एक तरह की सामूहिक आकांक्षा है राष्ट्रवाद

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फोटो- अमरजीत सिंह

राष्ट्रवाद का जो मुद्दा है, संविधान में उसके सारे प्रावधान निहित हैं. क्योंकि भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में राष्ट्रवाद संविधान में आस्था और संवैधानिक प्रक्रियाओं से ही उभर सकता है. और कोई दूसरा तरीका शायद कामयाब नहीं हो. राष्ट्र के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कोई  प्राकृतिक तथ्य है, पेड़ और पत्थर की तरह है. यह तो हमेशा से बनने की प्रक्रिया में रहता है. राष्ट्र बनता तब है जब लोग उससे जुड़ते हैं. लोगों की आकांक्षाएं उससे पूरी होती हैं. लोग अपनी आकांक्षाओं को राष्ट्र की आकांक्षाओं के साथ जोड़कर देखते हैं. यह तो एक प्रक्रिया है. रही बात किसी को देशद्रोही करार देने की तो अभी जितनी बातें चल रही हैं वे बड़ी अजीब हैं. अभी लखनऊ विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर ने अखबार का एक लेख शेयर कर दिया तो उसको देशद्रोही कह दिया. इन सारी चीजों को राष्ट्रवाद नहीं कहेंगे, इसे तो गुंडाराज कहेंगे.

इसमें कहीं न कहीं तो जो सांस्कृतिक तत्व है, वह बहुत जटिल है. यहां इतनी सांस्कृृतिक विविधता है, उसमें आप कभी हिंदी का मुद्दा बनाते हैं, कभी तिरंगा मुद्दा बनाते हैं, कभी सरस्वती तो कभी वंदे मातरम मुद्दा बनाते हैं. वहां ऐसी चीजों को मुद्दा बनाना राष्ट्रवाद तो नहीं हो सकता. हिंदी को लेकर लंबा अभियान चला लेकिन उसमें भी हमको पता चला कि वह कितना खोखला विचार था. अब राष्ट्रवाद के नाम पर तिरंगा लहरा रहे हैं. तिरंगा तो हमारे देश का प्रतीक है. इसको हमें पु​न: स्थापित करने की क्या जरूरत पड़ गई? इसे इतने बड़े बड़े खंभों पर टांगने की जरूरत है? राष्ट्रवाद के नाम पर हम किस तरह के प्रतीकवाद का सहारा ले रहे हैं.

मैं तो इसके बारे में यही कहूं​गा कि लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए उनका ध्यान भटकाने की बात है. जहां जो है वह राष्ट्र को अपने तरीके से देख रहा है और यह समझ रहा है कि यही वह समय है जब मैं अपनी बात को प्रभावी तरीके से मनवा सकता हूं. समस्या यह मनवाने वाली बात है.

अब राजनीति में लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. आप जब धर्म और भावनाओं को भड़काते हैं तो आप समाज को और ज्यादा बांटते हैं. उसमें आप कुछ लोगों की पहचान करते हैं. कुछ लोगों काे चिह्नित करते हैं. यही फासीवाद है. जिस तरह से हिटलर ने पहले कम्युनिस्टों को फिर यहूदियों को चिह्नित किया. और व्य​वस्थित ढंग से लोगों को मारा. उसे लोग सही भी मानते थे. यहां तक कि लोग हिटलर को खून से चिट्ठियां लिखते थे. हिटलर के समय वाली स्क्रिप्ट को फिर से दोहराया जा रहा है

मेरे ख्याल है यह तो बहुत ही आपत्तिजनक ट्रेंड शुरू हो गया है. महाराष्ट्र की घटना बेहद आपत्तिजनक है, लेकिन देश भर में यही चल रहा है. कभी हम किसी दलित महिला को जाति के नाम पर झंडा नहीं फहराने देते. कभी किसी और तरीके से उन्हें प्रताड़ित करते हैं. दरअसल, हर तरफ भ्रम की स्थितियां बढ़ रही हैं और यह भ्रम राष्ट्र-राज्य की ओर से उत्पन्न किया जा रहा है. सत्ता पक्ष इस भ्रम की ​स्थिति में बहती गंगा में हाथ धो रहा है. उसके जो भी मकसद हैं, वह पूरा करने की कोशिश कर रहा है. क्योंकि जितना बंटा हुआ और ध्रुवीकृत समाज होगा उतना ही उनके मकसद पूरे होंगे. यह समाज को बांटने की कोशिश है और यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है.

सरकार जिन चीजों को बढ़ावा दे रही है, वह बहुत खतरनाक ट्रेंड है. सरकार की ओर से कोई स्पष्ट बयान नहीं आ रहा है. जबकि आप अगर इन मामलों में कोर्ट जाना चाहें, तब भी आपको पीटा जाएगा. डराया जाएगा. आपको धमकियां दी जाएंगी. जेएनयू मामले में पुलिस ही कह रही है कि हम ऐसा नहीं कर सकते इसलिए नहीं किया, लेकिन सरकार ने स्थिति साफ नहीं की. जेटली ने जो वक्तव्य दिया उसे ध्यान से सुनिए. वे कहते हैं कि कोर्ट परिसर में हमले के खिलाफ हूं लेकिन क्या आप अभिव्यक्ति के नाम पर देशद्रोही बात करने का अधिकार रखते हैं? कोर्ट में जो हुआ और जेएनयू में जो हुआ, दोनों को एक ही सूत्र में बांध दिया. उनकी इस बात का बहुत खतरनाक मतलब निकल रहा है. ये दोनों घटनाएं कारण और प्रभाव का संबंध रख सकती हैं, लेकिन ये एक सूत्र में बंधी हुई चीजें नहीं हैं. कोर्ट में जो हुआ वह पुलिस के सामने हुआ. कोर्ट में लोग न्याय मांगने आते हैं. लेकिन जेएनयू में जो घटना हुई वह एक अलग तरह की घटना है.

इन घटनाओं को देशद्रोह या देशभक्ति की श्रेणी में बांट दिया गया. इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है कि दोनों घटनाओं के कानूनी और संवैधानिक पहलू क्या हैं. चैनलों ने बेहद बुरी भूमिका निभाई. एक-दो चैनलों को छोड़ दें तो वे न सही बात को आगे बढ़ा रहे हैं, न कोई गंभीर बहस कर रहे हैं. वे घटना आधारित रिपोर्टिंग कर रहे हैं, जिसका मकसद शायद बस ​टीआरपी बटोरना है.

राष्ट्रवाद की अवधारणा अलग है. अगर हम यूं कहें कि राष्ट्र के प्रति प्रेम, राष्ट्र के प्रति बलिदान, राष्ट्र के प्रति समर्पित होना, उसके प्रति वफादार रहना ये कुछ चीजें जो आम जनता के समझ में आती हैं. राष्ट्रवाद एक अवधारणा है, एक सपना है. यह एक मुकाम है, जिसके लिए कोशिश की जाती है. राष्ट्रवाद एक तरह की सामूहिक आकांक्षा है, लोगों की स्वतंत्रता की आकांक्षा. उनको पूरा करने के ​जो तरीके बताए गए हैं कि जनतांत्रिक प्रक्रिया होगी, कानून के समक्ष समता होगी, राज्य सबके लिए समान अवसर पैदा करेगा, सबके लिए बराबर जगह होगी, समानता का भाव होगा, ये सब तरीके हैं जो राष्ट्र की अवधारणा को पूरा करते हैं. लेकिन आम आदमी को जब इस तरह बताया जाए तो यह सब शायद उसे अच्छी तरह समझ में न आए. उसे राष्ट्रवाद की पितृपक्षीय यानी   मर्दाना व्याख्या ज्यादा समझ में आती है. जैसे राष्ट्र के लिए बलिदान देना, बॉर्डर पर शहीद हो जाना, सेना, युद्ध आदि. उसे लगता है कि यही राष्ट्र के स्तंभ हैं. इनको मानना ही सबसे बड़ी चीज है. ऐसा मानना बिल्कुल गलत तरीका है. राष्ट्र में और राष्ट्र के निर्माण में सबकी अपनी अलग-अलग जगह है. इसीलिए राष्ट्र निर्माण की बातें की गई हैं, क्योंकि राष्ट्र धीरे-धीरे सबके सहयोग से बनता है. और कोई भी राष्ट्र जो जनसंख्या केंद्रित होता है, जनसंख्या के खिलाफ नहीं चल सकता. जब समाज में बिखराव है, असमानता है, समानता नहीं है, तो उसमें राष्ट्र वह हो जाता है, जैसा प्रभावशाली लोग उसे व्याख्यायित करते हैं. हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान लोगों ने इस पूरी अवधारणा को बहुत अच्छी तरह से रखा है कि राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया में एक-दूसरे की सुरक्षा, एक-दूसरे का सम्मान, देश के प्रति सम्मान यह सबसे बड़ी चीज है. हम राष्ट्रद्रोह  और राष्ट्रवाद पर एक साथ बहस कर रहे हैं, लेकिन इस बीच यह बात छूट जा रही है कि जो लोग भ्रष्टाचार करते हैं, वे राष्ट्रद्रोह करते हैं. दूसरी तरफ, जो अपनी आकांक्षाएं जाहिर करता है, जो अपने सपनों को पूरा करने की बात करता है, जो अपनी सोच को जाहिर करता है, उसे राष्ट्रद्रोह कह दिया जाता है. यह बहुत गलत और तंगमिजाजी का नतीजा है. इसका प्रभावी खंडन होना चाहिए.

आप इतिहास उठाकर देखिए कि इतिहास में जहां भी बुरी स्थितियां पैदा हुईं हैं, वहां सबसे पहले चिंतकों को निशाने पर लिया जाता है. जो मुक्त चिंतन कर सकता है, जो अपनी बात को प्रभावी ढंग से रख सकता है, पहले उसको निशाना बनाया जाता है. बुद्धिजीवी वर्ग, उसमें भी जो मुखालफत करते हों, वे सबसे पहले निशाने पर आ जाते हैं. आपातकाल के समय हमारे यहां बहुत बड़ा तबका था जो विरोध में उतरा था. अब बहुत कम लोग बचे हैं जो असहमति की आवाज बन सकते हैं. अब लोग खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं. उनके लिए यह भी ठीक, वह भी ठीक.

अब राजनीति में लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. आप जब धर्म और भावनाओं को भड़काते हैं तो आप समाज को और ज्यादा बांटते हैं. उसमें आप कुछ लोगों की पहचान करते हैं. कुछ लोगों काे चिह्नित करते हैं. यही फासीवाद है. जिस तरह से हिटलर ने पहले कम्युनिस्टों को फिर यहूदियों को चिह्नित किया. और व्य​वस्थित ढंग से लोगों को मारा. उसे लोग सही भी मानते थे. यहां तक कि लोग हिटलर को खून से चिट्ठियां लिखते थे. हिटलर के समय वाली स्क्रिप्ट को फिर से दोहराया जा रहा है. फासीवाद का सबसे उम्दा उदाहरण हिटलर था, उसे हमारे यहां पुनर्जीवित किया जा रहा है. सत्ताधारी वर्ग हिंदुस्तान की आकांक्षाओं का 25 प्रतिशत भी पूरा नहीं कर पाया है. उसको यह बहुत आसान लगता है कि लोग इसी में उलझे रहें.

जहां तक देशभक्ति की कसौटी पर लोगों को तौलने की बात है तो सबसे पहले आरएसएस खुद इस पर खरा नहीं उतरेगा. किसी पैमाने पर किसी सवाल का जवाब इन्होंने आज तक दिया ही नहीं है. जो सवाल वे दूसरों से पूछ रहे हैं, वे खुद बताएं कि राष्ट्रीय आंदोलन में उनका क्या योगदान है? वे बताएं कि उनके नायकों ने क्या भूमिका अदा की? वे इतना ही बता दें कि इस राष्ट्र को वे कितना समझ पाए?

इन्होंने दलित उत्पीड़न और उनके अधिकारों पर कभी कोई पोजीशन नहीं ली. इन्होंने औरत और मर्द की समानता पर कोई पोजीशन नहीं ली. गैर हिंदुओं के प्रति इनका बहुत ही नकारात्मक रवैया रहा है. इनकी शाखाओं में मैंने खुद सुना ​है कि वहां ​किस तरह की बातें होती हैं.

इस सब चीजों से निपटने के लिए मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत होती है, लेकिन आजकल राजनीतिक नेतृत्व है कहां? प्रतिरोध और असहमति की आवाजें खत्म हो रही हैं. यह संस्कृति थोड़ा बहुत जेएनयू में ही बची है. नई पीढ़ी अगर सवाल नहीं उठाती है, वह पहले से चली आ रही चीजों को ही पुख्ता मानती है तो यह समाज के विकास के लिए बहुत खतरनाक है. हो सकता है कि युवा पीढ़ी इन सब सवालों पर मंथन करे तो वह एक निष्कर्ष पर पहुंचे.

(लेखक जेएनयू शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं )

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)