दोराहे पर राय

रह रहीं महिलाएं भी घरेलू हिंसा की शिकार हो सकती हैं.

इस अधिनियम ने जब प्रगतिशील लैंगिक राजनीति के दरवाजे खोले तब इसके दुरुपयोग के भी सवाल उठे. इसी वजह से शकील अहमद  और महेश गिरि जैसे नेता वैवाहिक बलात्कार के संदर्भ में संदेह प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 1998 के तहत कई सारे ऐसे मामले भी दर्ज कराए गए जो बाद में झूठे साबित हो गए थे. हालांकि जब कोई उन झूठे मामलों की ओर देखता है तो वह इसे घरेलू हिंसा के दर्ज न होने वाले मामलों की तुलना में नगण्य पाता है.

घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम का दुरुपयोग कोई भी महिला अपनी दुश्मनी निभाने के लिए कर सकती हैं, जैसे अनगिनत तर्क 1998 में इसे लागू होने से नहीं रोक सके बल्कि साल 2005 में घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम से इसे और मजबूती मिली. बाद में इसके दुरुपयोग किए जाने का तर्क हल्का साबित होने लगा जब ये पाया गया कि इस कानून की मदद से बड़ी संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा से लड़ाई  लड़ने में सक्षम हो गईं. 2005 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं के साथ काेई और नहीं बल्कि सबसे ज्यादा यौन हिंसा उनके पतियों ने ही की है. वैवाहिक बलात्कार से जुड़े मौजूदा कानून के तहत पति को छूट देकर भारत में यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई को पंगु बनाने का काम किया जा रहा है.

आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आशुतोष का कहना है कि शादी किसी भी पुरुष को उसकी पत्नी की इच्छा के विरुद्घ उससे संबंध बनाने की इजाजत नहीं देती. दूसरे शब्दों कहा जाए तो जब वैवाहिक बलात्कार की बात होती है तो मुख्य मुद्दा ‘सहमति’ ही होता है. लेकिन क्या कानून ने ‘सहमति’ और स्वीकार्य यौन हिंसा के बीच दीवार खड़ी कर दी है?

दो साल पहले भारतीय शयनकक्षों में जबरन कानून तब लागू किया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को गैरअपराध मानने के खिलाफ आदेश दिया. कोर्ट ने तब यह घोषित किया था कि आईपीसी की धारा 377 के अनुसार किसी भी तरह का सेक्स, चाहें वो सहमति से हो या असहमति से और जो अप्राकृतिक हो उसे अपराध माना जाएगा. तब ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ को लेकर कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी, लेकिन इसे पूरी तरह से नकार दिया गया.

वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी कर लेता है तब उसके मूल अधिकार खत्म हो जाते हैं

ऐसे में तमाम तरह की शैलियों में होने वाले यौन संबंधों को लेकर सवाल उठाए गए. उन्हें कानूनी और गैरकानूनी मानने को लेकर बहसों का दौर चला, लेकिन अदालत ने इन तमाम सवालों से किनारा करके सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों को बरकरार रखने तक सीमित रखा है. हालांकि अपने आदेश में अदालत ने संसद में धारा 377 की प्रासंगिकता पर बहस की जरूरत पर बल जरूर दिया. ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली’ शीर्षक वाले हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत यह प्रावधान किया गया है कि अगर दांपत्य जीवन में पति या पत्नी में से कोई भी साथ छोड़ देता है तो ऐसी स्थिति में अदालत उसे वापस उसके साथ घर जाने का आदेश दे सकती है.

इस मसले पर 1983 में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने कहा था कि यह कानून व्यक्तिगत यौन स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. विवाह को पवित्र संस्था मानने से इंकार करते हुए टी. सरीता बनाम वी. वेंकटसुबैया मामले में न्यायाधीश जे. चौधरी ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि धारा 9 वैवाहिक संबंधों में यौन संबंध बनाने या न बनाने के किसी व्यक्ति के अधिकार को राज्य को सौंप देती है. उन्होंने आदेश दिया कि इस तरह से अधिकारों का हस्तानांतरण किसी व्यक्ति की संपूर्णता को नुकसान पहुंचाएगा. साथ ही उसके या उसकी वैवाहिक और घरेलू निजता का उल्लंघन करेगा. हालांकि धारा 9 दंपति (पति या पत्नी) के बीच जबरन संबंध बनाने का अधिकार नहीं देती है. न्यायाधीश चौधरी का मानना था कि महिला को ऐसा करने पर बाध्य होना पड़ता है क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच खासकर वैवाहिक संबंधों में शक्ति पुरुष के हाथों में ही होती है. इस मामले में निष्कर्ष के तौर पर न्यायाधीश ने एक व्यक्ति विशेष के अधिकारों को ऊपर रखते हुए कहा था कि धारा 9, संविधान के अन्तर्गत अनुच्छेद 21 के तहत देश के नागरिकों को जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन है.

दुर्भाग्यवश, दिल्ली हाई कोर्ट ने न्यायाधीश चौधरी के फैसले को एक साल के भीतर ही पलटते हुए यह कहा था कि संविधान के प्रावधानों को बेडरूम में घुसपैठ की इजाजत देना ‘चीनी मिट्टी के बर्तन की दुकान में सांड़’ को प्रवेश की अनुमति देने जैसा है और इसके चलते विवाह नाम की संस्था बर्बाद हो जाएगी. उस साल के बाद में दिल्ली हाई कोर्ट के ‘विवाह संस्था को बचाए रखने’ की दलील से सुप्रीम कोर्ट भी सहमत दिखा. बहरहाल वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, लेकिन जो स्थितियां हैं उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी के बंधन में बंध जाता है तब उसके मूल अधिकार समाप्त हो जाते हैं. लोकतंत्र के लिहाज से हकीकत में यह अच्छी बात नहीं है.

 वरुण बिधुड़ी के सहयोग से

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