अखंड भारत का सिद्धांत पूरी तरह से सांस्कृतिक विचार है

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एकः शब्दः सम्यक् ज्ञात सुप्रयुक्त, र्स्वगलोके कामधुग्भवति यानी सही समय और सही जगह पर प्रयोग किया गया एक शब्द भी जीवनपर्यंत और उसके बाद भी उपयोगी होता है. पतंजलि का यह सूत्र अखंड भारत पर मेरे दिए गए बयान पर हुए विवाद के लिए पूरी तरह से उपयुक्त है. एक ऐसी बात जो इससे पहले कई बार संघ परिवार के कई लोगों द्वारा कही गई थी, इस बार एक विवादित मुद्दा बन गई क्योंकि यह उस वक्त सामने आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने के लिए लीक से हटकर कोशिश की जा रही थी.

मैंने 7 दिसंबर, 2015 को अल-जजीरा टीवी चैनल को एक इंटरव्यू दिया था. वहां मुझसे संघ के नागपुर मुख्यालय में लगे अखंड भारत के नक्शे के बारे में सवाल पूछा गया. पहले भी कई बार मुझसे यह सवाल किया गया था तो मैंने वही जवाब दिया जो इससे पहले कई बार दिया था कि संघ यह मानता है कि एक दिन ये तीनों हिस्से अपनी सहमति से एक होंगे. मैंने भी इस बात को दो बार स्पष्ट भी किया कि यह सेना या किसी युद्ध के जरिए नहीं बल्कि मित्रवत तरीके से होगा. यानी इन तीनों देशों के लोगों के एकीकरण का आधार सांस्कृतिक और सामाजिक होगा.

संयोगवश, यह इंटरव्यू उसी दिन प्रसारित हुआ जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने लाहौर पहुंचे थे. प्रधानमंत्री जी की उस यात्रा पर मैंने ट्वीट भी किया था, ‘दोनों देशों की प्रोटोकॉल पर चल रही राजनीतिक पॉलिसियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी जी का यूं अचानक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने लाहौर जाना एक जरूरी कदम था. यूरोपियन संघ, आसियान और कई पड़ोसी देशों के नेताओं की तरह भारत-पाक के नेताओं को भी अपने रिश्तों में थोड़ी अनौपचारिकता लाने की जरूरत है. बदलाव के इस पहले कदम के लिए अटल जी के जन्मदिन से बेहतर कोई दिन नहीं हो सकता था.’

मुझे दुख होता है कि मेरे इस इंटरव्यू को प्रधानमंत्री के इस कदम के महत्व को कम करने के लिए प्रयोग किया गया. हम लोग जो राजनीति में हैं वे कुछ कहते समय आने वाले कुछ चार-पांच सालों के बारे में सोचकर बोलते हैं वहीं हममें से कुछ जो संघ के पीढ़ियों से चले आ रहे विचार, उनकी दृष्टि को आत्मसात कर चुके हैं, वे कई बार अपनी कही बात की पॉलिटिकल इनकरेक्टनेस के जाल में फंस जाते हैं.

मैं यहां फिर कहना चाहूंगा कि अखंड भारत का यह सिद्धांत पूरी तरह से सांस्कृतिक और जनता पर केंद्रित विचार है. मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द और आत्मीयता बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है. असल में, मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं.

1947 के बंटवारे ने एक राजनीतिक मतभेद भी पैदा किया है. अब उसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह एक ऐतिहासिक बहस है. राम मनोहर लोहिया अपनी किताब ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ में इसके लिए तीन पक्षों, ब्रिटिशों, कांग्रेस और मुस्लिम लीग को उत्तरदायी मानते हैं. बाद में इतिहासकारों ने कई दूसरों को भी जिम्मेदार बताया.

मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है

कांग्रेस द्वारा बंटवारे पर राजी होने के बारे में नेहरू ने 1960 में ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार लियोनार्ड मोस्ले से बात करते हुए कहा था. ‘सच तो यह है कि हम लोग थक चुके थे और बूढ़े हो रहे थे. हममें से कुछ ही दोबारा जेल जाने लायक थे और अगर हम यूनाइटेड इंडिया (एकीकृत भारत) के लिए खड़े होते तो जेल जाना निश्चित था. हम पंजाब को जलते देख रहे थे, रोज लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं. हमें बंटवारे का विचार इन सब का समाधान लगा और हमने इसे स्वीकार कर लिया.’

मगर क्या बंटवारे ने लोगों को भी बांट दिया? उस समय भावावेश में आकर दोनों ओर के बहुत-से लोगों ने अपनी नई राजनीतिक पहचान को अपनाया. यह राजनीतिक पहचान बनी रहेगी. पर इसके अलावा भी इस समाज, जो एक सदी से भी ज्यादा समय तक एक ही हुआ करता था, की एक और बड़ी पहचान है. ख्यात इतिहासकार आयशा जलाल ने मंटो और बंटवारे पर लिखी अपनी किताब में एक सांस्कृतिक देश के विचार से उपजी इस दुविधा को बहुत अच्छे से रखा है. वे लिखती हैं, ‘…किसी सांस्कृतिक राष्ट्र की रूपरेखा जितनी रचनात्मक और व्यापक होती है, उतनी किसी हद में बंधे राजनीतिक राष्ट्र की नहीं होती.’

वास्तव में बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक सआदत हसन मंटो पाकिस्तान की ओर के उन चंद लोगों में से थे जो बंटवारे के इस विचार को कभी स्वीकार नहीं कर पाए. बंटवारे पर लिखी उनकी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ लाहौर के पागलखाने में रह रहे गैर-मुस्लिम मरीजों के बारे में है जो अलग धार्मिक मान्यताओं के कारण भारत स्थानांतरित होने का पूरे उत्साह से इंतजार कर रहे हैं. इस कहानी का जिक्र जलाल भी करती हैं. जलाल लिखती हैं, ‘मंटो ने इस कहानी में बहुत कुशलता से इन मरीजों को बाहर निकालने का फैसला करने वालों से ज्यादा स्थिर दिमाग वाला पागलखाने के मरीजों को दिखाया है. उनका यह दिखाना बंटवारे का फैसला करने वालों की समझदारी और जो पागलपन इससे शुरू हुआ, उस पर सवाल करता है.’

अगर ऐसा है तो क्या हम लोगों का साथ आना मुमकिन है? जिस ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक वास्तविकता को हमने ‘एक’ समाज होकर सदियों तक साझा किया है क्या हम उसे संजो पाएंगे? तो जब मैंने कहा कि ये देश ‘मित्रवत और सहमति’ से एक होंगे तब मेरा यही अर्थ था.

जब जीसस क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाने से पहले पोंटियस पेलेट (रोमन अधिकारी जिसके सामने ईसा मसीह की पेशी हुई हुई थी) के सामने लाया गया तब उन्होंने आरोप लगाने वाले लोगों को अपने शब्दों को स्पष्ट करने को कहा जिससे बहस में कोई भ्रम न रहे. अखंड भारत को लेकर छिड़ी बहस के साथ भी यही मसला है.

मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं

60 के दशक के पूर्वार्ध में जनसंघ नेता और सामाजिक कार्यकर्ता राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय में घनिष्ठता हुई थी. एक दिन डॉ. लोहिया ने दीनदयाल जी से कहा कि जनसंघ और आरएसएस के ‘अखंड भारत’ के विचार पर भरोसे के कारण पाकिस्तान के मुसलमान चिंतित हो जाते हैं और उससे भारत-पाक के रिश्तों में बाधा उत्पन्न होती है. लोहिया जी ने कहा, ‘बहुत-से पाकिस्तानियों का मानना है कि अगर जनसंघ नई दिल्ली में सत्ता में आया तो वे जर्बदस्ती पाकिस्तान और भारत का एकीकरण कर देंगे.’ इस पर दीनदयाल जी ने जवाब दिया, ‘हमारा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है. और हम चाहते हैं कि अब इस मामले में पाकिस्तानी ऐसा सोचना छोड़ दें.’ दोनों के बीच हुई इसी बातचीत से भारत-पाकिस्तान संघ का विचार जन्मा. भाजपा प्रवक्ताओं के अनुसार 1999 में अटल जी द्वारा निकाली गई ऐतिहासिक बस रैली में उन्होंने साफ किया था कि भारत और पाकिस्तान दो संप्रभु देश हैं.

मैं और मेरे जैसे कई यह मानते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों का आपसी सहमति और समान इतिहास के आधार पर साथ आना हमारे तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने की दिशा में एक जरूरी कदम होगा. मैं व्यथित हूं कि मेरी इतनी जरूरी वैचारिक स्थिति को मेरी पार्टी और केंद्र सरकार का राजनीतिक एजेंडा समझकर गलत अर्थ निकाला गया.

(लेखक भाजपा के महासचिव हैं)