‘मुसलमानों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

यह एक सच्चाई है कि आज दुनियाभर में मुसलमान बहुत कठिन समय से गुजर रहे हैं. यह कठिनाई, राजनीतिक भी है, आर्थिक भी है, सामाजिक भी है और धर्म को लेकर भी है. जो अतिवाद आज हमें दुनिया के कुछ हिस्सों में नजर आ रहा है वह पिछले 50-60 साल की देन है. लोग यह सवाल नहीं करते कि अफगानिस्तान के बामियान में जिस बुद्घ को तालिबानों ने बम से उड़ाया था वह 1400 साल से तो मौजूद था. किसी मुसलमान, बाबर या नादिरशाह ने उसे नहीं तोड़ा. इसी तरह इराक में आज जो चर्च तोड़े जा रहे हैं वो वहां ईसा के काल से यानी करीब 2000 साल से मौजूद थे. वहां भी तो मुसलमान 1400 साल से लगातार शासन में हैं, उन्होंने तो नहीं तोड़े चर्च. आज जो अतिवादी सोच आई है वह केवल चर्च या मंदिर नहीं तोड़ रही है, वह पहले दरगाहें और मस्जिदें तोड़ रही है. उन मुसलमानों को मार रही है जो उनसे इत्तेफाक नहीं रखते. हमारे पास जो आंकड़े मौजूद हैं वे बताते हैं कि आतंकवाद से मारे जानेवाले 98 फीसद मुसलमान हैं. उनसे लड़ने वाले भी मुसलमान हैं. आईएसआईएस से लड़नेवाले, तालिबान का मुकाबला करनेवाले भी तो मुसलमान ही हैं.

सच यह है कि आज खुद इस्लाम के अंदर बहुत बड़ा संघर्ष चल रहा है. यह विचारधारा का युद्घ है जो अतिवादी और उदार विचारधारा वालों के बीच चल रहा है. लेकिन यह युद्घ नया नहीं है. पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के जमाने में यह शुरू हुआ था. यह कभी शिया-सुन्नी टकराव के रूप में सामने आया तो कभी अरब-गैर अरब के रूप में. इस लड़ाई में कभी उदार तो कभी अतिवादियों का पलड़ा भारी हो जाता है, लेकिन अगर 1400 साल के पूरे इतिहास को देखें तो इसमें कम से कम 1200 साल उदारवादियों का ही पलड़ा भारी रहा है. हां, जब इस्लाम संकट में आता है, जब उसका पतन होता है तब अतिवादी ताकतें हावी हो जाती हैं. पिछले सौ साल में जब अंग्रेजों ने पूरे मध्य-पूर्व पर कब्जा कर लिया, तुर्की की बादशाहत को खत्म कर दिया, तेल जैसे-जैसे यूरोप और अमेरिका के लिए अहम हुआ, उन्होंने अरब देशों में अपने पिट्ठू बिठाने शुरू कर दिए. वो चाहे सऊदी अरब के बादशाह हों, मिस्र के होस्नी मुबारक हों या खाड़ी में बैठे हुए शेख हों, ये सब अपने हित और पश्चिमी हित के लिए काम करते हैं. वहां की जनता में जो आक्रोश पैदा हुआ वह न केवल अपने शासकों के प्रति था बल्कि अमेरिका और यूरोप के प्रति भी था. तो आज हम जो लड़ाई देख रहे हैं वह केवल धार्मिक लड़ाई नहीं है वह राजनीतिक भी है.

एक सच और है. यह जो इस्लामिक आतंकवाद है वह आज से 20 साल पहले नहीं था. जिस वक्त श्रीलंका में आत्मघाती बम बन रहे थे उस वक्त इस्लाम में ऐसा नहीं था. यह तब आया जब अफगानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत संघ ने कब्जा किया. अमेरिका ने उससे निपटने के लिए यहां के मुस्लिमों को भड़काया कि यहां कम्युनिस्ट आ रहे हैं, अब तुम्हारा देश खतरे में है. उन्होंने तालिबों को यानी विद्यार्थियों को हथियार देकर लड़ने के लिए उकसाया. तो यह उसकी पैदा की हुई समस्या है. अमेरिका ने ही ईरान को ठिकाने लगाने के लिए इराक को उकसाया. ईरान-इराक के बीच जंग हुई जिसमें इराक को बहुत नुकसान उठाना पड़ा. इराक ने अपना घाटा पूरा करने के लिए कुवैत पर हमला किया तब कुवैत को बचाने के नाम पर अमेरिका ने पूरे इराक को तहस-नहस कर दिया. सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए वहां के शियाओं को उकसाया गया कि सद्दाम सुन्नी है उससे छुटकारा पाओ. उसके बाद गद्दाफी को खत्म करने के लिए लीबिया में अरब और गैर-अरब को लड़ाया. सीरिया में राष्ट्रपति शिया है जबकि बहुसंख्य जनता सुन्नी है. तो इस सुन्नी समुदाय को हथियार देकर उकसाया कि शिया राष्ट्रपति को हटाओ. यही सुन्नी आज आईएसआईएस के आतंकवादी हैं और पूरे मध्य पूर्व में फैल रहे हैं. मैं यह नहीं कहता कि आतंकवाद को जायज ठहराने के लिए इसे बहाना बनाया जाय. आतंकवाद, आतंकवाद है और उसकी किसी भी धर्म में कोई जगह नहीं है. पेरिस, पेशावर, इराक, सीरिया में जो आतंकवाद का नंगा नाच है, अब समय आ गया है कि मुस्लिम समुदाय बहुमत से उसके खिलाफ उठ खड़ा हो.

आज जो अतिवादी सोच आई है वह केवल चर्च या मंदिर नहीं तोड़ रही है, वह पहले दरगाहें और मस्जिदें तोड़ रही है. उन मुसलमानों को मार रही है जो उनसे इत्तेफाक नहीं रखते

एक और बात यह है कि जैसे-जैसे मुसलमान खतरे में आया, उसने इस्लाम के खतरे में पड़ने का नारा लगाया. इसके साथ ही उन्होंने अपने दरवाजे बाहरी विचारों के लिए बंद कर लिए. जब दरवाजे बंद हो जाते हैं, तो अंदर की हवा सड़ने लगती है. मुसलमानों के साथ भी यही हुआ. उनमें बदलाव आना बंद हो गया. पूरी दुनिया में मुसलमानों की सोच रुके हुए पानी और हवा की तरह सड़ रही है. अब समय आ गया है कि इस्लाम में बदलाव लाया जाए. कुरान में बदलाव संभव नहीं, लेकिन समय के हिसाब से उसकी व्याख्या में बदलाव किया जाना चाहिए. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि जो कुरान और इस्लाम का आलिम है उसके पास चिकित्सक की तरह एक ही बीमारी के कई इलाज होते हैं. यानी आलिम वह है जो इस्लाम के बारे में लोगों की सोच के हिसाब से उसकी व्याख्या करे. उसी इस्लाम में जेहाद की अवधारणा है. जेहाद दो तरह का है, जेहादे अकबर और जेहादे असगर. जेहादे अकबर यानी बड़ा जेहाद यानी खुद में बदलाव लाना. दूसरा जेहाद यानी जेहादे असगर कहता है कि जब आप पर हमला हो तो अपने बचाव के लिए हथियार उठाओ. हमला करना जेहाद नहीं है, बचाव करना जेहाद है.

हिंदुस्तान में जो इस्लाम है उसने बीते 1000 सालों में हिंदू सभ्यता को पूरी तरह अपने अंदर समा लिया है. भारत में संगीत धर्म के साथ जुड़ा हुआ है तो भारतीय मुसलमान ने कव्वाली अपना ली. रामलीला का एक रूप ताजिया आ गया, पूजास्थल की तरह हमारे यहां दरगाह आ गई. भारतीय मुसलमान के शादी-विवाह सब स्थानीय हो गए. केरल का मुसलमान एकदम केरल के दूसरे लोगों की तरह ही रहता है. इसी तरह बंगाल का मुसलमान उतना बंगाली नहीं है जितना बांग्लादेश का मुसलमान है. भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक मुसलमान बंगाली बोलते हैं. इसी तरह पाकिस्तान में बहुसंख्यक मुसलमान पंजाबी बोलते हैं. लेकिन एक धारणा बना दी गई है कि मुसलमानों की भाषा उर्दू है.

भारत के मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता 15 फीसदी आबादी की वजह से नहीं आती बल्कि 80-85 फीसदी आबादी की वजह से कायम होती है

लेकिन भारत की मिट्टी में आतंकवाद नहीं पनपा यह हमारे मुल्क की खासियत है. कुछ लड़के बहककर आईएसआईएस में शामिल होने गए थे, लेकिन वे भी वापस आने लगे हैं. जहां तक बात बहकने की है तो कोई भी बहक सकता है. पंजाब में सिख बहके थे एक जमाने में. इसी तरह कश्मीर में कितने लंबे समय से अस्थिरता जारी है, लेकिन क्या देश के अन्य इलाकों से कोई मुसलमान कश्मीर गया उनके साथ लड़ने? अफगानिस्तान से हमारे इतने करीबी संबंध हैं लेकिन क्या हमारे यहां से कभी कोई वहां तालिबान और मुजाहिदीन के साथ मिलकर लड़ने गया? जवाब है नहीं. जो लोग आपको आज आईएसआईएस से प्रभावित नजर आ रहे हैं वो इंटरनेट से प्रभावित पढ़े-लिखे लोग हैं. मैं दावे से कह सकता हूं कि मदरसे में पढ़नेवाला मुसलमान कभी आतंकवादी नहीं बन सकता है क्योंकि मदरसे में भारतीयता कूट-कूटकर भरी है. आजादी के दौर में भी सभी मदरसों ने महात्मा गांधी का साथ दिया था और जिन्ना का विरोध किया था. महात्मा गांधी जब कहते थे कि वे रामराज्य लाना चाहते हैं तो कोई मुसलमान इस बात का विरोध नहीं करता था. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका रामराज्य शेर और बकरी को एक घाट पर पानी पिलानेवाला रामराज्य था, जबकि आरएसएस जब राम का नाम लेती है तो वह दरअसल शेर से बकरी को लड़ाने की बात करती है. महात्मा गांधी के साथ वंदे मातरम कहने में किसी को दिक्कत नहीं थी लेकिन कोई आकर मुझसे यह कहे कि हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना है, तब मैं इस जबर्दस्ती की खिलाफत में नहीं कहूंगा. किसी बात को कौन कह रहा है, कैसे कह रहा है यह बात मायने रखती है. भारत के मुसलमान के पास वोट के रूप में एक ताकत है जिसके जरिये वह अपना गुस्सा, अपनी अहमियत जाहिर कर देता है. भारत में मुसलमानों को जो आजादी मिली है वह भारत की ताकत है. इतनी आजादी उनको दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है, सऊदी अरब में भी नहीं. यह आजादी और यह धर्मरिनपेक्षता भी यूरोप की देन नहीं है बल्कि यह अशोक महान और अकबर महान की सबको साथ लेकर चलने की नीति से पैदा हुई है. अकबर का सुलहकुल ही आज की धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद है. सुलहकुल का अर्थ था सबको साथ लेकर चलना. आज अगर भारत में कट्टरपंथ नहीं पनप सकता तो इसके लिए भारत की धर्मनिरपेक्षता जिम्मेदार है. और यह धर्मनिरपेक्षता मुस्लिमों की वजह से नहीं बल्कि हिंदुओं की वजह से है. भारत के मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता 15 फीसदी आबादी की वजह से नहीं बल्कि 80-85 फीसदी आबादी की वजह से कायम होती है.

जिस दिन भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा उस दिन केवल मुसलमान नहीं बरबाद होगा, बल्कि पूरा भारत बर्बाद होगा. कट्टरवादी इस्लाम की उम्र बहुत छोटी है. दुनिया में हर जगह लोग अल कायदा, आईएसआईएस और तालिबानी संस्करण वाले इस्लाम का विरोध कर रहे हैं. एक मिथ को और तोड़ना होगा. लोग अरब को ही इस्लाम समझते हैं. जबकि सबसे अधिक मुसलमान इंडोनेशिया में हैं उसके बाद भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन आदि का नंबर आता है. इन देशों से अधिक कट्टरता अरब में है. इस तरह कहा जा सकता है कि यह कट्टरपंथ इस्लामिक नहीं है, बल्कि अरबी है. पाकिस्तान में भी केवल सीमावर्ती इलाकों में ही तालिबान सक्रिय है. लेकिन इसके साथ-साथ मैं यह जरूर कहूंगा कि मुसलमानों को भी अपनी सोच में बदलाव लाते हुए अपने धर्म की सुंदर चीजों को, बेहतरीन चीजों को बाहर लाने की आवश्यकता है.