एलबमः दावत-ए-इश्क

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एलबमः दावत-ए-इश्क
गीतकार » कौसर मुनीर
संगीतकार » साजिद-वाजिद

दावत-ए-इश्क में एक चांद-सा खूबसूरत गीत है. शलमली खोलगड़े का ‘शायराना’. दिल इस गीत को सुनकर वैसे ही खुश होता है जैसा गुलाबों से घिरे रहने के बावजूद वो खुश रातरानी की खुशबू से होता है. ‘अर्थात’ यह मत निकालिएगा कि बाकी के गीत गुलाब हैं. नहीं हैं. लेकिन अगर साजिद-वाजिद ‘शायराना’ जैसा गीत बना सकते हैं, यकीन मानिए, हिंदी फिल्मों के संगीत का मर्सिया पढ़ने का वक्त अभी नहीं आया है, किताब अंदर रख लीजिए.

शायराना की शलमली ‘परेशां’ से अलग हैं, झीनी आवाज पर नशा चढ़ाकर वे सॉफ्ट-रॉक गीत को अलग जगह का गीत बना देती हैं, ऐसी जगह का गीत जहां अभी तक साजिद-वाजिद गए नहीं थे. लेकिन बाकी के गीतों के पास न शलमली हैं, न साजिद-वाजिद का वक्त और न ही अच्छी किस्मत. वे किस्मत-विहीन गीत हैं. पुराने वाले साजिद-वाजिद के बासी गीत. हालांकि एक गीत इस बासीपने से बच निकलने की कोशिश करता है. ‘दावत-ए-इश्क’ नाम की कव्वाली. हारमोनियम व तबले की जुगलबंदी और उनके साथ खड़े जावेद अली इस गीत को बुरा होने से बचाकर ले ही जा रहे थे कि अंत आते-आते गीत अंतहीन बातें करने लगता है, पुरानी वाली ही, और फिर कुछ-एक बार सुनने के बाद इसे दुबारा कभी नहीं सुनने का मन बन जाता है.

बचे हुए गीतों में ‘मन्नत’ सोनू निगम की वजह से दो बार कानों में जाता है. लेकिन वे कुछ अलग करते नहीं, अपने पुराने दिनों को ही जीते हैं, जिसमें साजिद-वाजिद उनका भरपूर साथ भरे-पूरे दिल के साथ देते हैं, और हम गीत से उम्मीद छोड़ देते हैं. जिनका जिक्र नहीं किया, वे गीत नीचे जाती ढलान पर पड़े पत्थर हैं, कभी भी लुढ़क कर अपना अस्तित्व खो सकते हैं. मत सुनिएगा.