‘मेरी अच्छी किताब को साहित्य अकादमी मिला ही नहीं’

फोटोः तहलका अका्इव
फोटोः तहलका अका्इव

मुनव्वर राना को हाल ही में उनके कविता संग्रह ‘शहदाबा’ के लिए उर्दू के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. वाली ‘आसी’ के शागिर्द मुनव्वर राना निम्न एवं मध्यम वर्ग के जनजीवन को शेरगोई का मौज़ू बनाने के लिए, ख़ासकर मां पर शेर कहने के लिए जाने जाते हैं. इस तरह की शाइरी ने उन्हें एक निराली पहचान दी है. राना सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए भी मशहूर हैं. उनकी शाइरी ने अपने यहां हिन्दी उर्दू की दूरियों को मिटा दिया है. लंबे वक़्त से वे उर्दू-हिंदी दुनिया में लोकप्रियता के शिखर पर विराजमान हैं. वाणी प्रकाशन के मुताबिक उनके यहां से छपी मुनव्वर की किताब ‘मां’ की एक लाख प्रति बिक चुकी हैं. जिस दौर में प्रकाशकों को हिन्दी-उर्दू में कविता की किताब के एक हज़ार प्रति बिकने पर भरोसा न हो उसमें किसी कविता संग्रह की एक लाख प्रति बिकना साधारण बात नहीं है. मुनव्वर की इसी असाधारण लोकप्रियता ने ही उनके वस्तुनिष्ठ साहित्यिक मूल्यांकन में मुश्किलें भी पैदा की हैं. उनको साहित्य अकादमी मिलने के बाद ‘लोकप्रिय बनाम साहित्यिक’ की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है. मुनव्वर के आलोचकों का कहना है कि मुनव्वर राना साहित्य अकादमी के योग्य नहीं हैं. वे महज़ एक मुशायरेबाज़ और आवामी मकबूलियत के शायर हैं, उनकी शाइरी अदबी शाइरी नहीं यानी साहित्य में उनकी कोई जगह नहीं. आलोचकों का ये भी कहना है कि मुनव्वर राना मजमे को, अकसर जिसकी पसंद प्राय: छिछली होती है, को खुश करने के लिए सस्ते शेर कहते हैं, जैसे- ‘बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है, हमारे घर के एक बरतन पे आईएसआई लिक्खा है.’  या ‘हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है, हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है.’ मुनव्वर अपने आलोचकों के प्रति हमेशा बेपरवाह नज़र आते हैं. बक़ौल उनके अगर बच्चा है तो भी मेरी शाइरी हाथी का बच्चा है, चूहे के बच्चे उस पर हंस भी नहीं सकते. साहित्य अकादमी मिलने के तुरंत बाद  मुनव्वर राना ने  हिमांशु बाजपेयी से अपनी शाइरी के तमाम पहलुओं पर बेबाकी से बात की और अपनी तमाम आलोचनाओं पर खुलकर जवाब भी दिया. 

पिछले कुछ सालों से आप लगातार साहित्यिक पुरस्कारों की तीखी आलोचना कर रहे थे. शहरयार को ज्ञानपीठ मिलने पर आपने कहा था कि ज्ञानपीठवाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठे हैं, ऐसे में क्या तंज़िया लहजे में ये कहा जा सकता है कि साहित्य अकादमी आपको मिला नहीं है, आपने डरा-धमका कर ले लिया है ?
ये सही बात है कि अवॉर्ड हमको मिला ही नहीं है, ये तो हमारे उन चाहनेवालों को मिला है जो हमें गोद में उठाए रहते हैं, जिस वजह से हमारी हाइट ज़्यादा दिखाई देने लगी. जिसकी वजह से साहित्य अकादमी को ये धोखा हुआ कि हम बड़े शायर हैं, और उसने ये अवॉर्ड हमको दे दिया. दूसरी बात ये है कि हमने अपने बुज़ुर्गों की जूतियां बहुत सीधी की हैं, तो मुझे लगता है कि शायद उनकी दुआओं का करिश्मा है कि मेरी शाइरी लोगों को पसंद आती है, वो मुझसे मोहब्बत करते हैं और इसकी बराबरी साहित्य अकादमी समेत दुनिया का कोई पुरस्कार नहीं कर सकता. सबसे बड़ा अवॉर्ड यही है कि हमको दुनिया ने बसा रखा है दिल में अपने, हम किसी हाल में बेघर नहीं होनेवाले.

देखिए शोलाबयानी मिज़ाज में होती है, पुरस्कार नसीब में होते हैं. इसलिए इनामात से शोलाबयानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़नेवाला

अहमद फ़राज़ कहते थे कि अवॉर्ड अदीबों का मुंह बंद करने की कोशिश है और कुछ नहीं. आपका भी एक शेर है- हुकूमत मुंह भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ है, ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है. तो क्या ये अवॉर्ड मिलने के बाद आपका मुंह बंद नहीं हो जाएगा. पहले आप अवॉर्ड्स की राजनीति के ख़िलाफ बहुत कुछ बोलते थे, अब चूंकि आपको भी एक मिल गया है तो अब उस शोलाबयानी का क्या होगा ?
देखिए शोलाबयानी मिज़ाज में होती है, पुरस्कार नसीब में होते हैं. इसलिए इनामात से शोलाबयानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़नेवाला. जिस किताब को ये अवॉर्ड मिला है, मैंने उसके इब्तेदाई वरक पर लिखा है कि ये कोई किताब नहीं है ये तो सड़क किनारे लगे महुए के पेड़ की बटोरन है, तो जब मैं खुद अपनी किताब के बारे में मान रहा हूं कि वो कोई बड़ी किताब नहीं है, फिर ज़ाहिर है कि साहित्य अकादमी वालों ने इसे बड़ी किताब मानते हुए ये अवॉर्ड नहीं दिया. क्यों दिया ये उनकी समझ, लेकिन अगर मेरी बड़ी किताब पर पुरस्कार मिलता तो मुझे मुहाजिरनामा पर मिलता. पुरस्कार मिलने लायक किताब वो थी. उसका अवॉर्ड तो अभी ड्यू ही है, उर्दू शाइरी में वैसा काम दूसरा नहीं हुआ. या अगर गद्य में मिलना था तो मेरी जो पांच-छह किताबें हैं, उनमें जो मशहूर किताब है ‘सफ़ेद जंगली कबूतर’ उसे मिलता. साहित्य अकादमी ने हमारी अच्छी किताबों पर अवॉर्ड दिया ही नहीं है.

आपकी मकबूलियत एक तरफ, लेकिन आपको अवॉर्ड मिलने के बाद ऐसी बहुत सी प्रतिक्रियाएं आईं, जिनमें कहा गया कि आप साहित्य अकादमी डिज़र्व नहीं करते. आपके एक उस्ताद भाई ने यहां तक कहा कि मुनव्वर राना की शाइरी मजमे की शाइरी है, मुशायरों में उनका मकाम ज़रूर है, लेकिन अदब में उनका कोई मकाम नहीं. आपकी प्रतिक्रिया ?
 कौन? जो हर वक्त नाशाद रहते हैं? देखिए मै जानता हूं कि मेरी शाइरी क्या है और इसे लेकर मुझे कोई गलतफहमी नहीं. बेहतर है कि मेरी चिंता छोड़कर वो ये समझें कि उनकी शाइरी क्या है और इसे बेहतर करें. मुमकिन है कि अगले साल उनको भी सम्मान मिल जाए. मुझे सिर्फ इतना याद है कि बहुत पहले मेरे उस्ताद वाली आसी के यहां एक सिख लड़का अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए लेकर आता था. जिसे उर्दू लिखनी भी नहीं आती थी और शायद आज भी पूरी तरह न आती हो. उसकी ग़ज़लें उस्ताद ठीक किया करते थे और कई बार मुझे भी ठीक करने के लिए दे देते थे. जब उस्ताद नहीं रहे तो वो अपनी ग़ज़लें हमारे उस्ताद भाई भारत भूषण पंत से ठीक करवाने लगा. पंत के बारे में मैं उस्ताद से कहता था कि उस्ताद भाइयों में मुझे डर सिर्फ पंत की शाइरी से लगता है कि वो मुझसे आगे निकल जाएगा. पंत निहायत शरीफ़ आदमी था और उसकी शराफ़त का इसने बहुत फ़ायदा उठाया. मैं तो मुशायरों का शायर हूं. ये आज तक तय नहीं कर पाए कि ये कहां के शायर हैं. ये मुशायरों को कोसते भी हैं और साल-साल भर मुशायरे पाने की जोड़-तोड़ में भी लगे रहते हैं. जिन अख़बारों और रिसालों को कोई देखता तक नहीं, उनमें छपने के लिए एडिटर की ख़ुशामद करते हैं.

मूल सवाल अब भी वही है कि क्या आवामी मकबूलियत या लोकप्रियता  ही  किसी को अदब में मकाम दिलवाने के लिए काफ़ी है ? लोकप्रिय तो बहुत सी ख़राब चीज़ें भी हो जाती हैं और अच्छी चीज़ों से जल्दी हो जाती हैं
क्या कोई चीज़ सिर्फ इसलिए ख़राब हो जाती है कि वो लोकप्रिय हो गई है या मुशायरों में पढ़ी गई है. और फिर अगर मुशायरा या लोकप्रियता इतनी ही बुरी चीज़ ह,ै तो ये लोग मुशायरे में जाना छोड़ क्यों नहीं देते, उसकी भीख क्यों मांगते हैं. मुशायरे इस देश में लोगों की शाइरी में दिलचस्पी जगाने का सबसे बड़ा ज़रिया हैं. ग़ज़ल को कोठों और दरबारों से निकालकर आम आदमी तक पहुंचाने का काम सबसे पहले मुशायरों ने ही किया. तब शबखून और शाइर नहीं छपती थी. जिगर मुरादाबादी और फिराक़ गोरखपुरी भी मुशायरे पढ़ते थे. बेपनाह पापुलर भी थे. क्या वो अदबी शायर नहीं. देखिए हमारी लोकप्रियता हमारा नसीब है और हमारी शाइरी हमारा फन है, हमारा काम है. तो आप हमारे काम पर सम्मान देंगें या हमारे नसीब पर सम्मान देंगे ? अच्छे -बुरे का फैसला इतनी जल्दी नहीं होता. ये फ़ैसला वक्त करता है, तारीख़ करती है ज़माना करता है. नज़ीर अकबराबादी को भी लंबे वक्त तक आवामी और बेकार के विषयों पर लिखनेवाला शाइर कहकर  अदब से खारिज किया गया. आज उनके बिना अदब की तारीख़ मुकम्मल नहीं होती. शबख़ून में छपना एक ज़माने में स्टेटस सिम्बल तो था, लेकिन बड़े शाइर उसने कितने पैदा किए ? जदीदियत के नाम पर घटिया शाइर बहुत छापे. शबखून में ही छपी एक ग़ज़ल का शेर मैं आपको सुना रहा हूं- बत्ती जला के देख ले सब कुछ यहीं पे है, बनियान मेरे नीचे है सलवार उस तरफ.

दुनिया सुलूक करती है हलवाई की तरह, तुम भी उतारे जाओगे बालाई की तरह या मोहब्बत को ज़बरदस्ती तो लादा जा नहीं सकता कहीं खिड़की से मेरी जान अल्मारी निकलती है…इस तरह के आपके कई शेर हैं जिनकी तरकीबें, लफ्ज़ियात, काफिया-रदीफ और लबो-लहजा आलोचकों को सख़्त नागवार गुज़रता है, उनके मुताबिक़ ये शेर हैं ही नहीं, क्योंकि ये ग़ज़ल के मिज़ाज से मेल नहीं खाते. इन शेरों पर आप क्या कहेंगे ?
बने बनाए रास्तों पर तो हम कभी नहीं चले. हम ग़ज़ल में नई राह निकालते हैं. यही नयापन हमारी पहचान है. मीर ने अपने शेरों में ‘लौंडा’ लफ्ज़ का इस्तेमाल किया है, ग़ालिब ने अपने शेर में ‘बलगमी’ लफ्ज़ इस्तेमाल किया है, उनसे पूछिए कि क्या ये ‘बलगम’ और ‘लौंडा’ ग़ज़ल  में अच्छा लगता है, और तो और यगाना चंगेज़ी ने अपने बहुत से शेरों में ऐसे लफ्ज़ इस्तेमाल किए जो उस वक्त तक ग़ज़ल के लिए अछूत समझे जाते थे. लखनऊवालों ने उनके ख़िलाफ़ हंगामा कर दिया था. ये लोग नयेपन और बदलाव को स्वीकार करना नहीं जानते. जिस पारंपरिक ग़ज़ल की वो बात कर रहे हैं उसके शेर आप घरवालों के सामने नहीं पढ़ सकते थे- दुपट्टे को आगे से दोहरा न ओढ़ो, नमूदार चीज़ें छुपाने से हासिल. अगर इस परंपरा को तोड़ा न गया होता तो ग़ज़ल दरबारों और कोठों में ही रहती. आम लोगों तक कभी नहीं पहुंचती. उसमें मां की ममता कभी नज़र नहीं आती. मेरी शाइरी आम आदमी की शाइरी है. उसमें मां दिखाई देती है, बहन दिखाई देती है, बच्चे दिखाई देते हैं. गांव और कस्बा दिखाई देता है, घर दिखाई देता है, गरीब की ज़िंदगी दिखाई देती है. प्रो. वारिस अल्वी ने लिखा है कि मुनव्वर राना की शाइरी पढ़ते हुए मुझे धान के खेतों की हमवारी का अहसास होता है.

आपकी मां से जुड़ी शाइरी पर भी एक सवाल है, हमारी अहलिया तो आ गईं मां छूट गई आख़िर, कि हम पीतल उठा लाएं हैं सोना छोड़ आए हैं. क्या किसी हद तक ये सामंती और पितृसत्तात्मक सोच से उपजा शेर नहीं है ? क्या मां को ग्लोरीफाई करने के चक्कर में आपने बीवी की भूमिका के साथ अन्याय नहीं किया है ?
ये एक ऐसा आदमी कह रहा है जो बंटवारे में अपनी बीवी को तो ले आया, लेकिन मां उधर छोड़ आया है. सरहद पार उसकी मां बहुत मुश्किलों में है और फिर एक दिन मर जाती है, तो उस बेटे पर क्या गुज़रेगी. बंटवारे के आदमी की कैफियत को, उसके रंज और अफसोस को, दूर बैठकर इतने सपाट तरीके से नहीं समझा जा सकता. और फिर इसमें बीवी के साथ अन्याय किया गया है, उसे कमतर बताया गया है ऐसा वही लोग कह सकते ह,ैं जो सोचते हैं कि बीवी कभी मां नहीं बनेगी. सच ये है कि मां पर मंैने जो शाइरी की है, उसे उर्दू अदब को मेरे योगदान के रूप में लोग हमेशा याद रखेगें.

मजमे की डिमांड पर तो हमने कभी शेर नहीं कहे. कहा वही जो खुद महसूस किया. ऐसा वो करते हैं जिनके लिए मुशायरा पैसा कमाने का ज़रिया होता है

पुराने लोग कहते हैं कि मुनव्वर राना को मुशायरों ने बिगाड़ दिया. देखा भी गया है कि मुशायरों में जानेवाले शायर मजमे की डिमांड के मुताबिक शेर करने लगते हैं, चाहे वो डिमांड कितनी ही छिछली क्यों न हो, इससे शाइरी का स्तर गिरता है. इस पर आप क्या कहेंगे ?
मजमे की डिमांड पर तो हमने कभी शेर नहीं कहे. कहा वही जो खुद महसूस किया. डिमांड पर सप्लाई वो लोग करते हैं जिनके लिए मुशायरा पैसा कमाने का ज़रिया होता है, जिनका घर मुशायरे की पेमेंट से चलता है. उन्हंे डर होता है कि वो अगर मजमे की डिमांड पूरी नहीं करेंग, तो अगले मुशायरे में बुलाए नहीं जाएंगे. हमारा अपना ट्रांसपोर्ट का बिजनेस है जिसका सालाना टर्नओवर करोड़ों में है. हम पैसा कमाने के लिए मुशायरे नहीं पढ़ते. हम जितने मुशायरे पढ़ते हैं उससे कहीं ज़्यादा पढ़ने से इंकार कर देते हैं.

इमरान प्रतापगढ़ी जैसे शायर मुशायरों में अकबरूद्दीन ओवैसी और मुख़्तार अंसारी जैसे लोगों की तारीफ़ कर रहे हैं, और लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं, इसे आप कैसे देखते हैं ? इमरान कहते हैं कि आपके दौर में भी यही सब होता था…
सबसे पहले तो ये हमारे प्रशासन के कमज़ोर होने की निशानी है. एक आदमी खुलेआम, चौराहे पर, हज़ारों लोगों के सामने ऐसी शाइरी पढ़ रहा है और आपको इसके ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है. प्रशासन अगर एक बार सख्ती कर दे और ऐसे लोगों को डिटेन करवा दे तो ऐसी शाइरी खत्म हो जाएगी. ये शाइरी नुकसान पहुंचा रही है. इस तरह की शाइरी से सबसे बड़ा नुकसान तो मुशायरों का ही हुआ. मुशायरों में गैर-मुस्लिमों और सेक्यूलर शरीफ़ मुसलमानों ने जाना छोड़ दिया. शाइरी का काम जोड़ना होता है, तोड़ना नहीं. हमने कभी तोड़नेवाली शाइरी नहीं की. इनके पसंद करने वाले और हमको पसंद करने वाले अलग-अलग हैं. मेरे प्रशंसकों में मुसलमानों से बहुत ज़्यादा गैर-मुस्लिम लोग हैं. सिर्फ मुसलमान प्रशंसक वाणी प्रकाशन से नागरी में छपी मेरी किताब ‘मां’ की एक लाख प्रतियां नहीं बिकवा सकते.

आख़िरी सवाल, आपने भी बहुत से राजनीतिक लोगों पर प्रशंसापूर्ण लेख और नज़्में लिखी हैं, किताबें भी समर्पित की हैं। इसे चापलूसी क्यों न माना जाए?
अगर किसी पर मैने कोई नज़्म लिखने के बाद उससे बदले में कोई लाभ लिया हो, तो आप भरी सड़क पर मेरा गिरेबान पकड़कर मुझे चापलूस कह सकते हैं. मैं रायबरेली का रहने वाला हूं. सोनिया गांधी हमारी सांसद हैं, मैंने उनपर नज़्म कही है, क्योंकि मैं उनसे प्रभावित हुआ था. मैं आज तक उनसे मिलने नहीं गया. अगर मैं उनसे मिलने चला जाता तो मुमकिन है कि ये अवॉर्ड मुझे आज से 10 साल पहले मिल जाता. दूसरे भी लोग जिनपर मैने नज़्में कहीं हैं या समर्पण किए हैं वो मेरे दोस्त या शुभचिंतक हैं. वो मेरी बीमारी में अस्पताल में मेरे साथ खड़े रहे हैं. अगर मैं उनको किताब नहीं समर्पित करूंगा तो क्या अपने दुश्मनों को समर्पित करूंगा.