प्यादों से पिटता वजीर!

hindi-cover2हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निदा फाजली का यह शेर बिल्कुल सटीक बैठता है. 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के मुंह से विकास और सुशासन जैसे शब्दों के निकलने की गति इतनी तेज थी, मानों कंठ के भीतर कोई सॉफ्टवेयर फिट हो. एक ऐसा सॉफ्टवेयर जो नियमित अंतराल पर विकास और सुशासन का जिक्र करता है. लोकसभा चुनाव के अपने पूरे प्रचार में मोदी ने विकास का नारा दिया, गुजरात के विकास का हवाला दिया और पूरे भारत से विकास के लिए वोट मांगा. मोदी का पूरा चुनावी अभियान मानों विकास का, विकास के लिए और विकास पुरुष द्वारा, में परिवर्तित हो गया था. इसके अतिरिक्त वह चुनाव प्रचार में एक भारत श्रेष्ठ भारत, सबका साथ सबका विकास, इंडिया फर्स्ट जैसे नारों और जुमलों से लोगों को यह बताने की कोशिश करते रहे कि भले ही उनके विरोधी उन्हें सांप्रदायिक, दंगाई, झूठा और फेंकू बताते हों, लेकिन उनका एजेंडा विकास का है. विरोधी आरोप लगाते रहे कि एक बार सत्ता हाथ में आने के बाद मोदी देश में आरएसएस का सांप्रदायिक एजेंडा ही आगे बढ़ाएंगे. मोदी फिर भी अभियान के दौरान विकास की माला ही जपते रहे. अपने अभियान के दौरान उन्होंने कोई सांप्रदायिक बात नहीं की, कोई विभाजनकारी बयान नहीं दिया. जाति और धर्म की चर्चा नहीं की, युवाओं से श्रेष्ठ भारत का निर्माण करने के लिए सहयोग मांगा. टीवी शो में वह अल्पसंख्यकों को विश्वास दिलाते नजर आए कि ‘मेरा काम है सभी संप्रदायों का सम्मान करना. सभी परंपराओं का सम्मान करना.’ यानी मोदी का एजेंडा प्रगति का था.

चुनाव खत्म हुए, मोदी को प्रचंड बहुमत मिला. वह प्रधानमंत्री बन गए. आज उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठे सात महीने से कुछ अधिक वक्त हो चुका है. मोदी के पिछले सात महीने के शासन में हुए कामकाज को देखकर लगता है कि मोदी के आलोचकों ने जो अंदेशा व्यक्त किया था, उसमें पूरी नहीं, लेकिन कुछ हद तक सच्चाई जरूर है. पिछले सात महीनों में देश के चौकीदार मोदी के राज में वह सब कुछ हुआ और हो रहा है, जो उनके विकास और सुशासन के दावों को मुंह चिढ़ाता है. इन महीनों में सरकार ऐसे तमाम बयानों और कामों की वजह से चर्चा में रही, जिसका सुशासन और विकास से कोई रिश्ता नहीं था. इन महीनों में रामजादे बनाम हरामजादे, राष्ट्रभक्त गोडसे, लव जेहाद, लॉउडस्पीकर्स का झगड़ा, हिंदू राष्ट्र, दीनानाथ बत्रा की किताब, पीके फिल्म का विरोध, घर वापसी, चार बच्चे पैदा करना, रुपये से गांधी की फोटो हटाना, गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाना, अयोध्या में राम मंदिर बनाने समेत वे तमाम मुद्दे चर्चा में रहे, जिनका मोदी के चुनावी अभियान के दौरान किए गए वादों से कोई वास्ता तक नहीं था. जाहिर है कि उन्हें मिला जनादेश उनके चुनावी अभियान के दौरान किए गए वादों की वजह से था न कि इस समय उनके सहयोगियों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों की वजह से.

पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा इससे सहमत नहीं हैं, ‘भले ही कुछ तत्व यह सब कर रहे हों, लेकिन मोदी का विकास का एजेंडा इससे प्रभावित होनेवाला नहीं है. मोदी की यह सख्त हिदायत है कि कोई आदमी ऐसी बयानबाजी न करे. आज के समय में इस बात का क्या मतलब कि तुम पाकिस्तान चले जाओ. यह बकवास है. देश में संविधान और कानून का राज है.’

जिस सरकार के मुखिया ने विकास को एजेंडा बताया था, उसके पीएम बनने के महीनेभर के भीतर ही देश को यह पता चला कि कैसे लव जेहाद भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. लव जेहाद के खिलाफ बिगुल फूंकने की शुरुआत की पार्टी के गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ ने. योगी के साथ संघ और उससे जुड़े अन्य संगठन भी बेहद आक्रामकता के साथ लव जेहाद के खिलाफ सक्रिय हो उठे.

यूपी में लव जेहाद के खिलाफ अभियान का श्रीगणेश उसी समय हुआ, जिस वक्त प्रदेश में विधानसभा की 10 और लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव होने वाले थे. मजेदार बात यह है कि विकास और सुशासन के एजेंडे पर सत्ता में आई भाजपा और नरेंद्र मोदी ने यूपी उपचुनाव के प्रचार अभियान की जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ को सौंपी.

15 अगस्त को मोदी ने लालकिले से दिए अपने भाषण में कहा था कि सांप्रदायिकता की राजनीति पर दस सालों तक के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए. लेकिन मोदी के सहयोगी अमित शाह ने भाजपा के चुनावी अभियान का नेतृत्व करने के लिए योगी आदित्यनाथ को चुना. आदित्यनाथ के चयन की इस मजबूरी पर स्वयं मोदी और अमित शाह ही रोशनी डाल सकते हैं. भाजपा के आलोचकों और राजनीतिक पंडितों का मानना था कि आदित्यनाथ को पार्टी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए चुना, ताकि उपचुनाव में राजनीतिक लाभ उठाया जा सके. आरोप यह भी लगा कि लव जेहाद का ईजाद और इसके खिलाफ हिंदू समाज को एकजुट करने की ललकार उसी राजनीतिक फायदे के लिए दी गई. उस समय उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न इलाकों से लव जेहाद के मामले सामने आने लगे. हिंदू लड़कियों की लव जेहाद से रक्षा करने का दावा करनेवाले इन नेताओं का कहना था कि मुसलमान लड़के प्रेम के जाल में फांसकर इन लड़कियों का पहले दैहिक शोषण करते हैं, फिर इनका जबरन धर्म परिवर्तन कराकर शादी करते हैं. पूरे देश में संस्कृति के स्वघोषित रखवालों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इसके अगुवा थे आदित्यनाथ. आदित्यनाथ के राजनीतिक जीवन का यह अहम मोड़ था. आदित्यनाथ इससे पहले तब चर्चा में आए थे, जब कुछ साल पहले वह संसद भवन में रो पड़े थे. आदित्यनाथ का बयान आया कि वह एक हिंदू लड़की के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाएंगे.

खैर, पूरे देश में बवाल मचने के बाद मामला संसद में पहुंचा. वहां विरोधी दलों ने मोदी की कड़ी आलोचना की. उस समय तकरीबन दो महीने तक योगी आदित्यनाथ आग उगलते रहे. लव जेहाद के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ सबकुछ बोलते रहे, देश में बवाल मचता रहा, लेकिन प्रधानमंत्री चुप रहे. न उन्होंने आदित्यनाथ को रोका और न ही दूसरे कार्यकर्ताओं को. उस दौरान लव जेहाद के कई मामले सामने आए, लेकिन थोड़ी जांच-पड़ताल के बाद सारे मामले झूठे साबित हुए. जिस मेरठ के मामले को लेकर आदित्यनाथ ने बवाल शुरू किया था, उसमें पीड़िता ने खुद ही पुलिस के पास जाकर न सिर्फ पूरे मामले को फर्जी बताया, बल्कि अपने परिवार से ही जान का खतरा होने की शिकायत भी दर्ज कराई. बाद में भाजपा के स्थानीय नेता पर परिवार को पैसा देकर मामले को भड़काने के भी आरोप लगे. एबीपी न्यूज चैनल ने भाजपा के व्यापार प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष विनीत अग्रवाल को पीड़ित लड़की की मां को पैसे देते कैमरे में कैद किया. भाजपा नेता का अपने बचाव में कहना था कि उन्होंने ये पैसे पीड़ित परिवार को मदद के तौर पर दिए थे. लड़की ने मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराए बयान में कहा कि न तो उसके साथ कोई गैंगरेप हुआ था और न ही उसका किसी ने धर्म परिवर्तन कराया था. उसने पहले जो भी कहा था, वह परिजनों के दबाव में कहा था, क्योंकि उसकी जान को उसके खुद के ही परिवार से खतरा था. वह अपनी मर्जी से दूसरे समुदाय के अपने प्रेमी के साथ गई थी.

लेकिन जिस आक्रामक तरीके से संघ परिवार और आदित्यनाथ ने लव जेहाद के खिलाफ अभियान चलाया, उससे ऐसा लगा मानों देश के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. यह सब कुछ उस व्यक्ति के राज में और आंखों के सामने हो रहा था, जो चुनावों में विकास के इतर कुछ और बोलता ही नहीं था, जिसके लिए दरिद्र नारायण ही सब कुछ था. मोदी की धुर समर्थक रही वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह भी उनसे नाराज दिखती हैं. वह लिखती हैं, ‘लोगों ने मोदी के विकास के एजेंडे को अपना समर्थन दिया था. ऐसे में मोदी पता नहीं क्यों आरएसएस को अपना एजेंडा थोपने का मौका दे रहे हैं.’

भाजपा का रवैया इस मामले में क्या था, इसका अंदाजा एक घटना से लगता है. उसी दौरान गृहमंत्री राजनाथ सिंह से एक पत्रकार ने पूछा कि आजकल लव जेहाद की बहुत चर्चा है देश में. आपको क्या लगता है, यह कितनी बड़ी समस्या है? राजनाथ सिंह ने हंसते हुए पूछा, ‘यह क्या है?’ उस समय देश में उनकी पार्टी और संघ के कार्यकर्ता हर दिन लव जेहाद के खिलाफ ऊधम मचा रहे थे, उसी समय पांचजन्य ने लव जेहाद पर एक कवर स्टोरी छापकर इसे देश के लिए बड़ा खतरा बताया था. ऐसे गरमाए हुए माहौल में भी देश के गृहमंत्री द्वारा मासूमियत से सवाल पूछना कई सवाल खड़े करता है.

जिसने विकास को एजेंडा बताया था, उसके पीएम बनने के महीनेभर के भीतर ही देश को यह पता चला कि कैसे लव जेहाद भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है

मोदी के राज में देश ने एक नए इतिहासकार और शिक्षाविद से साक्षात्कार किया. उनका नाम है दीनानाथ बत्रा. बत्रा खुद को किताबों का सोशल ऑडिटर कहते हैं और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता हैं. उनकी सबसे बड़ी पहचान यह रही है कि उन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वेंडी डोनिगर नाम की विदेशी महिला द्वारा हिंदू धर्म पर लिखी किताब ‘द हिंदूज- द अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को अदालत से प्रतिबंधित करवा दिया था. चूंकि वह आरएसएस के साथ जुड़े रहे हैं, लिहाजा उनके पास चीजों को जांचने-परखने का एक राष्ट्रवादी चश्मा है. बत्रा की किताबें विद्याभारती से संबद्ध स्कूलों में लंबे समय से पढ़ाई जाती रही हैं. लेकिन उसके बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर न तो बत्रा की कोई बड़ी पहचान थी और न ही देश की शिक्षा व्यवस्था को सुधारने में उनकी कोई बड़ी भूमिका थी. लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उनके दिन फिर गए हैं. देश में शिक्षा व्यवस्था कैसी हो और बच्चों को क्या पढ़ाया जाए से लेकर क्या न पढ़ाया जाए. इन सभी सवालों का निर्धारण करने का अधिकार बत्रा को दिया जा चुका है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के महीनेभर के भीतर ही बत्रा द्वारा तैयार की गई किताबें गुजरात के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हो गईं. गुजरात सरकार ने बत्रा की नौ किताबों के 42 हजार सेट प्रदेश के प्राइमरी और हाई स्कूलों में बंटवाने का निर्णय किया. एक मोटी रकम देकर खरीदी गई ये किताबें वैसे तो मूलतः हिंदी में लिखी गई थीं, लेकिन गुजरात सरकार ने अपने खर्च से उनका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया. इन किताबों की कुछ खास बातें इस प्रकार हैं-

• ‘आप भारत का नक्शा कैसे बनाएंगे? क्या आप जानते हैं कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका और बर्मा अविभाजित भारत का हिस्सा हैं.’
• ‘मित्रों, तैयार हो जाओ अखंड भारत की महिमा और अस्मिता को पुनः स्थापित करने के लिए… अगर 1700 वर्ष बिना भूमि के रहे यहूदी अपने संकल्प से इजराइल ले सकते हैं, अगर खंडित वियतनाम और कोरिया फिर एक हो सकते हैं, तो भारत भी फिर से अखंड हो सकता है.’
• ‘आज के युग में लोगों के पहनावे ने शरीर को बाजार में लाकर सुंदरता की नीलामी में लाकर खड़ा कर दिया है. पहनावे से चंचलता और विचारों में उत्तेजना आना स्वाभाविक है.
• ‘वेस्टर्न म्यूजिक, डिस्को जैसे उत्तेजक गीत पशुभाव जागृत करते हैं. बच्चों को भजन और देशभक्ति के गीत सुनने चाहिए.’
• ‘बच्चों को जन्मदिन पर मोमबत्ती बुझाकर नहीं, बल्कि गायत्री मंत्र पढ़कर अपना जन्मदिन मनाना चाहिए.’
• ‘जो विद्यार्थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में रोज जाते हैं, उनके जीवन में चमत्कारी बदलाव आ जाते हैं. इनमें से कई विद्यार्थी अपनी पढ़ाई अच्छे नंबरों से पास कर अब अपनी युवा क्षमता और इच्छाओं का देशहित में उपयोग कर रहे हैं.’
• ‘इंग्लिश शिक्षा ने हिंदू शब्द को विकृत किया है. मैकाले और मार्क्स के पुत्रों ने हमारे इतिहास के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया है.’

ये कुछ अंश हैं बत्रा की उन किताबों से, जो गुजरात के स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं. बत्रा कहते हैं, ‘मेरी किताबों में भारत के इतिहास की झलक है, जो स्कूल की किताबों में नहीं होती. बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाया जाता है. इसे बदलना होगा. मैं चाहता हूं कि ऐसी किताबें अन्य राज्य भी बांटें.’ अभी हाल ही में यह खबर आई कि हरियाणा के स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी बत्रा की किताबों को शामिल किया जा रहा है. ऐसी खबर है कि सरकार जो नई शिक्षा नीति लानेवाली है, उसमें बत्रा की बड़ी भूमिका होनेवाली है.

शिक्षा के भगवाकरण का संघ का एजेंडा किसी से छुपा नहीं है. शिक्षा को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि के हिसाब से परोसने का संघ हमेशा प्रयास करता रहा है, लेकिन कभी इसमें बहुत बड़े स्तर पर सफल नहीं हो पाया. हालांकि केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद उसकी उम्मीदें फिर से सातवें आसमान पर हैं. देश की शिक्षा व्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित करने का उसका सपना अब उसे पूरा होता दिख रहा है. बत्रा की किताबों को स्कूलों में शामिल कराकर उसी दिशा में कदम बढ़ाया जा रहा है.

पिछले सात महीने में देश की शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालनेवाले मानव संसाधन मंत्रालय ने भी कम चर्चा नहीं बटोरी. इसकी शुरुआत ही मानव संसाधन विकास मंत्री के पद पर स्मृति ईरानी की नियुक्ति से हुई. मोदी द्वारा तमाम वरिष्ठ नेताओं को पीछे छोड़ते हुए स्मृति को शिक्षा मंत्री बनाना काफी चर्चा में रहा क्योंकि उनके पास न तो सरकार के किसी पद का कोई अनुभव था और न ही पहले शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कोई काम किया था. कुछ समय बाद ही यह खबर आई कि स्मृति मात्र 12वीं पास हैं. उन्होंने चुनाव आयोग को भी गलत जानकारी दी है कि वह बीए पास हैं.

यह सारा विवाद उसको लेकर था जिसका चयन मोदी ने देश की मानव संसाधन मंत्री के तौर पर किया था. स्मृति ईरानी के कार्यकाल पर संघ के एजेंडे को भी लागू करने का आरोप लगा, जब केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के तौर पर जर्मन के बदले संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता लागू कर दी गई. सत्र के बीच में पाठ्यक्रम में बदलाव की आलोचना भी हुई और मंत्री पर संघ के दबाव में बच्चों पर संस्कृत थोपने और शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप भी लगा, लेकिन प्रधानमंत्री इस विवाद पर भी चुप रहे.

पिछले सात महीनों के दौरान विकास के एजेंडे पर एक और मसला हावी रहा है- घर वापसी का. यह संघ का एजेंडा है. घर वापसी अभियान का मतलब है, जो लोग अलग-अलग समय पर हिंदू धर्म को छोड़कर किसी और धर्म में शामिल हो गए हैं, उन्हें वापस हिंदू धर्म में ले आना. घर वापसी के कार्यक्रम पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना था, ‘लोग लालच और जबरदस्ती से हमसे लूट लिए गए थे. चोर पकड़ा गया, उसके पास मेरा माल है. दुनिया जानती है वह मेरा माल है, मैं मेरा माल वापस लेता हूं. इसमें कौन सी बड़ी बात है. इसमें किसी को क्या दिक्कत है? आपको पसंद नहीं है तो कानून लाओ.’

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भागवत और उनकी पूरी टीम अपना माल वापस लेने के लिए बेहद आक्रामक तरीके से काम कर रही है. अलीगढ़, आगरा से लेकर पंजाब और बिहार तक घर वापसी का कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहा है. घर वापसी के संघ के कार्यक्रम को अन्य राजनीतिक दलों ने जबरन धर्म परिवर्तन कराने की साजिश के तौर पर देखा. इसको लेकर काफी हो-हल्ला मचा. नेताओं ने यह मामला संसद में उठाया. विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से इसे रोकने और इस पर बयान देने की मांग करता रहा. राज्यसभा की कार्यवाही इस कारण कई दिनों तक ठप रही. आरएसएस के इस घर वापसी कार्यक्रम की काफी आलोचना हुई, लेकिन तमाम बवाल के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने न तो संसद में इस पर बयान दिया, न ही घर वापसी का कार्यक्रम रुका.

अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयायी या प्रशंसक के तौर पर नहीं जाने गए थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद सदन में अपने पहले संबोधन में मोदी ने महात्मा गांधी का जिक्र किया. मोदी का कहना था, ‘2019 में युगपुरुष महात्मा गांधी की 150वीं जयंती है. क्या हम यह सोच सकते हैं कि हम गांधी जी की जयंती कैसे मनाएं? महात्मा गांधी को जो कई चीजें पसंद थीं, उनमें एक थी स्वच्छता, साफ-सफाई. क्या हम गांधी की 150वीं जयंती पर एक साफ-सुथरा हिंदुस्तान उनके चरणों में रख सकते हैं.’ मोदी की इस सोच से भारत स्वच्छता अभियान का जन्म हुआ. दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती के दिन से मोदी ने इस अभियान की शुरुआत की. यह केंद्र सरकार का एक बड़ा अभियान बन गया. सरकार के मंत्री, अधिकारी, भाजपा के नेता-कार्यकर्ता से लेकर दूसरे दलों के नेता, खिलाड़ी और अभिनेता से लेकर आम लोग भी इसका हिस्सा बने. इस तरह मोदी के स्वच्छता अभियान से गांधी एक बार फिर से चर्चा में आए.

अभी माहौल गांधीमय बना ही था कि मोदी के एक सिपहसालार ने गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की महिमा गानी शुरू कर दी. उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार दिया. जब बवाल मचा तो माफी मांग ली. उन्हीं की वैचारिक जमीन से आनेवाले एक संगठन अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने मांग रखी कि गोडसे की प्रतिमा संसद भवन परिसर समेत देश के कोने-कोने में लगनी चाहिए. इसके लिए महासभा ने राजस्थान के किशनगढ़ से गोडसे की संगमरमर से निर्मित प्रतिमा भी मंगवा ली. फिलहाल यह प्रतिमा मंदिर मार्ग स्थित महासभा के कार्यालय में स्थापित है. महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रप्रकाश कौशिक के शब्दों में, ‘अब तक देश पर शासन करनेवाली सरकारों ने गोडसे की छवि को महात्मा गांधी के हत्यारे के तौर पर ही पेश किया है, जबकि गोडसे अनन्य देशभक्त थे. देश में आज भी ऐसे युवाओं की कमी नहीं है, जो गोडसे को सच्चा देशभक्त मानते हैं. युवा उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लें, इसी मकसद से महासभा गोडसे की प्रतिमा को देश के विभिन्न हिस्सों में स्थापित करना चाहती है. इस कार्य की शुरुआत हम संसद परिसर से करना चाहते हैं. सरकार से अनुमति मिलते ही उनकी प्रतिमा को संसद परिसर में स्थापित कर दिया जाएगा.’ महासभा की ताजा राष्ट्रवादी मांग है कि नोटों पर से गांधी जी की फोटो हटायी जाए.

केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद संघ की उम्मीदें फिर से सातवें आसमान पर हैं. शिक्षा व्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित करने का सपना अब उसे पूरा होता दिख रहा है

गोडसे को लेकर उमड़ रहे प्रेम में वह दौर भी आया जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पत्र केसरी में 17 अक्टूबर को छपे एक लेख में केरल से भाजपा नेता बी गोपालकृष्णन ने अप्रत्यक्ष रूप से यह इशारा किया कि नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी को नहीं, बल्कि जवाहरलाल नेहरू को मारना चाहिए था. गोपालकृष्णन ने लिखा है कि देश के बंटवारे और महात्मा गांधी की हत्या सहित देश की सभी त्रासदियों का कारण नेहरू का स्वार्थ था. गोपालकृष्णन की दलील थी कि अगर इतिहास के छात्रों ने ईमानदारी से बंटवारे के पहले के ऐतिहासिक तथ्यों और गोडसे के विचारों का अध्ययन किया होता, तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे कि गोडसे ने गलत निशाना चुना. लेख में कहा गया है कि वैश्विक नेता बनने के लिए नेहरू को गांधी जी का नाम, खादी और टोपी चाहिए थी. गोडसे जवाहरलाल नेहरू से कहीं बेहतर था. उसने सम्मानपूर्वक झुकने के बाद गांधी को गोली मारी थी. वह नेहरू जैसा नहीं था कि आगे से झुका और पीठे में छुरा घोंप दिया.

यह भी गजब इत्तफाक है कि मोदी सरकार के बीते कार्यकाल में गांधी से जुड़ा हर पात्र चर्चा में है. गांधी स्वच्छता अभियान के कारण चर्चा में हैं, उनके हत्यारे गोडसे का नाम हिंदू महासभा के कारण चर्चा में है और गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगानेवाले सरदार पटेल भी चर्चा में हैं.

आरएसएस पर इस बात का आरोप लगता रहा है कि गांधी की हत्या में उसका हाथ था. आरएसएस भी गांधी की विचारधारा की मुखालफत करती रही है. ऐसे में गांधी और गोडसे को लेकर आरएसएस के स्टैंड से काफी हद तक लोग वाकिफ थे. लेकिन प्रधानमंत्री खुद इन दिनों गांधी का गुणगान करते थकते नहीं है. बावजूद इसके गोडसे एकाएक चर्चा में आ जाते हैं और लंबे समय तक चर्चा में बने रहते हैं. यह थोड़ा अटपटा लगता है. यह साहस कहां से आता है कि प्रधानमंत्री बापू की 150वीं जयंती मनाने की बात करते हैं और उनके सहयोगी गोडसे को महिमामंडित करने लगते हैं. गोडसे की मूर्ति लगाने के सवाल पर बैतूल से पार्टी सांसद ज्योति धुर्वे कहती हैं, ‘देखिए अगर कोई व्यक्ति यह चाहता है, तो देश में लोकतंत्र है, हम उसे कैसे रोक सकते हैं. हमें रोकना भी नहीं चाहिए. हम हिंदू धर्म के लोग हैं. हम मूर्ति पूजा करते हैं. अगर वह आदमी भी मूर्ति पूजा करना चाहता है, तो उसे अधिकार होना चाहिए. हमारा भारत एक हिंदू राष्ट्र है.’

इन्हीं सात महीनों में जुबान फिसलने या यूं कहें कि मन की बात जुबान पर आने का भी खेल खूब हुआ. दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए केंद्रीय खाद्य राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने सार्वजनिक मंच से विपक्षी दलों को गाली दी. साध्वी ने कहा, ‘दिल्ली में या तो रामजादों (राम के पुत्रों) की सरकार बनेगी या फिर हरामजादों की सरकार बनेगी. फैसला आपको करना है.’

साध्वी का यह बयान सामने आने के बाद संसद से लेकर सड़क तक हंगामा मच गया. उनकी खूब आलोचना हुई. संसद में विपक्ष के लगातार हमलावर रुख को देखते हुए प्रधानमंत्री ने बयान दिया, ‘मंत्रीजी गांव से आती हैं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए इस मामले को अब यहीं खत्म कर देना चाहिए.’ मंत्री ने भी चलते-फिरते खेद व्यक्त करने की रस्मअदायगी कर दी.

निरंजन ज्योति के बाद साक्षी महाराज हिंदू महिलाओं को चार बच्चा पैदा करने की नसीहत के साथ फिर से मैदान में वापस आ गए. यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि इस्लाम और ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले हिंदुओं को मौत की सजा दी जानी चाहिए. सरकार एक बार फिर से विपक्ष के निशाने पर आ गई. लेकिन अपने सांसदों और कार्यकर्ताओं पर कड़ा नियंत्रण रखनेवाले नरेंद्र मोदी आश्चर्यजनक रूप से चुप रहे. कांग्रेस ने अबकी बार मोदी सरकार की तर्ज पर अबकी बार बच्चे चार का नारा उछाला.

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