चिराग तले अंधेरा

Main Picपारले-जी के एक छोटे पैकेट में लगभग 316 कैलोरी होती है. औसत रूप से स्वस्थ व्यक्ति को एक दिन में लगभग 2500-3000 कैलोरी की जरूरत होती है. अमित पांडेय दिन में दो बार यानी दोपहर के खाने के समय और रात के खाने में पारले-जी के इस छोटे पैकेट से गुजारा कर रहे थे. ऐसा कई हफ्तों तक चला और आखिरकार भूख के कारण उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया और लखनऊ के एक अस्पताल में अमित ने दम तोड़ दिया.

मगर ये अमित पांडेय हैं कौन और आखिर क्यों उन्हें ऐसी मौत मिली? अमित सहारा समूह के टीवी न्यूज चैनल ‘समय’ (उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड) में असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे और खराब आर्थिक स्थिति के चलते बिस्कुट खाकर जीने को विवश थे. उन्हें तीन महीनों से वेतन नहीं मिला था और स्वाभिमानी अमित को दोस्तों से आर्थिक सहायता मांगना गवारा नहीं था. वो अपनी भूख को नजरअंदाज करते हुए इस उम्मीद में संस्था के लिए काम करते रहे कि कभी तो प्रबंधन वेतन देगा. अमित की मौत के बाद चैनल ने ये बकाया राशि उनके परिजनों को दी.

टीआरपी के शोरगुल में उठती हेडलाइंस और ब्रेकिंग न्यूज की भूलभुलैया में अमित की मौत की खबर कहीं गुम हो गई या यूं कहें कि गैर-जरूरी समझकर नजरअंदाज कर दी गई. ये मौत पूरी भारतीय मीडिया के लिए आंखें खोलने वाली हो सकती थी पर स्थानीय अखबार के पन्नों में एक छोटी खबर बनकर रह गई. मीडिया संस्थानों के संपादकों और प्रबंधन ने भी इससे नजर फेरना ही ठीक समझा- शायद पहली बार नहीं, न ही आखिरी बार. अमित की मौत से मीडिया पर कोई फर्क नहीं पड़ा. सहारा मीडिया के विभिन्न विभागों में कार्यरत हजारों कर्मचारी अब भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें कई महीनों से तनख्वाह नहीं मिली है- कुछ बताते हैं कि छह महीनों से वेतन नहीं मिला क्योंकि प्रबंधन कहता है कि उसके पास पूंजी ही नहीं है.

जुलाई, 2012 में महुआ टीवी चैनल के 150 से ज्यादा कर्मचारियों को ह्यूमन रिसोर्स (एचआर) विभाग द्वारा सूचना दी जाती है कि चैनल के मालिक पीके तिवारी ने चैनल को बंद करने का निर्णय लिया है. मगर इस बात पर एचआर ने चुप्पी साध ली कि कर्मचारियों का बकाया वेतन कब दिया जाएगा और चैनल बंद करने के हर्जाने के रूप में उन्हें क्या मिलेगा. एक दिन पहले तक वहां सब सामान्य था. इस सूचना को देने के लिए एचआर ने योजनाबद्ध तरीके से इतवार का दिन चुना, क्योंकि सप्ताहांत पर कम ही कर्मचारी काम पर आते हैं, इसलिए उनके विरोध की संभावना भी कम हो जाती है. हालांकि कुछ ही मिनटों में सभी कर्मचारी नोएडा फिल्म सिटी में इकट्ठा होकर चैनल परिसर में विरोध पर बैठ गए और तब तक विरोध प्रदर्शन करने की बात कही जब तक उनके सभी भुगतान मिल न जाए. प्रबंधन ने पुलिस को बुला लिया, पानी की सप्लाई बंद करवा दी, बाउंसरों को बुलाने की भी धमकी दी पर कर्मचारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा. विडंबना देखिए कि ये सब देश के उस मीडिया हब में हो रहा था, जहां देश के लगभग सभी बड़े हिंदी और अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं. इन चैनलों के वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों से बार-बार निवेदन किया गया कि वो भी इस विरोध का साथ दें पर अपने साथी पत्रकारों के साथ हो रहा ये अन्याय इन चैनलों की टिकर लाइन में चलने वाली खबर में भी नहीं पहुंच सका. ये प्रदर्शन तीन दिनों तक चला जिसके बाद महुआ टीवी प्रबंधन कर्मचारियों की मांगें मानने के लिए विवश हो गया.

फिर अचानक एक दिन, बिना कोई कारण बताए महुआ टीवी के 125 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और पूरा भारतीय मीडिया चुप्पी साध लेता है! आज तीन साल बाद भी कई कर्मचारी बेरोजगार हैं तो कईयों ने आजीविका चलाने के लिए पत्रकारिता छोड़कर दूसरा काम शुरू कर दिया है. इन हालातों से जाहिर होता है कि कैसे भारत के मीडियाकर्मियों का एक बड़ा वर्ग अपने काम के साथ न्याय करने के लिए अपने कार्यस्थल पर लगातार आ रही ऐसी विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है.

नवंबर 2014 में, एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पी7 पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ में ये खबर चलने लगी : ‘वेतन को लेकर हुए विवादों के चलते पी7 न्यूज चैनल हुआ बंद’. ये खबर चैनल के आउटपुट डेस्क के कर्मचारियों के द्वारा चलाई गई थी, जिन्हें पिछले तीन महीनों से तनख्वाह नहीं मिली थी. हालांकि इन कर्मचारियों को निराशा ही हाथ लगी. उन्होंने सोचा था कि उनके विरोध के इस तरीके के बाद साथी मीडियाकर्मियों का सहयोग और सहानुभूति मिलेगी, लोग उनके समर्थन में आगे आएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. जब तक ये खबर चली चैनल का प्रसारण ‘ऑफ एयर’ हो चुका था. ये खबर सिर्फ दफ्तर के परिसर तक ही सीमित रह गई. इसके बाद कर्मचारियों ने वेतन भुगतान न करने को लेकर प्रबंधन के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया और चैनल निदेशक के केबिन के आगे धरने पर बैठ गए. उनका कहना था कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होतीं वे वहां से नहीं हटेंंगे पर नोएडा पुलिस ने उन्हें वहां से खदेड़ दिया. इन कर्मचारियों ने साथी पत्रकारों और मीडिया के बड़े नामों के सहयोग के लिए ‘जस्टिस फॉर पी7 एम्प्लॉय’ नाम से एक फेसबुक पेज भी बनाया. पर जब पी7 के ये कर्मचारी अपने प्रबंधन से न्याय के लिए लड़ रहे थे, बाकी मीडिया चैनलों और अखबारों ने इस ओर से आंखें मूंद रखी थीं. वाह! अपने पेशे के लिए क्या एकजुटता दिखाई!

यहां अगर आपको ये लगता है असंवैधानिक रूप से बर्खास्त किए जाने, विरोध प्रदर्शन करने के बावजूद भी इन कर्मचारियों को अपने मीडिया के साथियों का समर्थन नहीं मिला, ये मुख्यधारा की खबरों में इसलिए जगह नहीं बना पाए क्योंकि ये किसी नामी ग्रुप के चैनल से नहीं जुड़े थे तो ये गलत है.

16 अगस्त 2013 को नेटवर्क 18 ने अपने 300 कर्मचारियों को कॉस्ट कटिंग यानी खर्च में कटौती के नाम पर नौकरी से निकाल दिया. सीएनएन-आईबीएन में रिपोर्टर, कैमरामैन और तकनीशियन के बतौर काम कर रहे ढेरों कर्मचारियों के लिए ये सदमे की तरह था. इस तरह सामूहिक रूप से लोगों को बर्खास्त करने की खबर जंगल की आग की तरह फेसबुक और ट्विटर पर फैली पर इसके खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाने की बजाय मुख्यधारा के मीडिया ने फिर चुप रहना बेहतर समझा. निकाले गए अधिकतर कर्मचारी वे थे जो कथित रूप से एक समूह विशेष का हिस्सा नहीं थे, जिस वजह से ये ‘कॉस्ट-कटिंग’ का कारण महज बहाना लगता है. चैनल के एचआर विभाग को निकाले जाने वाले नामों की एक सूची दी गई थी और उन्होंने पूरी बेशर्मी दिखाते हुए इस पर अमल भी किया. एचआर ने इन कर्मचारियों को ‘टर्मिनेशन लैटर’ देते हुए दफ्तर से 10 मिनट के अंदर बाहर निकल जाने को कहा था. इस सामूहिक बर्खास्तगी पर उस समय सीएनएन-आईबीएन के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट कर ये प्रतिक्रिया दी, ‘चोट और दर्द अकेले ही सहने होते हैं. आपको अकेले ही शोक मनाना चाहिए. गुडनाइट…’ उस वक्त आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष थे, जिन्होंने बाद में आम आदमी पार्टी जॉइन की, मगर इस बर्खास्तगी पर उनके पास भी मौन के अलावा कोई जवाब नहीं था.

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इसके बाद इन निष्कासित कर्मचारियों ने विरोध करने की ठानी और इसके लिए आनन-फानन में ही ‘पत्रकार एकजुटता मंच’ बनाया गया और नोएडा फिल्म सिटी में नेटवर्क 18 के दफ्तर के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ. मीडिया के किसी चर्चित, प्रभावशाली व्यक्ति के इनके साथ न आने, यहां तक कि किसी समाचार चैनल द्वारा इस घटनाक्रम को कवर न करने, तवज्जो न देने से एक बार फिर ये साबित हो गया कि कैसे मीडिया अपने ही साथियों के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने से मुंह चुराता है! कैसे जरूरत पड़ने पर भी, मीडिया को चलाने वाले अपने ही साथी पत्रकारों और सहकर्मियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ खामोश रहे!

अलग-अलग समय पर हुईं ये चार घटनाएं, एक ही-सा कारण, मीडिया द्वारा एक समान नजरअंदाजी! क्यों मीडिया में इसके अपने कर्मचारियों-पत्रकारों आदि के साथ हुए इस अन्याय को प्रसारित करने का साहस नहीं है? वो आखिर इतनी सहनशीलता क्यों दिखा रहे हैं? जवाब वरिष्ठ पत्रकार जेपी शुक्ल देते हैं, ‘अधिकतर सभी मीडिया संस्थान, खासकर टीवी चैनलों के मालिक बड़े कॉरपोरेट घराने, रियल एस्टेट या चिट-फंड कंपनियों से जुड़े लोग हैं. मीडिया एक छोटा क्षेत्र है जहां ऊंचे पदों पर बैठे सभी लोग एक-दूसरे को जानते हैं, ऐसे में अपने ही लोगों के खिलाफ कौन रिपोर्ट करेगा?’

यहां एक और विडंबना भी है. अपने साथियों के खिलाफ हो रहे अन्याय पर मौन हो जाने वाला मीडिया किसी ‘आउटसाइडर’ के द्वारा इनकी कार्य-पद्धति पर सवाल उठाने पर बौखला के उसके खिलाफ हो जाता है. नवंबर 2011 में भारतीय प्रेस काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मीडिया पर एक ऐसी ही तीखी टिप्पणी की थी. सामान्य रूप से पूरे मीडिया के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए काटजू ने कहा था कि मीडिया में अधिकांश लोग बहुत ही निम्न स्तर का बौद्धिक कौशल रखते हैं, साथ ही उन्हें अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन या साहित्य के बारे में बिलकुल भी ज्ञान नहीं है. इस पर और गंभीर होते हुए जस्टिस काटजू ने यहां तक कहा कि भारतीय मीडिया लोगों के हित के लिए काम नहीं करता.

काटजू के इस बयान पर मीडिया के हर धड़े में बौखलाहट देखी गई. भाषा और क्षेत्र के बैरियर को तोड़ते हुए सभी टीवी चैनल एक स्वर में काटजू की निंदा कर रहे थे. ‘काटजू ने हदें पार कीं’ और ‘सठिया गए हैं काटजू’ दो ऐसी हेडलाइंस थीं जो चैनलों पर लगातार चल रहीं थीं. ये निसंदेह एक ऐसी बात थी जहां मीडिया अपनी गलतियों की अवहेलना करते हुए उन पर गर्व का अनुभव कर रहा था.

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चैनलों से मीडियाकर्मियों के निकाले जाने की खबरें सुर्खियां नहीं बटोर पातीं. मीडियाकर्मी अपने ही साथियों के साथ हो रहे अन्याय से किनारा कर लेते हैं

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वरिष्ठ पत्रकार और निजी हिंदी समाचार चैनलों की पहली द्विभाषी एंकर सुधा सदानंद बताती हैं, ‘टीवी समाचारों के संदर्भ में ‘विश्वसनीय मीडिया’ कहना ही एक विरोधाभास है, ठीक उसी तरह जैसे ‘दयालु तानाशाह’ कहना. वैसे दिलचस्प बात ये है कि चैनलों के एडिटर-इन-चीफ बिलकुल ऐसे ही व्यवहार करते हैं. कई बार खबरें इकट्ठी करके उनका प्रसारण करना एक गिरोह की कार्य-पद्धति जैसा होता है, जहां ‘मुखिया डॉन’ किसी नेता/अभिनेता/एनजीओ/फिल्म के खिलाफ सुपारी दे देता है और एंकर बिना कोई शोध किए, बिना पृष्ठभूमि जाने चिल्ला-चिल्लाकर उस बात को सनसनीखेज खबर में बदल देता है.’

काटजू की मीडिया पर टिप्पणी पर जहां टीवी मीडिया पूरे जोर-शोर से उनके खिलाफ दलीलें दे रहा था, वहीं अगर सोशल मीडिया की मानें तो लोग जस्टिस काटजू की बात से सहमत लग रहे थे. मीडिया की उस आक्रामक प्रतिक्रिया ने मीडिया के प्रति आम लोगों के दृष्टिकोण को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया था. अब दर्शक और पाठक मीडिया के लोगों की विश्वसनीयता पर प्रश्न करने लगे थे. मीडिया आलोचक सुदीप दत्ता कहते हैं, ‘जस्टिस काटजू का बयान पत्रकारिता की गंभीरता के प्रति उनकी जागरूकता का परिणाम था, मीडिया यहां इसे अपनी कमजोरियों को सुधारने के लिए प्रयोग कर सकता था पर उन्होंने नाराज होकर असल संदेश को ही कुचल दिया.’

जिन लोगों ने समाचार चैनलों, खासकर हिंदी समाचार चैनलों के लिए काम किया है वे अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी या प्रमोशन का मिलना आपकी शैक्षणिक योग्यता और पत्रकारिता कौशल के इतर कई अन्य बातों पर निर्भर करता है. एक राष्ट्रीय हिंदी समाचार चैनल के असिस्टेंट आउटपुट एडिटर बताते हैं, ‘जब संपादक किसी को नौकरी पर रखते हैं तो क्षेत्रवाद और किसी विशेष के लिए तरफदारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और फिर ऐसे पत्रकार से आप कैसे काम की उम्मीद रखेंगे जो अपनी योग्यता नहीं बल्कि किसी के प्रभाव के बलबूते चैनल में आया है?’ पर फिर अब योग्य पत्रकारों की आवश्यकता ही किसे है?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में देखें तो एक रिपोर्टर की भूमिका अब बस एक ‘साउंड-बाईट’ एकत्र करने वाले की हो गई है. संपादकों को अमूमन न्यूज रूम में रिपोर्टरों को धमकाते हुए सुना जा सकता है, ‘मैं एक कैमरामैन को ही किसी नेता की साउंड-बाईट लाने को भेज सकता हूं तो मुझे तनख्वाह देकर रिपोर्टर रखने की क्या जरूरत है?’

चैनलों में सुबह-सुबह होने वाली संपादकीय मीटिंग्स में दिनभर की खबरों के लिए जो एजेंडा बनाया जाता है वो मूलतः उस दिन के अखबार की खबरों पर आधारित होता है. रिपोर्टर्स को किसी मुद्दे विशेष पर किसी नेता की बाईट (मुख्यतः उनकी प्रतिक्रिया) लाने की जिम्मेदारी दी जाती है और ओबी वैन से कुछ लाइव फीड देने को कहा जाता है. अब खबरें फील्ड में नहीं बल्कि न्यूज रूम में बनती हैं. चैनल को गेस्ट-कोऑर्डिनेटर को कुछ ‘विशेषज्ञों’ को बुलाने को कहा जाता है. हर चैनल के पास अपने चुनिंदा विशेषज्ञ होते हैं. खबरें भले ही बदलती रहें पर ये विशेषज्ञ शायद ही कभी बदलते हैं. इन विशेषज्ञों में बेकार नेता, कुछ वरिष्ठ पत्रकार और कुछ समाजसेवी होते हैं. सुबह से ही इन बहसों के प्रोमो चैनल पर दिखते हैं और फिर घिसे-पिटे छह से आठ खिड़कीनुमा ग्राफिक में प्राइम टाइम पर इस मनोरंजक बहस को खबर के रूप में पेश किया जाता है. सुधा कहती हैं, ‘रिपोर्टर्स अब बेकार हो चुके हैं और डेस्क पर वो लोग हैं जिनमें बाहर यानी फील्ड में जाकर काम करने की कूवत ही नहीं है. महज तस्वीरों के लिए स्क्रिप्ट लिखना! क्या कोई बताएगा ये क्या मूर्खता है? खैर मुझे इस बारे में नहीं जानना कि किस खूबी के आधार पर प्राइम टाइम के लिए एंकर चुना जाता है. मुझे एक ऐसा चैनल बता दीजिये जहां पर एंकर शीर्ष पद का न हो, या ऐसा कोई खूबसूरत चेहरे का मालिक जिसे साधारण प्रश्न भी प्रोडक्शन कंट्रोल रूम से बताए जाते हों. हां अपवाद हैं पर वो बहुत ही कम हैं.’

मीडिया में ऐसी बातें इसलिए भी देखी जाती हैं क्योंकि अच्छी खोजी रिपोर्ट्स और सामाजिक रिपोर्ट्स के लिए निवेश की भारी कमी है. अधिकांश चैनल घाटे में चल रहे हैं तो ऐसे में उनका फोकस बस यही रहता है कि कैसे रिपोर्टर को बिना फील्ड में भेजे, दफ्तर में बैठे-बैठे ही ज्यादा से ज्यादा खबरें इकट्ठी कर ली जाएं- इस अभ्यास को सामान्यतया ‘आर्मचेयर जर्नलिज्म’ यानी कुर्सी पर बैठ कर की जाने वाली पत्रकारिता के रूप में जाना जाता है. और साफ सी बात है कि इस तरह बिना जमीनी विश्लेषण के की गई इस रिपोर्टिंग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना लाजिमी है. जमीनी रिपोर्टिंग की कमी की भरपाई स्टूडियो में होने वाली डिबेट या बहस से की जाती है, जो या तो निरुद्देश्य होती है या वही पुरानी बातें दोहराती हैं.

एक नामी हिंदी चैनल के संपादक बताते हैं, ‘ये सब टीआरपी का खेल है. हम वही दिखाते हैं जो ज्यादा बिकता है और हमें टीआरपी के चार्ट में ऊपर ले जा सकता है. लोग यही देखना चाहते हैं. कितने दर्शकों में किसी सामाजिक मुद्दे पर तीस मिनट लंबी डाक्यूमेंट्री देखने का धैर्य होता है?’ संयोग की बात ये है कि ये संपादक चैनल में दोहरी भूमिका निभाते हैं. पहली तो खबरों को देखना और दूसरा चैनल में रेवेन्यू जनरेशन यानी धन की आवाजाही का भी ध्यान रखना. ये संपादक आगे बताते हैं, ‘रिपोर्टर्स की महत्ता धीरे-धीरे कम होती जा रही है. मैं एजेंसीज द्वारा दी गई साउंड-बाईट के आधार पर 24 घंटे का एक समाचार चैनल चला सकता हूं. तो ऐसे में उसी नेता की वही साउंड बाईट लाने के लिए रिपोर्टर रखना सिर्फ फिजूलखर्ची होगी!’

क्या पत्रकारिता के बाहर की दुनिया न्यूजरूम, पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के प्रबंधन के बीच में होने वाली इन घटनाओं से वाकिफ है? शायद हां, क्योंकि जिस तरह की खबरों और विचारों को इकठ्ठा किया जाता है, इनका प्रसारण होता है उससे लोग प्रभावित होते हैं. न्यूज चैनलों के माध्यम से ही वो अपने आस-पास से लेकर दुनियाभर की गतिविधियों को जान पाते हैं और बेशक समाचारों का ये बदलता स्तर उनके जीवन को प्रभावित करता है.

खबरों के बनने और उन्हें प्रसारित करने में दूसरा प्रभावी पहलू किसी विशेष दृष्टिकोण की ओर झुकाव भी है. कोई भी दर्शक बहुत ही आसानी से बता सकता है कि कौन-सा चैनल किस पार्टी या विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है. ऐसे मुद्दे जहां पर घोर असहमति होती है वहां कई बार केवल एक ही पक्ष के हित की बात की जाती है और ईमानदारी से सच और असल तथ्यों को जानने की कोशिश नहीं होती. ऐसे में भ्रामक खबरों का प्रसार बढ़ता है. उदाहरण के लिए, अन्ना हजारे को या तो ‘दूसरा गांधी’ कहा जाता है या बदमाशों के दल का नेता! सामान्य रूप से गंभीर खबरों के गिरते स्तर के पीछे गैर-जरूरी समाचार चैनलों का लगातार मुख्यधारा में बने रहना भी है. उलटे-सीधे, निरर्थक नाईट ऑपरेशनों ने भी मीडिया का खासा नुकसान किया है. ऐसे कई चैनल किसी चुनाव के समय की अंधी दौड़ में शुरू होते हैं. ये किसी पार्टी विशेष का प्रचार करते हैं, विज्ञापनों से अपने हिस्से का धन बटोरते हैं और फिर काम खत्म होते ही रातोंरात चैनल बंद करके, सैकड़ों कर्मचारियों को बेरोजगार करते हुए निकल जाते हैं. ऐसा ही केस ‘जिया न्यूज चैनल’ का है जो 2014 के लोकसभा चुनावों के समय बड़े जोर-शोर से शुरू हुआ और चुनाव परिणाम आने के कुछ ही महीनों के अंदर बोरिया-बिस्तर समेटकर चलता बना.

मीडिया पर कम होते भरोसे के पीछे चिट-फंड कंपनियों का चैनल मालिक होना है. राष्ट्रीय चैनल न्यूज एक्सप्रेस का उदाहरण देखिए. इस चैनल की मालिक एक चिट-फंड कंपनी है और चैनल की संपादकीय नीतियां मालिक की जरूरतों के हिसाब से निर्धारित की जाती हैं.

ढेरों मुश्किलों और धमकियों से जूझ रहा मीडिया अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहा है, लोकतंत्र में तो मीडिया का महत्त्व और बढ़ जाता है, ऐसे में वर्तमान भारतीय मीडिया एक दोराहे पर खड़ा हुआ है. आज इनके द्वारा लिया गया कोई भी कदम भले ही सही हो या गलत, सोशल मीडिया पर उसका गहरा विश्लेषण किया जाता है. ये सारी जिम्मेदारियां उस पत्रकार की समझी जाती हैं जो किसी हलवाई की दुकान के मजदूर जितनी असुरक्षा में जी रहा है, जिसके ऊपर काम संबंधी सारे उत्तरदायित्व हैं पर उसके अधिकारों के बारे में कोई बात नहीं है. ये शायद इनकी नियति बन गई है पर क्या ये उचित है?

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