‘नामवर सिंह सुविधानुसार आलोचना कर्म करते हैं’

shivआपकी कहानियों में आपके घर-परिवार और बहुत करीब के लोग ही पात्र के तौर पर आते हैं.
करीब से ही तो अनुभव होते हैं. कसाईबाड़ा, भरतनाट्यम, ख्वाजा ओ मेरे पीर से लेकर तिरिया चरित्तर तक के जो पात्र हैं वे बिल्कुल करीब के ही हैं. वे उसी रूप में तो मिलते, जैसी कहानियों में मौजूद दिखते हैं बस रंग गाढ़ा करना पड़ता है.

आपकी कहानियों का प्लॉट गांव होता है, जबकि आप चार दशक से शहर के वासी हैं. क्या शहरी जीवन में कहानी का प्लॉट नहीं मिलता?
मैं गांव में ही पैदा हुआ. उनका दुख-दर्द अपना लगता है. यह सच है कि पिछले करीब 40 सालों से शहर में हूं लेकिन अंदर गांव उसी तरह बसा है और निरंतर गांव से संपर्क में भी रहता हूं. मैं खुद गांव जाता हूं और मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी गांव जाती हैं, वहां रहती हैं. उनके पास गांव के, रिश्तेदारों के सुख-दुख होते हैं, उससे ही पात्र मिलते हैं. रही बात शहरी जीवन पर कहानी लिखने की तो जब शहर आया और जिनसे मेरा परिचय हुआ, वे भूखे-नंगे लोग तो थे नहीं. खाये-पीये-अघाये लोग थे. दूसरों की जेब काट लेने वाले, अधिक से अधिक कर चोरी करने वाले, मुनाफाखोरी करने वाले ज्यादा मिले. उनमें ऐसा कुछ न दिखा, जिस पर लिखा जाए.

पिछले दो दशक में तो गांव के मिजाज में भी तेजी से बदलाव आया है.
एक कहानी मन में है. वह कहानी स्त्री की यौन स्वतंत्रता पर होगी. मेरी पत्नी की बहन आई थी. उन्होंने गांव की एक स्त्री के बारे में बताया जो अब 70 की हो चुकी हैं. 1960-62 में ही उन्होंने गांव में रहते हुए यौन स्वतंत्रता ली और उसी तरह का जीवन गुजारा. कहानी पुरानी है लेकिन पाठकों को लगेगा कि आज की कहानी है.

स्त्री यौन स्वतंत्रता पर आपके क्या विचार हैं? कोई सीमा होनी चाहिए या उन्मुक्त होना चाहिए.
स्त्री-पुरुष दोनों के लिए चीजें वक्त और हालात के हिसाब से तय होती हैं. उसी हिसाब से निर्णय भी लिया जाना चाहिए. एक बेरोजगार आदमी क्या निर्णय लेगा यह उसके सामने उपजे हालात पर निर्भर करेगा. हो सकता है वह चोर बन जाए, डाकू बन जाए या शायद कोई अच्छा काम करे. लेकिन वह रास्ता खुद तय करता है. ऐसा ही स्त्री-पुरुष के जीवन में भी होता है. महिलाओं पर उनकी सीमा को लेकर ज्यादा बातें इसलिए की जाती है, क्योंकि वह सदा दबायी जाती रही हैं. पुरुष यौन स्वतंत्र जीवन गुजारे तो भला उस पर क्या फर्क पड़ता है लेकिन स्त्री पर तो असर रह जाता है, वह गर्भ तक धारण कर लेती है.

पिछले दो तीन दशकों में तो महिलाओं की स्वतंत्रता बढ़ी है, वे हर क्षेत्र में आगे भी बढ़ी हैं लेकिन उन पर हिंसा भी उसी अनुपात में बढ़ी है. इसकी क्या वजह लगती है?
हां, हिंसा बढ़ी है, क्योंकि पुरुष मानसिकता बदलने को तैयार नहीं. एक दिन में बदलाव आ भी नहीं सकता. ऐसा केवल स्त्रियों के मामले में नहीं है. अब किसी सवर्ण को लीजिए, दलित पहले उसके सामने खड़ा तक नहीं होता था लेकिन अब साथ में बैठता है क्योंकि उसमें भी सामर्थ्य आ गया है. वह जब सामने बैठता है, समान रूप से बात करता है तो यह खटकता तो है ही अंतर्मन में लेकिन जो थोड़े समझदार होते हैं, बुद्धिजीवी होते हैं वे मन को समझाते हैं. ऐसा स्त्रियों के मामले में भी होता है लेकिन जो खटकता है, उसे सभी दबा नहीं पाते.

आप पुरुष मानसिकता की बात कर रहे हैं. मान लिया कि पुरानी पीढ़ी के जो पुरुष हैं, वे जड़ मानसिकता के होंगे लेकिन 90 के बाद पैदा हुए बच्चे, जिन्होंने नए युग को देखा है, स्त्रियों को मजबूत होते हुए ही देखा है, वे स्त्रियों के प्रति इतने हिंसक कैसे नजर आते हैं और उन्हें भी तो स्त्री एक वस्तु की तरह नजर आती है.
उसके लिए हम सब ही जिम्मेदार हैं. पहले बच्चों को जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य आदि के पाठ भी पढ़ाये जाते थे लेकिन अब वह जरूरी नहीं लगता. किसी बच्चे के निर्माण में तीन लोगों की भूमिका बड़ी होती है और तीनों अब उस तरह ध्यान नहीं देते. एक तो अभिभावक, जिनके हाथ में दस साल तक बच्चा रहता है लेकिन अभिभावकों के पास उतना समय नहीं कि वे बच्चों को कुछ सिखा सकें. दूसरे गुरू तो अब कुछ सिखाते-बताते नहीं और तीसरा समाज.

आप 1962 के प्लॉट पर कहानी लिख रहे हैं. हिंदी में अतीत को आधार बनाकर ज्यादातर रचनाएं होती हैं जबकि पश्चिमी देशों के साहित्य में एक परंपरा फ्यूचरोलॉजी की भी है. वहां भविष्य भी साहित्य का विषय होता है. हिंदी में ऐसा क्यों नहीं है?
हिंदी में लेखन गंभीरता या जिम्मेदारी का काम नहीं है. हिंदी में लेखन से कुछ मिलता भी तो नहीं. दूसरी भाषाओं में मिलता है तो वे प्रोजेक्ट बनाकर लिखते हैं. हिंदी में तो जो लिखने वाले हैं, उनमें अधिकांश नौकरीपेशा वाले लोग हैं. वे 10 घंटा अपने दफ्तर को देते हैं. वहां से थक हारकर आते हैं तो लेखन में लगते हैं. थके हुए मन से लेखन कैसा होगा, समझ सकते हैं. इसलिए हिंदी में लेखन हॉबी की तरह होता है.

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