एसटीएफ जवान बड़े लोगों के सब्जी-दूध ढो रहे हैं

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बिहार में अपराध को लेकर रोजाना बयानों की टकराहट हो रही है. अपराध घटा है, बढ़ा है, ऐसी बयानबाजी, बहस का एक मसला हो सकता है लेकिन ये सच है कि राज्य में अपराधियों का हौसला बढ़ा है. पुलिस दबाव में दिख रही है और इसका कारण राजनीतिक है. यह कहा जाता रहा है और सच भी है कि 2005 से लेकर 2015 तक कभी भी जिले के एसपी वगैरह को आॅपरेट करने के लिए सीएम हाउस या पटना में सत्ता के किसी केंद्र से फोन नहीं गया लेकिन अब सूचना मिल रही है कि ऐसा हो रहा है. अब भी सीएम के लेवल पर या सीएम हाउस से ऐसा नहीं हो रहा लेकिन पटना में सत्ता के जो दूसरे केंद्र हैं वे ऐसा कर रहे हैं. ये एसपी को डिक्टेट करने की कोशिश कर रहे हैं. इससे ऊहापोह और ‘हाॅच-पाॅच’ की स्थिति बनी है. अव्यवस्था पैदा हुई है. यह तो एक बात हुई. इसके अलावा भी कई बातें हैं. अपराध पर बयानबाजी से बेहतर है कि कुछ ठोस उपाय हों. कुछ छोटी-छोटी बातों को समझने की जरूरत है. यह सामान्य तौर पर माना जाता है कि 50-55 की उम्र पार कर चुके पुलिस अधिकारियों को जिले में नहीं भेजना चाहिए. इस उम्र में आकर वे अपना रिटायरमेंट प्लान करने लगते हैं. पेंशन-पीएफ आदि पर ध्यान देने लगते है.

बिहार में दर्जनभर से अधिक जिले हैं, जहां पर इसी उम्र के लोग कमान संभाल रहे हैं या निर्णायक भूमिका में है. बात इतनी ही नहीं है. बिहार पुलिस में कोआॅर्डिनेशन का घोर अभाव है. यहां कानून व्यवस्था में सुधार के लिए एसटीएफ का गठन हुआ था. उसका असर भी राज्य में पड़ा था. छुटभैये गुंडे-मवाली से लेकर बड़े अपराधी तक उनसे भय खाने लगे थे लेकिन आज एसटीएफ के जवान या तो बाॅडीगार्ड बने घूम रहे हैं या फिर बड़े लोगों के बच्चों को स्कूल पहुंचा रहे हैं, सब्जी-दूध ढो रहे हैं. अब बिहार में बात-बात पर एसआईटी गठित करने का फैशन चल पड़ा है. हर अपराध के बाद तुरंत एसआईटी गठित कर दी जाती है. एसआईटी में कौन लोग होते हैं? वही थाने के थानेदार, डीएसपी वगैरह. सवाल यह उठता है कि क्या जिन थानेदारों को, डीएसपी को एसआईटी में शामिल किया जाता है, वे अपने नियमित काम से मुक्त होकर किसी केस में लगते हैं? इसका जवाब है, नहीं. वे नियमित काम भी कर रहे होते हैं और एसआईटी टीम में भी रहते हैं. ऐसे में किसी वारदात की जांच का क्या असर होगा, क्या कार्रवाई होगी, यह खुद ही सोच लेने वाली बात है. विशेश्वर ओझा हत्याकांड हो या बृजनाथी सिंह हत्याकांड, इन राजनीतिक हत्याओं को थानेदारों के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता.

इन दिनों तो एक गजब का प्रसंग सामने आया. नवादा विधायक राजवल्लभ यादव को गिरफ्तार करने गई पुलिस का कारनामा अजीब रहा. कुछ दिन पहले एक घटना घटती है. पुलिस सर्च वारंट का इंतजार करती है. ठीक है कि कानून के हिसाब से पहले सर्च वारंट जरूरी होता है लेकिन जब प्रथमदृष्टया अपराध की पुष्टि हो तो यह नियम कई बार टूटा भी है. लेकिन राजवल्लभ यादव के बलात्कार करने के एक सप्ताह बाद सर्च वारंट मिलता है. उसके बाद सर्च वारंट की खबर टीवी पर चलती है और फिर पुलिस सर्च करने जाती है, छापेमारी करती है. क्या कुछ हासिल होगा, यह तो सामान्य तरीके से सोचने वाली बात है. बिहार में कभी कुख्यात रहे शहाबुद्दीन को भी पुलिस ऐसे ही गिरफ्तार करने जाती थी. पुलिस के जाने के पहले खबरें चलती थीं- ‘शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस रवाना.’ फिर काहे को गिरफ्त में आते शहाबुद्दीन. इस तरीके से वह कभी गिरफ्त में नहीं आए. आखिर में सीबीआई से आए एक आईपीएस अधिकारी आरएस भट्टी को जिम्मा दिया गया. उन्हें एक रैंक बढ़ाकर डीआईजी बनाकर भेजा गया तब शहाबुद्दीन गिरफ्तार हुए.

बिहार में संगठित अपराध और फुटकर अपराध के अंतर को समझना होगा. दोनों से निपटने के तरीकों में बदलाव करना होगा. आज बिहार के जेल संगठित अपराध के सबसे सुरक्षित ठिकाने बन गए हैं. दरभंगा इंजीनियर हत्याकांड में संतोष झा गिरोह का हाथ सामने आया. संतोष झा जेल में ही हैं. विशेश्वर ओझा हत्याकांड में विश्वजीत मिश्र का नाम आ रहा है तो विश्वजीत मिश्र जेल में ही है. जेलों की क्या व्यवस्था है, इसे आंकना चाहिए. पूरे बिहार की जेलाें की बात छोड़िए पटना के बेउर केंद्रीय जेल को ही देख लेना चाहिए. वहां कभी जैमर लगा था. अब उसके ढांचे भी बचे हैं या नहीं, पता नहीं. ऐसी कई बातें हैं. अपराध पर सिर्फ तर्कबाजी, बहसबाजी करने और एक-दूसरे से सवाल-जवाब करने से कम नहीं होगा. अपराध कम है, ज्यादा है, घटा है या बढ़ा है, इससे राजनीतिक नफा-नुकसान हो सकता है, बिहार का भला नहीं होगा.

(निराला से बातचीत पर आधारित)