शत्रु संपत्ति : मुल्क अपना, जमीन पराई!

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शत्रु संपत्ति : लखनऊ का बटलर पैलेस
फोटो साभारः मैपियो डॉट नेट

‘हमने जिन्ना को छोड़ा, मुस्लिम लीग को छोड़ा, महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष आवाज पर भारत को अपनाया कि ये हमारी साझी विरासत है. क्या पाकिस्तान पर भारत को तरजीह देना हमारा गुनाह था, जो आज विभाजन के 65 साल बाद हमें उसकी सजा दी जा रही है?’ सरकार द्वारा जनवरी में शत्रु संपत्ति संशोधन अध्यादेश लाने पर ‘तहलका’ से बातचीत में राज्यसभा के पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब ने ये बात कही थी.

शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. इस कानून के तहत वे लोग जिन्होंने भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता ले ली थी, उन्हें ‘शत्रु नागरिक’ और उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ की श्रेणी में रखा गया. सरकार को यह अधिकार मिला कि वह ऐसी संपत्तियों के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे.

महमूदाबाद के तत्कालीन राजा मोहम्मद आमिर अहमद खान भी 1957 में पाकिस्तान पलायन कर गए थे. लेकिन उनके परिवार के अन्य सदस्य भारत में ही बने रहे. शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत इस प्रकार उनकी संपत्ति भी भारत सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी. पिता की इसी संपत्ति पर उत्तराधिकार पाने के लिए उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान ने 32 वर्ष कानूनी लड़ाई लड़ी. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैसला सुनाते हुए उनके पिता की हजारों करोड़ की संपत्ति उन्हें वापस लौटाने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.

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क्या है शत्रु संपत्ति अधिनियम?

शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. यह कानून सरकार को शक्ति प्रदान करता है कि वह भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता लेने वाले लोगों की संपत्ति जब्त कर ले और ऐसी संपत्ति के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे. ऐसी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ कहलाती है और ऐसे नागरिक ‘शत्रु नागरिक’.

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इसके बाद मुंबई स्थित भारत के शत्रु संपत्ति संरक्षक (सीईपी) के कब्जे में संरक्षित कई अन्य और संपत्तियों पर उनके वारिसों ने दावे किए. पाकिस्तान जाकर बस गए लोगों के परिजन जिन्होंने भारत में ही रहना चुना, सरकार के अधीन अपने पूर्वजों की संपत्ति सरकार से वापस पाने के लिए अदालतों का रुख करने लगे.

अब उस फैसले के दस साल बाद केंद्र सरकार 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन करना चाहती है, जो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को निष्क्रिय कर देगा, जिसके बाद ऐसी संपत्तियों पर किसी भी प्रकार के दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी और सीईपी के पास जब्त सारी शत्रु संपत्ति सरकार के अधीन हो जाएगी. विधेयक में प्रावधान है कि जिस संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है उस पर मालिकाना हक संरक्षक का मान लिया जाएगा. पाकिस्तान में बसे लोग या उनके उत्तराधिकारी इन संपत्तियों का हस्तांतरण नहीं कर सकेंगे. सीईपी सभी जिलों में सहायक संरक्षक (जिलाधिकारी) के सहयोग से इन संपत्तियों का संरक्षण करता है.

‘यह कानून लाकर केंद्र सरकार मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना चाहती है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है’

मोहम्मद अदीब कहते हैं, ‘एक परिवार है. उसके एक आदमी ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन बाकियों ने नेहरू और गांधी की आवाज पर कहा कि हम नहीं जाएंगे. अब आप दशकों बाद उनसे उनकी संपत्ति छीन रहे हैं. क्या यह भारत न छोड़ने की सजा है? आप तो यह संदेश दे रहे हैं कि मुस्लिमों को भारत छोड़ देना चाहिए था. उस समय कोई और समुदाय होता तो उस देश का चुनाव करता जो उनके धर्म और संस्कृति के नाम पर बना था. हमने अपने मजहब के मुल्क को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष मुल्क का चुनाव किया. क्या यही उसका इनाम है?’

अखिल भारतीय मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत (एआईएमएमएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नावेद हमीद इस विधेयक को सांप्रदायिक करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने शत्रु संपत्ति को लेकर स्थिति पहले ही स्पष्ट कर दी है. उसके बाद भी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अपमान कर अध्यादेश के रास्ते ऐसा विधेयक क्यों लाई? क्योंकि उसका मकसद मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. राम मंदिर की बात करो या जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को खत्म करने की, उसकी नीति सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली ही रही है. यह विधेयक भी सांप्रदायिक है. सरकार की विचारधारा इसमें साफ दिख रही है. आप समाज के एक तबके को देश के दुश्मन के रूप में घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं.’

हालांकि शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की भाजता नीत राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है.  जिस तरह वर्तमान सरकार पहले अध्यादेश लाई, फिर विधेयक के रूप में उसे लोकसभा से पास करा लिया. उसी तरह वह भी लगभग समान प्रावधान वाला एक अध्यादेश 2010 में लेकर आई थी. डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार अध्यादेश को कानून में पारित कराने का मन भी बना चुकी थी. लेकिन पार्टी ही इसे लेकर दो फाड़ हो गई. सभी मुस्लिम सांसद इसके विरोध में लामबंद हो गए. उनका तर्क था कि इससे सिर्फ मुसलमान प्रभावित होंगे, क्योंकि शत्रु संपत्ति पर उनका ही हक है. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने भी इसे मुस्लिम विरोधी करार दिया. चौतरफा दबाव के आगे सरकार झुक गई और अपने कदम वापस खींच लिए. इसके बाद मुस्लिम सांसदों के दबाव में अध्यादेश में कुछ और संशोधन करके इसे संसद की स्थायी समिति के सामने विधेयक के रूप में पेश किया गया. जो संशोधन किए गए, वे शत्रु संपत्ति के वारिसों के लिए उनकी संपत्ति पाने के द्वार खोलने वाले थे. हालांकि स्थायी समिति ने इसे भी खारिज कर दिया.

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क्या है भोपाल के नवाब की संपत्ति का विवाद?

हमीदुल्ला खान भोपाल के आखिरी नवाब थे. उनकी दो बेटियां थीं, आबिदा सुल्तान और साजिदा सुल्तान. नवाब का कोई बेटा नहीं था. रियासतों की उत्तराधिकारी चुनने की नीति के अनुसार बड़ी संतान को पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार मिलता था. इस लिहाज से आबिदा सुल्तान नवाब की उत्तराधिकारी थीं. आबिदा 1950 में पाकिस्तान जाकर बस गईं. लेकिन नवाब और उनका बाकी परिवार भारत में ही रहा. 1960 में नवाब का निधन हो गया. चूंकि बड़ी बेटी आबिदा पाकिस्तान जा चुकी थीं, इसलिए छोटी बेटी साजिदा नवाब की वारिस बन गईं. वर्ष 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने साजिदा को भोपाल का राज्याधिकारी नियुक्त कर दिया, जिससे नवाब की जायदाद की वारिस साजिदा बन गईं. साजिदा सुल्तान मंसूर अली खान पटौदी की मां, शर्मिला टैगोर की सास और सैफ अली खान, सोहा अली खान और सबा अली खान की दादी थीं. 1968 में सरकार द्वारा शत्रु संपत्ति अधिनियम लाया गया, जो भूतलक्षी प्रभावों के साथ लागू हुआ. कानून के 47 साल बाद पिछले वर्ष सीईपी ने नवाब की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया था. जिसके बाद भोपाल के नवाब की संपत्ति को लेकर बवाल खड़ा हुआ था. वर्तमान में इस मामले पर मध्य प्रदेश के जबलपुर हाई कोर्ट में सुनवाई चल रही है. भोपाल के नवाब द्वारा और साजिदा सुल्तान के द्वारा उनकी संपत्ति कई लोगों को बेची गई थी. उन लोगों द्वारा वह दूसरे लोगों को बेची गई, जिसके कारण आज नवाब की संपत्ति का मालिकाना हक कई बार बदल चुका है. वर्तमान में जिनका उन पर मालिकाना हक है वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. अगर हालिया विधेयक के बाद उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति मानकर सीईपी अपने अधिकार में लेती है तो भोपाल में लाखों की संख्या में ऐसी आबादी के प्रभावित होने की संभावना है जो नवाब से खरीदी संपत्ति पर दशकों से रह रही है. इसमें कई आवासीय परिसर, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, होटल और नगर निगम की जमीन भी शामिल है.

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मोहम्मद अदीब भी तब विरोध करने वाले सांसदों में शामिल थे. वे बताते हैं, ‘यह पूरा विवाद राजा महमूदाबाद की संपत्ति के इर्द-गिर्द घूमता है. लखनऊ में कपूर होटल, बटलर पैलेस, आधा हजरतगंज उनका ही है. सीतापुर, लखनऊ, लखीमपुर खीरी में सरकारी अधिकारियों की जितनी कोठियां हैं, वे सब इनकी ही रियासत की हैं. हलवासिया मार्केट और कपूर होटल पर किरायेदारों का कब्जा है. कस्टोडियन ने उनको ये जगहें सामान्य से किराये पर दे रखी हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इनके ऊपर बेदखली की तलवार लटक रही थी. इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी और इनके वकील थे पी. चिदंबरम. इसलिए जब चिदंबरम कांग्रेस के कार्यकाल में केंद्रीय गृह मंत्री बने तो अपने पुराने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने वाला अध्यादेश ले आए. हमने तब इसका विरोध किया था. अब आज भी वही हो रहा है. चिदंबरम के बाद वह केस अरुण जेटली और राम जेठमलानी लड़ने लगे. अब अरुण जेटली की पार्टी की सरकार आई तो उन्होंने भी वही कहानी वापस दोहरा दी.’ विधेयक के कानून में तब्दील होने के बाद सिर्फ राजा महमूदाबाद की ही नहीं, देश भर में चिहि्नत ऐसी 16,000 संपत्तियों का मालिकाना हक सरकार के पास होगा, जिनमें मुंबई स्थित मोहम्मद अली जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्ति भी शामिल हैं. ये दोनों मामले भी अदालत में विचाराधीन हैं.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/dispute-on-the-property-of-mahmudabad-royal-family/” style=”tick”]जानें, क्या है राजा महमूदाबाद की संपत्ति का विवाद[/ilink]

केंद्र सरकार ने 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन किया है, जिसके बाद शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली संपत्तियों पर दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी

पी. चिदंबरम और अरुण जेटली के जिन हितों के टकराव का जिक्र ऊपर मो. अदीब ने किया, उसमें एक नाम और जुड़ता है. उस समय अध्यादेश कानून का रूप इसलिए भी नहीं ले सका कि मुस्लिम सांसदों के विरोध की अगुवाई तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद कर रहे थे. खुर्शीद ही राजा महमूदाबाद की संपत्ति के विवाद में उनके वकील रह चुके थे. वहीं कांग्रेस को खुद की मुस्लिम विरोधी छवि बनने का भी डर था. वह मुस्लिम वोट बैंक को खफा करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने भी तब सलमान खुर्शीद पर हितों का टकराव होने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा था कि सलमान खुर्शीद अपने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार में अपने ऊंचे ओहदे का लाभ ले रहे हैं. वहीं सरकार पर भी ऐसे आरोप लगे थे कि चूंकि सलमान खुर्शीद मामले में राजा महमूदाबाद के वकील थे, इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी अपना पक्ष पुरजोर तरीके से नहीं रखा.

बहरहाल केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद आई राजग सरकार ने भी पांच साल पुरानी इस कवायद को जारी रखा है. जो अध्यादेश तब कानून का रूप नहीं ले सका, उसे अब अमली जामा पहनाने की तैयारी है. लेकिन इस पूरी कवायद से केवल राजा महमूदाबाद, भोपाल के नवाब की संपत्ति के वारिस सैफ अली खान या जिन्ना का बंगला और अन्य शत्रु संपत्तियों के दावेदार ही प्रभावित होंगे, ऐसा भी नहीं है. जिन संपत्तियों को लेकर आज यह विवाद है, उनका मालिकाना हक बदल चुका है. भोपाल की ही बात करें तो नवाब हमीदुल्ला खां के निधन के बाद वारिस बनी उनकी बेटी साजिया सुल्तान ने अपनी रियासत की जमीन का एक बड़ा हिस्सा बेच दिया था. आज उस जमीन पर भोपाल की कई कॉलोनियां बसी हुई हैं. नवाब की संपूर्ण रियासत को सीईपी शत्रु संपत्ति घोषित कर चुका है, जिससे संबंधित मामला जबलपुर हाई कोर्ट में विचाराधीन है. इस कानून के प्रभाव में आने से साजिया सुल्तान द्वारा बेची गई जमीन पर सीईपी का मालिकाना हक होगा. इस स्थिति में इस जमीन पर दशकों से बसे लोग भी प्रभावित होंगे.

दिल्ली के सदर बाजार स्थित बेलीराम मार्केट में लगभग 200 दुकानें हैं. इन सभी को लेकर शत्रु संपति का विवाद है
दिल्ली के सदर बाजार स्थित बेलीराम मार्केट में लगभग 200 दुकानें हैं. इन सभी को लेकर शत्रु संपति का विवाद है

भूषण नागपाल की दिल्ली के सदर बाजार में बैग की दुकान है. 1947 से वे इस दुकान को चला रहे हैं. वे इसमें किरायेदार के तौर पर काबिज हैं. 1947 में उनके पिता ने दुकान की कीमत की दो तिहाई पगड़ी देकर इसे किराये पर लिया था. इसी कारण वे इसका मामूली किराया चुकाते हैं. लेकिन अब उन्हें डर है कि अगर उनकी दुकान सीईपी के कब्जे में आई तो उन्हें वर्तमान दर के हिसाब से किराया चुकाना पड़ेगा जो हजारों में होगा. उन्हें डर इस बात का भी है कि कहीं यह किराया उन्हें वर्ष 1947 से न चुकाना पड़े क्योंकि सीईपी कहेगा कि अब तक आप जिसे किराया दे रहे थे वह तो इसका मालिक ही नहीं था मालिक तो हम थे. और क्या पता कहीं बेदखल ही न कर दिए जाएं. अकेले भोपाल में ही लगभग पांच लाख की ऐसी आबादी मानी जाती है, जो भूषण नागपाल की तरह ही प्रभावित हो सकती है. इस आबादी की कानूनी लड़ाई लड़ रहे ‘घर बचाओ संघर्ष समिति’ के उपसंयोजक एडवोकेट जगदीश छवानी कहते हैं, ‘बहुत सारी संपत्ति लोगों ने खरीदी है. कई तरीकों से ऐसी संपत्तियां लोगों को मिली हैं. उस संपत्ति का लोगों ने आगे भी हस्तांतरण किया. उस पर निर्माण कार्य हुए. उन्हें गिरवी रखा गया. बैंक से लोन लिए गए. इस तरह तो वो सारी संपत्ति जो भोपाल के नवाबों से खरीदी गई, सरकारी अधिकार में आ गई. सभी प्रभावित हुए.’ वे आगे बताते हैं, ‘कानून में संशोधन के बाद कई कानूनी अड़चनें पैदा होंगी. महमूदाबाद रियासत को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने नवाब के बेटे के हक में फैसला दिया था. अब अड़चन ये है कि जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही निर्णय कर चुका है तब भी कानून को भूतलक्षी प्रभाव के साथ लाया जा रहा है. यह मामला अभी और जोर पकड़ेगा.’

शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है 

इस विधेयक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह सीधे तौर पर मुस्लिमों के हित प्रभावित करता है. 2010 में भी केंद्र की संप्रग सरकार की यह कवायद मुस्लिमों पर जाकर रुक गई थी और इस बार भी स्थिति अलग नहीं है. अब भी इसे राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. जगदीश छवानी इस विधेयक को ‘असहिष्णुता’ की ही अगली कड़ी करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘यह राजनीति से प्रेरित मामला है. बस एक समुदाय को टारगेट करने के लिए लाखों लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जा रहा है. सरकार सिर्फ अपना हित देख रही है. जिस शत्रु संपत्ति का निपटारा पाकिस्तान 1971 में ही कर चुका हैै, साठ के दशक के बाद उस पर हम अब जागे हैं.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान में नवाज शरीफ से आकस्मिक मुलाकात और फिर पठानकोट में आतंकी हमले की घटना को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि इन दोनों घटनाओं के बाद मोदी सरकार आलोचकों के निशाने पर थी. अध्यादेश को लाकर वह अपने हिंदू वोटबैंक को पुख्ता करना चाहती थी कि उसका रुख पाकिस्तान के प्रति नरम नहीं हुआ है. वह पाकिस्तानियों की संपत्ति को उसी तरह राजसात कर रही है जैसे पाकिस्तान ने अपने यहां भारतीयों की संपत्तियों को किया था.

वैसे अधिनियम के 47 साल बाद इसमें संशोधन का सरकारी कारण यह है कि सीईपी के अनुसार देश भर में शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली अनुमानित 16,000 संपत्तियां हैं, जिनमें से 9411 को अब तक शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है. इनकी अनुमानित कीमत लगभग एक लाख करोड़ रुपये है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजा महमूदाबाद के पक्ष में आने के बाद से इन संपत्तियों पर अिधकार के िलए लगातार दावे ठोके जा रहे हैं. लोकसभा में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं, ‘अदालतों के शत्रु संपत्तियों के संबंध में आए फैसले भारत सरकार और कस्टोडियन को शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 के तहत मिली शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते थे. जिसके कारण कस्टोडियन को काम करने में समस्याएं आती थीं. इसीलिए संशोधन की जरूरत महसूस हुई.’ पर सरकार ने जिस तरह अध्यादेश का रास्ता अपनाकर इस विधेयक को लोकसभा में पास कराया है, सवाल उस पर भी उठता है. सरकार 7 जनवरी को इस संबंध में अध्यादेश लेकर आई थी, जबकि संसद सत्र शुरू होने में महज डेढ़ महीने का ही समय बचा था. लोकसभा में कांग्रेसी सांसद सुष्मिता देव पूछती हैं, ‘ऐसी क्या आपात स्थितियां आ गई थीं जो सरकार इतना भी इंतजार नहीं कर सकी, क्यों उसे अध्यादेश का सहारा लेना पड़ा?’

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ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ है

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बल्लीमारान का मुस्लिम मुसाफिरखाना जिसके लिए डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारुक वस्फी लंबी लड़ाई लड़ चुके हैं

दिल्ली के बल्लीमारान में स्थित मुस्लिम मुसाफिरखाना. 26 साल की कानूनी लड़ाई के बाद इसके मुतवल्ली (ट्रस्टी) डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारूक वस्फी यह साबित करने में सफल हुए कि यह शत्रु संपत्ति नहीं है. जमीर अहमद जुमलाना ने भी 13 साल संघर्ष किया. इस कानून के खिलाफ लड़े और जीते. ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति शत्रु संपत्ति है. पर जब नोटिस को अदालत में चुनौती दी गई तो कस्टोडियन को मुंह की खानी पड़ी. शत्रु संपत्ति मामलों के विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट के वकील नीरज गुप्ता बताते हैं, ‘अनेक मामलों में लोग अपनी संपत्ति कस्टोडियन के फंदे से छुड़ाने में सफल रहे हैं. शत्रु संपत्ति के मामलों में अदालतों ने हमेशा कस्टोडियन की आलोचना ही की है. उसकी कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं.’ जमीर अहमद जुमलाना बताते हैं, ‘1995 में मेरी बहन की संपत्ति पर कस्टोडियन ने नजर गड़ाई थी. हमने वो संपत्ति आसिफा खातून नाम की महिला से 1990 में खरीदी थी. 1995 में नोटिस आया कि आसिफा खातून पाकिस्तानी नागरिक हैं. लेकिन आसिफा कभी पाकिस्तान गई ही नहीं थीं, वे भारतीय नागरिक थीं. उनके पास भारतीय वोटर कार्ड, राशन कार्ड और पासपोर्ट तक मौजूद थे. हमने सारे सबूत पेश किए लेकिन कस्टोडियन तब भी मानने को तैयार नहीं था. 13 साल हमारा संघर्ष चला और हम साबित करने में सफल हुए कि कस्टोडियन गलत है.’ इसके अलावा कस्टोडियन पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं. मुंबई के एक मामले का जिक्र करें तो वहां कस्टोडियन ने करोड़ों की शत्रु संपत्ति का सौदा नियमों को ताक पर रखकर कुछ लाख में कर दिया. जुमलाना कहते हैं, ‘शत्रु संपत्ति की लिस्ट में संपत्तियों के नाम जोड़ने-घटाने का भी खेल चलता है. जो समृद्ध हैं वे अपनी संपत्ति का नाम हटवाने में सफल हो जाते हैं. वहीं किरायेदार-मालिक के विवाद में किरायेदार कस्टोडियन से साठ-गांठ कर मालिक की संपत्ति को शत्रु संपत्ति का नोटिस भिजवा देता है. ताकि मालिक का कस्टोडियन से विवाद चलता रहे और वह बिना किराया दिए संपत्ति पर कब्जा जमाए रखे.’

डॉक्टर वस्फी बताते हैं, ‘मेरा किरायेदार से विवाद था. वह न तो किराया बढ़ाना चाहता था और न खाली करना. जब हमने दबाव बनाया तो उसने कस्टोडियन से शिकायत कर दी कि मुस्लिम मुसाफिरखाना शत्रु संपत्ति है. कस्टोडियन ने हमें नोटिस थमा दिया. हम 26 साल तक यह साबित करते रहे कि इसके पुराने मालिक भारतीय नागरिक थे और वह किरायेदार अपना कब्जा जमाए रखा. टोकने पर कहता कि आप तो इसके मालिक ही नहीं हो, कस्टोडियन मालिक है, आप नहीं निकाल सकते.’

दिल्ली के सदर बाजार, बल्लीमारान, दरियागंज जैसे इलाकों में कुछ माह पहले कई लोगों को कस्टोडियन ने शत्रु संपत्ति का नोटिस दिया है. अकेले सदर बाजार में ही 200-300 दुकानों को नोटिस थमाए गए हैं. जब ‘तहलका’ ने इन लोगों से बात की तो कोई भी मीडिया के सामने आने को तैयार नहीं था. अपना नाम या फोटो छपवाने से लोग कतरा रहे थे. लोगों को डर था कि अगर एक बार मीडिया में नाम आ गया तो वे कस्टोडियन की निगाह में चढ़ जाएंगे और मामले में उसके साथ किसी भी प्रकार के समझौते की संभावना नहीं रह जाएगी. इससे जुमलाना के इस कथन की पुष्टि हो जाती है कि कस्टोडियन में शत्रु संपत्ति के नाम जोड़ने व घटाने का खेल चलता है. जुमलाना कहते हैं, ‘कोई आदमी इतनी बड़ी प्रॉपर्टी पर क्यों नुकसान का जोखिम लेगा! अपने लिए क्यों टेबल के नीचे से मामला निपटाने की संभावनाएं खत्म करेगा!’

इसके बाद यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि मनमर्जी से भारतीयों की संपत्ति को भी शत्रु संपत्ति बताने वाले कस्टोडियन को कानून के माध्यम से ऐसे अधिकार देना, जिससे उसका उन संपत्तियों पर मालिकाना हक स्थापित हो जाए और वह उन्हें बेचने का हकदार हो, साथ ही उसके फैसले के खिलाफ सिविल अदालत में जाने का भी विकल्प न हो, क्या उसे निरंकुश नहीं बना देगा! ऐसे में जुमलाना और डॉ. वस्फी जैसे न जाने कितने लोग अपनी संपत्तियों से हाथ धो बैठेंगे.

डॉ. वस्फी की अभी और भी कई संपत्तियों पर विवाद है. लेकिन एक संपत्ति के लिए इतनी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद न तो उनमें हिम्मत बची है और न ही इतना पैसा कि अब आगे और लड़ सकें. उम्र भी जवाब दे गई है. नीरज गुप्ता कहते हैं, ‘नए कानून के बाद बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी प्रभावित होंगे जिनकी संपत्ति को बिना किसी ठोस आधार के कस्टोडियन शत्रु संपत्ति घोषित कर देता है.’[/symple_box]

वैसे इसके पीछे कारण यह माना जा रहा है कि राजा महमूदाबाद की अरबों की संपत्ति पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमों पर जल्द ही फैसला आने वाला था, जिसके सरकार के खिलाफ जाने की संभावना थी. सरकार इतनी बड़ी राशि की संपत्ति अपने कब्जे से जाने देना नहीं चाहती थी इसलिए वह अदालत के फैसले को खारिज करने वाला अध्यादेश पहले ही ले आई. वहीं इंडियन नेशनल लीग के सचिव जमीर अहमद जुमलाना कहते हैं, ‘विधेयक को लाने के पीछे सरकार एक कारण यह भी दे रही है कि भारत और पाकिस्तान के बीच 1966 में शत्रु संपत्ति को लेकर ताशकंद में एक समझौता हुआ था, जिसे तोड़कर पाकिस्तान ने 1971 में अपने यहां मौजूद भारतीय नागरिकों की संपत्तियों को बेच दिया था. यह विधेयक उसी की प्रतिक्रिया है.’ इस पर वह पूछते हैं, ‘जापान पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कोरियन महिलाओं के साथ अत्याचार और उनसे जबरन देह व्यापार करवाने के आरोप लगते हैं, तो क्या अब कोरिया को भी जापानी महिलाओं को चुन-चुनकर उनके साथ यही करना चाहिए? सरकार को करना यह चाहिए था कि वह पाकिस्तान के सामने यह मुद्दा उठाती और उनसे कहती कि उसने तब जिन भारतीयों की संपत्तियों को बेचा, उन्हें वापस अपने अधिकार में ले और भारतीयों को लौटाए या मुआवजा दे. बजाय इसके वह अपने ही नागरिकों को प्रताड़ित कर रही है.’

कानून बनने पर राजा महमूदाबाद के साथ ऐसी 16,000 संपत्तियां सरकार की हो जाएंगी, जिनमें जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्तियां भी हैं

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-renowned-journalist-rasheed-kidwai-on-enemy-property-act/” style=”tick”]जानें, शत्रु संपत्ति अधिनियम पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई की राय[/ilink]

जब विधेयक लोकसभा में पेश हुआ तो लगभग सभी विपक्षी दल इसके विरोध में खड़े नजर आए. विधेयक के मुस्लिम विरोधी प्रवृत्ति के होने के कारण इसकी पहले से ही उम्मीद थी. विपक्षी दलों की मांग थी कि पहले इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाए. संघ की विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले पत्रकार लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘सरकार जब अध्यादेश लेकर आई थी तभी यह तय था कि जब ये संसद में पेश होगा तो इस पर ध्रुवीकरण होगा.  हुआ भी वही.’ लोकसभा में तो सरकार बहुमत में थी तो वहां से तो हरी झंडी मिलना तय था लेकिन सरकार के सामने असली चुनौती तो राज्यसभा से इस विधेयक पर मुहर लगवानी होगी. ऐसा वह कर पाएगी, इस पर संशय है क्योंकि वहां वह अल्पमत में है. लोकेंद्र आगे कहते हैं,  ‘राज्यसभा में सरकार इसे पारित करने पर जोर देगी और दूसरे दल आनाकानी करेंगे. तब सरकार दिखाना चाहेगी कि विपक्षी दल किस तरह हिंदू-मुस्लिम के मसले को हवा देते हैं. वहीं विपक्ष एकजुट होकर बताने की कोशिश करेगा कि मुसलमानों की संपत्ति पर सरकार नजर गड़ा रही है.’  उनके मुताबिक,  ‘राज्यसभा में अगर सरकार बहुमत नहीं जुटा पाती तो उसके पास दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर इस संशोधन विधेयक पर मुहर लगवाने का भी विकल्प होगा. लेकिन संयुक्त सत्र कम मौकों पर बहुत ही विशेष परिस्थितियों में बुलाए जाते हैं.’ बीजू जनता दल के लोकसभा सांसद पिनाकी मिश्रा विधेयक के भविष्य के बारे में कहते हैं, ‘यह विधेयक शत्रु संपत्ति के मामलों में सिविल कोर्ट से सुनवाई का अधिकार छीनता है, पास होने पर यह एक अतर्कसंगत कानून होगा जिसको जनहित याचिकाओं के माध्यम से अदालत में चुनौती दी जाएगी.

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम का ही उदाहरण ले लीजिए. सरकार ले तो आई पर देश के उच्चतम न्यायालय ने उसे गिरा दिया.’ वहीं जगदीश छवानी एक अन्य संभावना व्यक्त करते हैं. वह बताते हैं, ‘सरकार संसद से इसे कानून बनवाने में सफल हो भी जाती है तो भी अदालती तलवार इस पर लटकती रहगी. सुप्रीम कोर्ट में तो इसे चुनौती दी ही जाएगी, लेकिन इससे संबंधित जो अध्यादेश लाया गया था, उसे पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है. अगर कोर्ट का फैसला उस अध्यादेश के खिलाफ आता है तो यह कानून उधर ही खत्म हो जाएगा.’

जब इस विधेयक के पास होने की कम संभावनाएं हैं, इसके बावजूद सरकार इससे संबंधित अध्यादेश क्यों लाई थी? इस पर लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘अध्यादेश का मकसद कई बार सांकेतिक भी होता है. सरकार संकेत देना चाहती है कि वह क्या करने की इच्छा रखती है. भले ही यह कानून न बने पर सरकार यह संदेश देने में तो सफल हो ही जाएगी कि वह पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को अपने अधीन रखना चाहती है. चुनावों में इसका फायदा हो सकता है.’ पर मो. अदीब मानते हैं कि सरकार का इसके पीछे छिपा मंसूबा है.

वे बताते हैं, ‘सरकार को पता था कि राज्यसभा में अड़चनें आएंगी. इसलिए इन्होंने सीईपी को हिदायत दे दी थी कि अध्यादेश पारित होने के साथ ही जितनी भी शत्रु संपत्ति है उसे संरक्षण में ले लो. इसके परिणामस्वरूप कस्टोडियन ने तब से ही ऐसी संपत्ति को देश भर में चिहि्नत करना और कब्जे में लेना शुरू कर दिया है. अगर विधेयक कानून नहीं बनता तो भी सारी संपत्ति सीईपी के पास आ जाएगी और अध्यादेश के प्रभावी रहने तक उसे कौड़ियों के भाव नीलाम कर दिया जाएगा. जिस वक्त पहला अध्यादेश आया था, तब भी यही किया गया था. जामा मस्जिद के मेरे पास नौ मामले आए थे. अध्यादेश के आने के तुरंत बाद ही सीईपी के लोग पहुंचे और संपत्ति की मार्किंग शुरू कर दी थी. एक-एक घर की तलाशी ली गई. जांच की गई कि कहीं कोई पाकिस्तान तो नहीं गया था. मैंने उन सबको सोनिया गांधी से मिलवाया था.’ वे आगे बताते हैं, ‘दोनों ही दलों के कुछ नेताओं के इसमें निजी हित तो रहे ही हैं. साथ ही मुस्लिम समुदाय को दलितों से भी नीचे ले जाकर पटकने की साजिश है. आरक्षण की बदौलत आज दलित जागरूक हो गया. वह अब इनकी गुलामी नहीं सहता. अब उसकी जगह इनको कोई तो चाहिए. इसलिए मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. क्योंकि अब यही एक दबा-कुचला समुदाय देश में बचा है. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीनकर अस्तित्वहीन बना दो. वर्तमान सरकार इससे भी आगे निकल गई है. उसकी नजर मुस्लिमों की संपत्ति पर तो है ही, साथ में उनके शिक्षण संस्थानों पर प्रहार कर उन्हें शिक्षित होने से भी रोकना चाहती है. कानून की आड़ में वह आरएसएस का एजेंडा भी साध रही है. आरएसएस तो मानती ही नहीं है कि एक इंच जमीन भी देश में हमारी है. उसका मानना है कि जो जमीन है वो सब हिंदुओं की है. मुसलमानों ने इस पर कब्जा कर लिया था. हम 1200 साल के बाद भी अपने ही मुल्क में पराये हैं. विभाजन के समय हमने धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में भारत का चुनाव किया. अब अगर इनका एजेंडा हिंदू राष्ट्र बनाने का है तो हम तो ठगे गए हैं.’

‘वे मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीन अस्तित्वहीन बना दो’

वैसे इस कानून में शामिल ‘शत्रु’ की परिभाषा पर भी विवाद है. पूर्व राज्यसभा सांसद अजीज पाशा कहते हैं, ‘जो संपत्ति का वारिस है, वो कानूनन है. वो देश का नागरिक है. जब वो भारत का नागरिक है तो उसे इस आधार पर शत्रु कहना कि उसके बाप-दादा पाकिस्तान चले गए थे, अन्याय है. अगर पूरा खानदान ही पाकिस्तान चला गया होता और फिर वापस आकर संपत्ति पर दावा करता तो उसे शत्रु कह सकते थे, लेकिन जो भारत का नागरिक है, यहीं रह रहा है. उसे शत्रु की संज्ञा देकर उसकी संपत्ति पर नजर गड़ाना तो गलत है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘सीतापुर के डॉ. ताज फारूकी उन स्वर्गीय एमएम किदवई साहब के दामाद हैं, जो कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता थे. डॉक्टर साहब के चाचा पाकिस्तान चले गए थे पर उनके बाप नहीं गए थे और वो भी नहीं गए थे. उनकी संपत्ति सरकार ने जब्त कर ली. संपत्ति कस्टोडियन के पास है पर लगान वही जमा करते हैं. लगान की जो रसीद मिलती है उस पर इनके नाम के आगे शत्रु लिखा होता है. हम शत्रु हैं. अपने देश का दामन थामना शत्रुता की श्रेणी में आता है. अपने ही घर में परायों जैसा सलूक क्यों? दिल दुखता है. लेकिन कर भी क्या सकते हैं. जहां गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाकर उसे पूजने की बात हो, वहां हमारी कौन सुनेगा.’ पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद शशि थरूर को भी ‘शत्रु नागरिक’ की परिभाषा से आपत्ति है. वे कहते हैं, ‘हम एक ऐसे विधेयक को पास करने पर विचार कर रहे हैं जो अपने ही देश के कुछ लोगों को शत्रु बताता है. इससे लाखों लोगों के हित प्रभावित होंगे. यह भारतीय नागरिकता को दो भागों में विभाजित करता है, हम भारतीय नागरिकता के विचार को ही विभाजित कर रहे हैं.’

जगदीश छवानी एक अहम सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘एक ओर हम पाकिस्तान से मित्रता बढ़ाने की बात करते हैं, अखंड भारत की स्मृतियां संजोते हैं तो दूसरी ओर पाकिस्तान बस गए लोगों को शत्रु की श्रेणी में रखते हैं. यह कैसी नीतिगत असमानता है? अपने ही देश के उन मुसलमानों को जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए, शत्रु कहा जाता है. जबकि वो भारत के नागरिक हैं.’ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी मानते हैं, ‘जो भी भारत में है और उसका नागरिक है, उसे शत्रु नहीं कहा जा सकता.’

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‘सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया गया विधेयक वहीं खत्म हो जाएगा’

‘घर बचाओ संघर्ष समिति’  के बैनर तले भोपाल में शत्रु संपत्ति के कई मामले देख रहे जबलपुर हाई कोर्ट के वकील जगदीश छवानी से बातचीत

विधेयक के कानून बनने के बाद क्या भोपाल के नवाब सहित दूसरे लोगों की संपत्तियां जिनसे संबंधित मामले अदालत में चल रहे हैं, वे अपने आप कस्टोडियन की हो जाएंगी और मुकदमे बंद हो जाएंगे?

हां, ऐसा प्रावधान संशोधित विधेयक में है. अभी यह विधेयक लोकसभा से पास हो चुका है. अब राज्यसभा से पास होगा फिर राष्ट्रपति से अनुमोदन होगा. उसके बाद कस्टोडियन उन अदालतों में याचिका लगाकर, जिनमें शत्रु संपत्ति से संबंधित मामले चल रहे हैं, मांग करेगा कि नया कानून बन चुका है, लिहाजा अब ये मामले बंद किए जाएं. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का भी साफ कहना है कि जो भी मुकदमे अदालत में हैं, उन्हें ही खत्म करने के लिए इसे लाया जा रहा है.

क्या नए कानून के बाद पीड़ितों के लिए अदालत जाने के दरवाजे बंद हो जाते हैं?

सिविल कोर्ट न जाने का प्रावधान विधेयक में रखा गया है पर अपने संविधान प्रदत्त अधिकार अनुच्छेद 19 और 21 के तहत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं. वैसे भी सिविल कोर्ट को यह निश्चित करने का अधिकार है िक कोई संपत्ति िकसी व्यक्ति की है या नहीं! पर यह निश्चित करने का अधिकार नहीं है कि कौन-सी संपत्ति शत्रु संपत्ति है, क्योंकि यह मुद्दा केंद्र सरकार से संबंधित है. सिविल कोर्ट घरेलू मुद्दों पर फैसला कर सकता है पर यह दो मुल्कों का मसला है.

क्या विधेयक को अदालत में चुनौती दी जा सकती है?

हां, अध्यादेश जो आया था उसे राजा महमूदाबाद ने पहले से ही चुनौती दे रखी है. वही अध्यादेश तो विधेयक में बदला है, तो चुनौती तो पहले से ही दी जा चुकी है.

अगर यह विधेयक संसदीय प्रक्रिया से गुजरकर कानून बन जाता है तो भी क्या उसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं?

हां, अगर कोई कानून तर्कसंगत नहीं है तो उसकी समीक्षा के लिए अदालत से गुहार लगाई जा सकती है. ऐसे बहुत उदाहरण हैं. हालिया उदाहरण राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का है, जहां सरकार के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया.

राजा महमूदाबाद ने इस विधेयक से संबंधित अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है. वह मामला विचाराधीन है. उस पर फैसला नहीं आया है, तब तक यह विधेयक पास हो गया. क्या विधेयक पर इसका कोई असर पड़ेगा? नए हालात में उस मामले का क्या होगा?

यह एक ऐसी स्थिति है कि एक तरफ सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग कर कानून ला रही है तो दूसरी तरफ न्यायालय भी उस कानून पर विचार कर रहा है. टकराव वाली स्थिति है. मान लीजिए कि अगर सरकार यह कानून संसद से बनवाने में सफल हो जाती है और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया कानून वहीं खत्म हो जाएगा. संविधान में तीन स्तंभ हैं; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. एक कानून बनाता है, एक की जिम्मेदारी उसे लागू करने की है और एक उसकी समीक्षा करता है. वो न्यायपालिका देखेगी कि इस कानून का क्या भविष्य होगा.

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नए संशोधनों के समर्थन में यह तर्क दिया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट का राजा महमूदाबाद के पक्ष में फैसला आने के बाद से शत्रु संपत्तियों को पाने के कई फर्जी दावे सामने आए, जो आज भी अदालतों में लंबित हैं. अब इस कानून के बाद शत्रु संपत्ति पर नजर गड़ाए बैठे कई फर्जी लोगों के मंसूबों पर पानी फिर जाएगा.

इस पर नावेद हमीद कहते हैं, ‘क्या सरकार फर्जी दस्तावेज पहचानने में अक्षम है? सरकार के पास सारे दस्तावेज मौजूद हैं. अगर एक-दो प्रतिशत ऐसे फर्जी दावे भी हैं तो सरकार उनकी सत्यता की पुष्टि करे. इन फर्जी मामलों के कारण दूसरों को उनके हक से वंचित करना कहां तक जायज है?’ शमीम फैजी कहते हैं, ‘हमारा मानना है कि जो कानूनन वारिस हैं उनका संपत्ति पर हक है. अगर आप फर्जी दस्तावेज वालों का पता नहीं लगा सकते तो आपकी सरकार किस बात की? इनके निहित स्वार्थ हैं. वे विभाजन के बाद बहुत संपत्ति जब्त कर चुके हैं. ये लोग बड़ी संख्या में लोगों की संपत्तियां शत्रु संपत्ति के नाम पर जब्त कर चुके हैं, जो उनके वारिसों को मिलनी चाहिए. वह ये नहीं लौटाना चाहते.’

जुमलाना के अनुसार, इस कानून की मूल भावना थी पाकिस्तान जा बसे लोगों की संपत्तियों का अस्थायी संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण. वे कहते हैं, ‘मान लीजिए एक व्यक्ति उस देश जा बसा जिससे हमारा युद्ध चल रहा हो. वह यहां अपनी जायदाद छोड़ गया. उस जायदाद से उसे आय हो रही है और वह आय शत्रु देश पहुंच रही है और उसका प्रयोग हमारे ही खिलाफ युद्ध में हो रहा है. इसलिए ऐसे लोगों की संपत्तियों को अस्थायी रूप से संरक्षण में रखने के लिए यह कानून लाया गया था. युद्ध के समय इस प्रकार का कानून हर देश लेकर आया है और यह सही भी है. युद्ध खत्म, कानून खत्म. पर हमारे यहां उल्टा हो रहा है, इसे स्थायी रूप दिया जा रहा है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘शाहबानो केस में जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद में कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया गया तो मुसलमानों को कहा गया कि आप देश का कानून नहीं मानते, चारों ओर बदनाम किया गया. और अब आप भी तो वही कर रहे हैं. संसद से कानून बनाकर हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहे हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.’

नावेद हमीद कुछ सवाल उठाते हैं, ‘जिन्होंने पाकिस्तान को नहीं, भारत को अपना मुल्क माना, भारत में रुके, मातृभूमि को नहीं छोड़ा. जबकि उनके ऊपर दबाव था. उन लोगों का क्या कुसूर है? नौ में से अगर एक चला गया है और आठ रह गए हैं तो आप कहोगे कि आप क्यों रह गए? अगर खानदान का एक व्यक्ति कहीं चला गया है, जाने को तो बहुत लोग अलग-अलग देशों में चले गए हैं. लेकिन अगर पाकिस्तान चला गया है तो वह शत्रु है और जिन्होंने भारत में रहने का विकल्प चुना, उन्हें देशभक्त क्यों नहीं कहा जाता?’

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