थानों के साथ-साथ गोल्फ कोर्स और एयरपोर्ट जैसी ढेरों आधुनिक सुविधाएं होंगी, कई राष्ट्रीय स्तर के सरकारी दफ्तरों को भी यहीं स्थानांतरित किया जाएगा, दिल्ली की तर्ज पर इसका विकास होगा, इस सबसे रीझकर मैंने यहां जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया. सोचा था कि दिल्ली की तर्ज पर विकसित किए जा रहे नए शहर में रहना सुखद होगा.’
लेकिन आज 24 साल बाद भी ग्वालियर के इस पश्चिमी क्षेत्र में नए शहर के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा तक विकसित नहीं हो सका है. जो इलाका विकास के नए प्रतिमान गढ़ राजधानी दिल्ली का विकल्प बनने वाला था, वहां विकास के नाम पर दूर-दूर तक बस जंगल फैले हुए हैं. इस पूरी अवधि में अगर कोई अंतर आया है तो बस इतना कि इन जंगलों में पेड़ों की जगह अब बिजली के खंभे और ट्रांसफॉर्मर दिखाई देते हैं.
साडा के मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) तरुण भटनागर इस बात को नकारते हैं कि विकास नहीं हुआ. वे कहते हैं, ‘200 करोड़ रुपये की लागत से हमने यहां आवासीय कालोनियां विकसित की हैं जिनमें 3000 फ्लैट और डुप्लेक्स हर श्रेणी के नागरिकों के लिए हैं. वहीं दुकानें भी बनाई गई हैं. बिजली के खंभे और ट्रांसफॉर्मर गाड़े गए हैं. सीवर और पानी की लाइन बिछाई गई है, जिन पर अभी भी काम चल रहा है. इसके अलावा सड़कों का निर्माण भी किया गया है.’ पर जब ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी की पूरी योजना तैयार की जा रही थी तब अनुमान था कि यहां शुरुआती दौर में 1,74,000 लोगों को बसाया जाएगा और 2010 तक ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी. साथ ही हर साल 2000 आशियाने बनाने का लक्ष्य भी रखा गया था. परियोजना पर जब काम शुरू हुआ तब 30,000 हेक्टेयर भूमि साडा ने इसके विकास के लिए चिह्नित की थी लेकिन वर्तमान में 78,000 हेक्टेयर भूमि को अधिसूचित कर रखा है. अगर अनुमान लगाया जाए तो इतने क्षेत्रफल में चंडीगढ़ जैसे 13 शहर बसाए जा सकते हैं जो पांच से छह करोड़ की आबादी के लिए पर्याप्त होंगे. सवाल उठता है कि इतने बड़े क्षेत्रफल में इतनी लंबी अवधि में कुछ आवासीय परिसरों में 3000 फ्लैट और डुप्लेक्स बना देना क्या समुद्र में कंकड़ फेंकने जैसा नहीं.
ये योजना ही फर्जी है : देवसहायम पूर्व आईएएस एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘आपको चंडीगढ़ में ऊंची इमारतें बहुत कम देखने को मिलेंगी. शिवालिक हिल होने के कारण दो-तीन मंजिल से ऊपर आप बना नहीं सकते. वहां ओपन एरिया ज्यादा है. पार्क हैं, हरियाली है. जमीन 15 हजार एकड़ में फैली है और आबादी 12 लाख की है. जनसंख्या घनत्व कम है. जब साठ साल पहले चंडीगढ़ बनाने की योजना बनी तो लक्ष्य रखा गया था कि पांच से 10 लाख की आबादी के लिए एक शहर बसाया जाए. आपके पास तो 75 हजार एकड़ जमीन थी, तब भी आप दो लाख की आबादी बसाने की बात कर रहे थे और अब आपके पास 1 लाख 95 हजार एकड़ जमीन है पर कितनी आबादी बसाओगे, ये आंकड़ा आपके पास नहीं है. इतना बड़ा शहर बसाना तो केवल सपने में ही संभव है. इससे साफ पता चलता है कि ये योजना ही फर्जी है. यह तो जमीन हड़पने का हथकंडा जान पड़ता है. वरना दो लाख की आबादी के लिए ज्यादा से ज्यादा 500 एकड़ जमीन पर्याप्त है.’
इस पर साडा अध्यक्ष राकेश जादौन कहते हैं, ‘1992 से 2003 तक का समय तो आप निकाल ही दीजिए. फंड वगैरह की कोई व्यवस्था नहीं थी. 1992 में जब इसकी आधारशिला रखी गई तब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. अगले साल सरकार बदल गई. कांग्रेस के कार्यकाल में कोई काम नहीं हुआ. 2003 में जब भाजपा वापस आई तब काम शुरू हुआ. कहने को तो 24 साल हैं पर गिनना नहीं चाहिए. बीच के 11 सालों में कोई विशेष काम नहीं हुआ. बस खानापूरी हुई.’ यह बात सही है कि ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी की जमीनी शुरुआत 2002 में हुई. उसके बाद ही निर्माण कार्य शुरू हुए. पर बीच के इन दस सालों को भी गिना जाना जरूरी है. आखिर उन दस सालों में साडा ने क्या काम किया? अगर राज्य सरकार का समर्थन प्राप्त नहीं था तो फिर साडा का बड़ा स्टाफ इन सालों में क्या करता रहा? तरुण भटनागर उन दस सालों का हिसाब देते हुए कहते हैं, ‘एक शहर बनाने से पहले उसकी योजना बनानी पड़ती है. इसमें समय लगता है. शहर बसाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना पड़ता है. कितनी जमीन की जरूरत होगी, वह जमीन कैसे मिलेगी? कितने लोगों के लिए वह शहर होगा? उस शहर में क्या होना चाहिए? कैसे वह दूसरों से अलग हो, जिससे लोगों को वहां आने के लिए रिझाया जा सके, ये सब पहलू देखने पड़ते हैं. दस साल साडा ने यही योजना बनाई.’ भविष्य में मैग्नेट सिटी को कितनी आबादी का भार उठाने लायक बनाया जा रहा है, इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘ऐसा कुछ निर्धारित नहीं किया है. यह तो समय के हिसाब से चलने वाली विकास की एक प्रक्रिया है, जैसे-जैसे क्षेत्र का विकास होता है लोग वहां आकर्षित होने लगते हैं. हमारा सबसे पहला प्रयास है कि हम वहां सार्वजनिक सुविधाएं लोगों को दे सकें.’
नए शहर का निर्माण कैसे होता है, इस पर पूर्व आईएएस और चंडीगढ़ बसने के दौरान डिप्टी कमिश्नर रहे एमजी देवसहायम कहते हैं, ‘आप जब एक छोटा मकान भी बनाते हैं तब भी सोचते हैं कि कितना बड़ा, कहां, कैसा और कितने व्यक्तियों के लिए बनाना है. उससे पहले देखा जाता है कि इसकी जरूरत है भी या नहीं. उसी तरह किसी भी नए शहर का विकास करने से पहले सबसे पहले तो सोचना पड़ता है कि कितना बड़ा शहर बनाना है? अधिकतम कितनी आबादी का भार सहने की उसमें क्षमता हो? वह कैसा होना चाहिए? दूसरा, नए शहर का भविष्य वहां पैदा की गई आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर करता है. नए शहर में लोगों के बसने का कारण यही गतिविधियां बनती हैं. तीन किस्म की गतिविधियां जरूरी हैं, उद्योग, व्यापार और सरकार. जब एक नए शहर में उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, व्यापार पनपेगा और सरकारी कार्यालय होंगे तभी लोग वहां आकर बसेंगे. आर्थिक एवं वाणिज्यिक गतिविधियों और रोजगार व व्यापार के अवसरों की तलाश करके ही आपको शहर बसाने के लिए जरूरी जमीन के बारे में सोचना चाहिए. और कम से कम क्षेत्रफल में शहर बनाने की योजना बनानी चाहिए.’
पर ग्वालियर काउंटर मैग्नेट सिटी के मामले में ठीक उल्टा हुआ. यहां जमीन का चयन पहले हुआ, फिर रिहायशी परिसर बनाए गए जिसमें कई दशकों का समय लग गया. आर्थिक गतिविधियां पैदा करने की ओर न तो साडा ने रुचि दिखाई और न ही राज्य सरकार ने. राजेश बाबू भी इस पर मुहर लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘वहां सबसे बड़ी खामी सुरक्षा की है. पुलिस थाना तक नहीं है. जो सड़कें उस इलाके को शहर से जोड़ती हैं, वहां सूरज ढलते ही मीलों तक रोशनी की किरण नहीं दिखाई देती. पानी-सीवर की व्यवस्था भी ठीक नहीं है. लोग कैसे जाएं रहने जब उन्हें वहां कोई सुविधा ही नहीं दिख रही. अगर कुछ सरकारी महकमे के दफ्तर वहां पहुंचे, उद्योग-धंधे पनपे तो लोगों का आना-जाना होगा, जिससे अन्य सुविधाएं बढ़ेंगी. अभी उस अंधियारे जंगल में खुद की हिफाजत ही सबसे बड़ी चुनौती है. सरकारी इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिख रहा है, बस कागज पर योजना बना दी गई है.’ यही कारण था कि जब ‘तहलका’ ने पूरे क्षेत्र का दौरा किया तो पाया कि पूरे क्षेत्र में 50 ढांचे भी तैयार नहीं हुए हैं. निर्माण कार्य हुए भी हैं तो वहां कोई रहने नहीं आ रहा. इससे साडा के उस दावे पर प्रश्नचिह्न लगता है जिसमें वह कहता है कि दस साल तक उसने एक नए शहर को बसाने की योजना पर मशक्कत की. तरुण कहते हैं, ‘लोगों का न रहने जाना ही सबसे बड़ी चुनौती है. इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं. सार्वजनिक सुविधाएं बढ़ा रहे हैं. कई लोग निवेश के लिए आगे आ रहे हैं. कुछ सरकारी कार्यालयों ने भी हमसे वहां जमीन मांगी है.’ राकेश का कहना है कि शासकीय कार्यालय वहां शिफ्ट हों इसके लिए प्रयास कर रहे हैं. रोजगार के लिए उद्योग विभाग को वहां उद्योग स्थापित करने के लिए 72 एकड़ भूमि दी गई है. अप्रैल में आने वाले नए मास्टर प्लान में हम सेज का मसौदा रख रहे हैं. फिलहाल हमारा जो सबसे बड़ा काम अधूरा है, वो एयरपोर्ट का निर्माण है. टेक्सटाइल पार्क भी प्रस्तावित है. हालांकि निवेशक इन्हें सिर्फ घोषणा मानते हैं. उनका कहना है कि लंबे समय से ऐसा सुनते आ रहे हैं पर ये बातें कभी धरातल पर साकार नहीं हुईं और न ही आने वाले दो-तीन दशक तक ऐसा होने की संभावना दिख रही है.
कुछ सालों पहले एनसीआरपीबी ग्वालियर से मैग्नेट सिटी का दर्जा वापस लेने पर विचार कर रहा था. कारण यहां विकास की गति का धीमा होना था. ज्योतिरादित्य सिंधिया के हस्तक्षेप से दर्जा बचा था. तब वे केंद्र में मंत्री थे
अपनी उपलब्धियां बताने के लिए शासन-प्रशासन के पास बस इलाके में चल रहे 4-5 स्कूलों और कॉलेजों के नाम हैं. लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि इससे पहले वहां खुले कई स्कूलों और कॉलेजों पर ताले भी जड़ चुके हैं. सोमानी स्कूल भी उनमें से एक था. इसके मालिक विजय सोमानी वहां निवेश करने को घाटे का सौदा मानते हैं. वहीं एक कॉलेज के प्रबंधन से जुड़े व्यक्ति नाम न छापने की शर्त पर वहां चल रहे कॉलेजों का सच बताते हुए कहते हैं, ‘ये सब डमी ढांचे हैं. यहां कक्षाएं नहीं चलतीं. बस फर्जीवाड़े के लिए इमारतें खड़ी कर दी गई हैं.’
