पड़ोस का राष्ट्रवाद और मैकडॉनल्ड की दुकान नजरिया

img12
इलेस्ट्रेशन: आनंद नॉरम

मेरे घर की खिड़की से पीले रंग का एम दिखने लगा है. दसवीं मंजिल पर फ्लैट की खिड़की से बराबर में दिखता है एम. मैकडॉनल्ड अमेरिका से चल कर मेरे पड़ोस में आ गया है. अमेरिका का स्ट्रीट फूड इंडिया में रेस्त्रां के नाम से चल रहा है. व्यस्त मध्यमवर्गीय अमीरों को सस्ता खाना खिलाने का नुस्खा है एम. कई साल पहले केंटकी फ्राइड चिकेन आया तो लोग अपने तंदूरी चिकन को लेकर इमोशनल हो गए. तंदूरी नेशनलिज्म का नारा बुलंद हो गया. बाद में ग्लोबलाइजेशन के एक्सचेंज आॅफर में अमेरिका और भारत के लोगों ने अपने-अपने राष्ट्रवाद का एक्सचेंज कर लिया. इसी एक्सचेंज आॅफर में मैकडॉनल्ड मेरे पड़ोस में आया है.

मैं दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के उस गाजियाबाद के वैशाली में रहता हूं जहां की सड़कें बेहद खराब हैं. ठेकेदारों और इंजीनियरों ने खुलेआम चुनौती दे रखी है कि अपार्टमेंट में रहने वाला ताकतवर मध्यवर्ग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. बेईमान ठेकेदारों की बनाई टूटी सड़कों पर चल कर ही आपको उन दफ्तरों में जाना होगा जिनमें दीवारों की जगह शीशे लगे होते हैं.

यह उस नए हिंदुस्तान का चेहरा है जो मेक-अप के सहारे जीने लगा है. बाहर के यथार्थ को अपनी जातिवादी जागरूकता के हवाले कर भीतर एक सोसायटी बना लेता है. आठ-दस गार्ड खड़े हो जाते हैं. सफाई से लेकर बिजली का चंदा देने लगते हैं. ऊपर से फ्लैट वाले निगम को टैक्स भी दे आते हैं. हिंदुस्तान का अपार्टमेंट नागरिक यही कर सकता है. वह टैक्स भी देगा लेकिन अपने पैसे से सुरक्षा का इंतजाम भी करेगा. देश में अघोषित रूप से थानों का निजीकरण हो चुका है. खेतिहर मजदूर रंगीन वर्दियों में रातों की नींद सुनिश्चित कर रहे है. हर अपार्टमेंट के भीतर जेनसेट वाला बिजली विभाग बन गया है. परमाणु बिजली का विकल्प जेनसेट नहीं हो सकता था? एक रियल एस्टेट कंपनी ने विज्ञापन दे दिया है जिसका नायक खुद को अपार्टमेंट का सिटिजन कहता है.

बेईमान ठेकेदारों की बनाई टूटी सड़कों पर चल कर ही आपको उन दफ्तरों में जाना होगा जिनमें दीवारों की जगह शीशे लगे होते हैं

महान भारत के अपार्टमेंटी नागरिक तंदूरी राष्ट्रवादियों को लात मार कर स्वयंभू अपार्टमेंट का नारा बुलंद कर रहे हैं. हर अपार्टमेंट अपने आप में राज ठाकरे का महाराष्ट्र लगता है जिसमें बाहरी लोगों का प्रवेश मना है. एक रजिस्टर पर साइन कर अंदर जाना होता है और बाहर आने का समय लिख देना होता है. राज ठाकरे तो महाराष्ट्र से बिहारियों को भगाने की राजनीति कर रहे हैं लेकिन अपार्टमेंट वालों के लिए हर वह आदमी बाहरी है जो रेसिडेंट नहीं है. कहीं हर अपार्टमेंट वाला राज ठाकरे तो नहीं?

इस बीच तंदूरी राष्ट्रवादियों को भी इस बात से संतोष होने लगा है कि पनीर बर्गर भी बिकने लगा है. ग्रेट इंडियन नेशनलिज्म बर्गर पनीर से स्वादिष्ट होता है. बगल में ठेले पर मद्रासी चाट बेचने वाला बिहारी मजदूर आहत नहीं है. वह जानता है जब तक गरीब रहेंगे और अब तो अमीर भी गरीब हो रहे हैं, तब तक ठेले की ठेलेदारी चलती रहेगी. नगर निगमों की हल्ला-गाड़ी इन ठेलों को जमाने से धकियाती रही है, लेकिन बाजार कोई मल्टीप्लेक्स थोड़े ही है कि मर्जी हुई और फ्रंट स्टॉल गायब कर दिया गया. आम जनता को टीवी वाले न्यूज छोड़ हीरो दिखाने लगे. भारत का फुटपाथ वर्ग अमिताभ बच्चन को दौ सौ रुपये में नहीं देख सकता, इसलिए अमिताभ को खबर बनाकर परोस दिया गया.

मंदी की मार से पंसारी बच गया है. जो पंसारी बिग से लेकर स्माल बाजारों के नाम वाले डिपार्टमेंटल स्टोर से भय खा रहा था, मुस्कुरा रहा है. रिटेल का तेल निकलने वाला है, यह सुनकर मेरा किरानेवाला खुश है. कहता है उधार पर सामान देने का आइडिया, वह भी बिना ब्याज के सिर्फ हमारा था. हम किरानेवालों ने न जाने कितने लोगों का घर चलाया है. आगे भी चलायेंगे.

मुझे चिंता हो रही है. पड़ोस में एक-एक करोड़ के फ्लैट वाला अपार्टमेंट बन रहा था. पर्यावरण के लिहाज से ग्रीन अपार्टमेंट. अस्सी करोड़पतियों का पड़ोसी होने का सुख कहीं छिन न जाए. हम सबको गरीबी-रेखा की तरफ ले जाते इस सेंसेक्स को देखकर डर लगता है तो भरोसा भी बनता है कि पड़ोस में मैकडॉनल्ड तो है. बीस रुपये का बर्गर खाते हुए कम से कम प्रतिष्ठा तो नहीं जाएगी. वर्ना ठेले पर छोले भटूरे. ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास का राष्ट्रवाद कुंठित हो सकता है.

(मुलत: 5 नवंबर 2008 को नजरिया कॉलम में प्रकाशित )