बेडरूम में कानून का क्या काम

Demonstrators hold placards as they take part in a protest rally in solidarity with a rape victim from New Delhi in Mumbai

जॉन मोरटाइमर ने क्लासिकल रमपोल श्रृंखला में लिखा है, ‘विवाह और कत्ल दोनों अनिवार्य रूप से आजीवन कारावास की ओर ले जाते हैं.’ इसका अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल है कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक ठहराए जाने के सवाल पर पर होरेेस रमपोल की प्रतिक्रिया क्या होती बात को लेकर किसी को अचरज हो सकता कि यह बात रमपोल ने वैवाहिक बलात्कार के अापराधीकरण के सवाल पर क्या कहा होता? क्योंकि जिस हिल्डा रमपोल से उन्होंने शादी की थी उनके बारे में उनका कहना था कि वो एक ऐसी महिला थी जिसकी आज्ञा का पालन आपको करना ही होगा.

भारत के संदर्भ में देखें तो यहां महिला की सहमति के बिना उससे संबंध बनाने को ही मुख्यतः बलात्कार के रूप में परिभाषित किया जाता है. अगर बलात्कार का आरोप साबित हो जाता है तो अपराधी को दंडस्वरूप सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा सुनाई जा सकती है. हालांकि भारतीय कानून विवाहित लोगों के साथ अलग व्यवहार करता है. भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अनुसार ‘किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ, जिसकी उम्र 15 साल से कम न हो, बनाया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं है.’ वकीलों के बीच इस परिच्छेद को बलात्कार के वैवाहिक स्तर पर मिली रियायत के रूप में जाना जाता है.

यह तार्किक रूप से इस बात का अनुपालन करता है कि वर्तमान कानून के अनुसार पत्नी का बलात्कार नहीं किया जा सकता है. हालांकि आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद भारतीय दंड संहिता में शामिल की गई धारा 376 साथ ही एक अपवाद भी प्रस्तुत करती है. यह पति से अलग रह रही पत्नी के साथ बिना उसकी इच्छा के शारीरिक संबंध बनाने को सजा के दायरे में तो लाती है पर इसे बलात्कार नहीं कहती.

जस्टिस जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट में पति को बलात्कार के अपराध से मिली रियायत को रद्द करने का सुझाव दिया गया था. तात्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को पूरी तरह से स्वीकार करने से इंकार कर दिया और धारा 376 बी को कानूनी जामा पहना दिया, जो पति द्वारा जबरन शारीरिक संबंध बनाने को केवल उस परिस्थिति में अपराध मानती है जिसमें पत्नी, पति से अलग रह रही हो.

यह ध्यान में रखते हुए कि आपराधिक कानून में 2013 में हुए संशोधन को अभी दो साल भी नहीं गुजरे हैं और इसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता के बारे में तयशुदा तरीके से कुछ कहने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं लिया गया है, कोई भी यह नहीं चाहेगा कि न्यायिक अवस्थिति इतनी जल्दी सवालों के घेरे में आ जाए. मैं यहां उस विवाद का जिक्र करना चाहूंगा जो अभी पिछले दिनों उस वक्त भड़क उठा जब डीएमके की कनिमोझी द्वारा पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हरीभाई पार्थीभाई चौधरी ने कहा, ‘वैश्विक स्तर पर वैवाहिक बलात्कार की जो अवधारणा है उसे समुचित रूप से भारतीय संदर्भ में लागू नहीं किया जा सकता है.’

इसके बाद स्त्रीवादी आंदोलन और इसके समर्थकों ने इस बात पर जोर देते हुए हंगामा शुरू कर दिया कि वैवाहिक स्तर पर यह रियायत देना, जिसे बहुत पहले ही खत्म कर दिया जाना चाहिए था, कानून में अराजकता को बढ़ावा देता है. वे जोर देकर कहते हैं कि वैवाहिक स्तर पर यह रियायत इस सोच से संचालित है कि शादी के बाद कोई महिला हमेशा के लिए पति की इच्छा पर शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमत हो चुकी है. वे तर्क देते हैं कि वैवाहिक स्तर पर मिली इस रियायत को खत्म करने के लिए यह जरूरी होगा कि शारीरिक संबंध बनाने से जुड़े हर कार्य में, यहां तक की विवाह संस्था के भीतर भी, हर मौके पर विशिष्ट सहमति जरूरी हो. एक धार्मिक संस्कार के रूप में विवाह संस्था उन विचारों से अलग है जो महिला अधिकारों की कीमत पर प्रतिगामी  सांस्कृतिक और धार्मिक नियमों को थोपती है.

पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों में दोनों की सहमति मानी जाती है. ऐसा न हो कि दोनों को एक-दूसरे को छूने से पहले सहमति लेने की जरूरत पड़े

ऐसे तर्क लाभदायक ओर युक्तिसंगत दिख सकते हैं लेकिन मेरे जैसा संदेहवादी इसकी व्यवहारिकता पर सवाल खड़े करेगा. हिंसा के मामले और पति-पत्नी के अलग-अलग रहने की स्थिति को छोड़कर मेरी राय यही होगी कि पति-पत्नी के नितांत निजी क्षणों से इस कानून का कोई संबंध न हो. हिंसा हमेशा ही अपराध की श्रेणी में आती है और वैवाहिक स्तर पर ऐसी कोई रियायत नहीं हैं जो इसे छिपाए. अगर पति, पत्नी को पीटता है तो वह उसके खिलाफ उन्हीं कानूनी उपायों का सहारा ले सकती है जो किसी दूसरे व्यक्ति के खिलाफ उसे लेने का अधिकार है.  सिर्फ शारीरिक संबंधों से जुड़े मामलों में पति के लिए यह एक अपवाद है. वैवाहिक जीवन की किसी भी अवस्था में अगर पत्नी उस परिकल्पित सहमति से खुद को अलग करना चाहती है तो उसके लिए अलग होकर जीने का रास्ता खुला है. इसके बाद किसी भी तरह का जबरन यौन संबंध धारा 367 (बी) के तहत अपराध होगा.

वैवाहिक स्तर पर रियायत देने के लिए यह तर्क भी दिया जाता है कि यौन संबंधों के मामले में संभावित अपराध का तनाव बिस्तर पर प्रदर्शन को प्रभावित न करे. ये माना जाना चाहिए कि मानव जाति की वंश-वृद्घि के हित में वैवाहिक संबंधों के भीतर पति-पत्नी के बीच बनने वाले शारीरिक संबंधों में दोनों की सहमति है. ऐसा न हो कि हर बार पति-पत्नी को एक-दूसरे को छूने से पहले सहमति पत्र लेने की जरूरत पड़े. अगर पति-पत्नी संबंध बनाने से पहले ये सोचने लगें कि पता नहीं उनकी इस क्रिया  को न्यायाधीश या पुलिस वाले किस रूप में देखेंगे, अगर दोनों में से कोई भविष्य में किसी एक के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दे. इससे शारीरिक संबंधों की आदिकाल से चली आ रही गोपनीयता पर भी बुरा असर पड़ेगा. अगर दोनों के मन में ये भावना आ जाएगी कि उन्हें कोई  पुलिस वाला या कोई जज देख रहा है या यूं कहें कि उनकी बेहद निजी क्रिया सार्वजनिक टीका-टिप्पणी और कानूनी आखड़ों से बाहर नहीं है तो फिर ऐसी स्थिति में उस पूरी क्रिया  के आनंद का खात्मा हो जाएगा.

वैवाहिक यौन संबंधों के अपराधीकरण की स्थिति में तो इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग उन पत्नियों द्वारा किया जाएगा जो अपने पतियों से बदला लेना चाहती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल अर्नेश कुमार के मामले की सुनवाई करते हुए वैवाहिक प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग होने पर चिंता जताई. कोर्ट की टिप्पणी थी,  ‘हाल के वर्षों में वैवाहिक विवादों में तेजी से वृद्घि हुई है. देश में विवाह संस्था को बहुत आदर प्राप्त है. भारतीय दंड संहिता में 498 ए को पति या परिवारवालों के हाथों किसी स्त्री की प्रताड़ना के खिलाफ हथियार के रूप में लाया गया था. 498 ए संज्ञेय धारा है. इसके तहत गिरफ्तार हुए आरोपी को जमानत नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा देखने में आया है कि कई महिलाओं ने इसका दुरुपयोग किया है. उन्होंने पति और उसके परिवारवालों को प्रताड़ित करने के लिए इस धारा का इस्तेमाल किया. इस धारा के तहत पति और उनके रिश्तेदार की गिरफ्तारी बहुत आसानी से हो जाती है. कई मामलों में पति के निशक्त माता-पिता या दशकों से विदेशों में रहनेवाले उसके भाई-बहनों की भी गिरफ्तारियां हुईं.’ 498 ए के तहत तीन साल की कैद और बलात्कार साबित होने पर उम्रकैद की सजा होती है. मामूली प्रावधान के चलते कानून के दुरुपयोग के इतिहास को देखते हुए कोई भी इसके गलत इस्तेमाल करने की संभावनाओं से इंकार नहीं कर सकता. ज्यादातर वकील आपराधिक कानूनों के वैवाहिक क्षेत्र तक फैलने के प्रति सचेत करते हैं.

इस कानून की नीति में वैवाहिक पुनर्मिलाप की सुविधा भी होनी चाहिए एक पक्ष को आपराधिक न्याय व्यवस्था की बेपनाह छूट दे देना अनियमितताओं से भरा और बहुत ही बुरा है. स्त्री-पुरुष के बीच के संघर्ष को लेकर इस बात की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए कि यह विवाह संस्था को ही खत्म कर दे.