कांग्रेसियों के बारे में कहा जाता है कि जब वे सत्ता में होते हैं, तभी नियंत्रित रहते हैं, एकजुट रहते हैं. सत्ता से हटते ही अनुशासन का आवरण उनसे हटने लगता है आैैर बिखराव शुरू हो जाता है. इसके उलट समाजवादियों के बारे में कहा जाता है कि वे संकट के समय में ही एक रहते हैं, एक साथ आते हैं लेकिन सत्ता मिलते ही वे टूटने लगते हैं. बिहार में इसे थोड़ा और दिलचस्प बनाकर कहा जाता है कि कोई भी समाजवादी तीन साल से अधिक समय तक साथ नहीं रह सकता. यह बिखराव समाजवादियों को विरासत में मिला है और यही उनके लिए अभिशाप है. इस बार जब दो बड़े समाजवादी नेता लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक साथ हुए और बड़ी जीत हासिल की तो जीत के दिन से ही यह सवाल भी हवा में तैरने लगा कि क्या ये एक रह पाएंगे या फिर समाजवादी राजनीति की परंपरा को निभाते हुए अपनी राह अलग कर लेंगे?
यह सवाल बड़े स्तर पर भाजपा समर्थकों व सवर्णों द्वारा उठाया गया लेकिन ऐसा नहीं कि यह सवाल सिर्फ उनकी ओर से ही उठा. बिहार की चौपालों में भी यह सवाल इन दिनों छाया हुआ है और यह सवाल अगर उठ रहे हैं तो उसके पीछे कुतर्क या बेजा कारण की बजाय ठोस आधार है. इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो मोरारजी देसाई-चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह-चंद्रशेखर से लेकर लालू-नीतीश के अलगाव की कहानी का इतिहास रहा है. नीतीश ने 1993 में ही लालू से अलग राह बनानी शुरू कर दी थी. वह समय कोई मामूली समय नहीं था. वह मंडल राजनीति के उफान के दिन थे. तब लालू बिहार के बड़े नेता बनकर उभरे थे, देश-भर में हलचल थी लेकिन नीतीश कुमार ने अपनी अलग राह बनानी शुरू कर दी थी. इस बार लालू और नीतीश के साथ आने और भारी जीत दर्ज करने के दिन से ही अलग रास्ता अपनाने की बात कही जा रही है तो इसके पीछे सिर्फ इतिहास के इन पन्नों को पलटकर ही संभावना या आशंका नहीं जताई जा रही बल्कि और भी कई तर्क जोड़े जा रहे हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में एक ही राजनीतिक स्कूल से निकलने के बावजूद दो ध्रुवों से राजनीति करने वाले दोनों दिग्गज आपस में ही टकराएंगे. दोनों के दो ध्रुवों से राजनीति करने की बात को कई लोग खारिज करते हुए कहते हैं कि इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि नीतीश कुमार मूलतः लालू प्रसाद का ही विस्तार हैं. लालू ने सामाजिक न्याय की राजनीति की तो नीतीश ने उसका विरोध नहीं किया बल्कि उसका विस्तार किया और उसमें आवश्यक तत्व जातीय, लैंगिक और आर्थिक न्याय का फॉर्मूला जोड़ा. पिछड़ा को अतिपिछड़ा समूह में बांटकर जातीय न्याय के एजेंडे को आगे बढ़ाया, दलितों में से महादलित को आगे कर दलितों में जातियों को सशक्त किया और महिलाओं को आरक्षण के कई मौके देकर लैंगिक न्याय का परिचय दिया.
यह सही भी है लेकिन दोनों के बीच टकराव होने की स्थिति बनने के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं, उसमें भी दम है. एक बात कही जा रही है कि इतिहास यह रहा है कि जब भी कोई बड़ी जीत हासिल होती है तो उसमें विपक्ष भी छिपा होता है. इस बार की नीतीश और लालू की जीत में विपक्ष भी शामिल है. राजनीतिक कार्यकर्ता संतोष यादव कहते हैं, ‘मुझे अभी से ही दिख रहा है कि इस सरकार में ही विपक्ष के सारे तत्व छुपे हुए हैं और आने वाले समय में उसका स्वरूप दिखेगा.’ यह बात सिर्फ संतोष यादव नहीं कहते, कई लोग इसे प्रकारांतर से कहते रहे हैं. ऐसा कहने के पीछे के कई आधार हैं. एक तो महत्वाकांक्षाओं के टकराव का होना माना जा रहा है. ऐसी धारणा है कि लालू बिहार की राजनीति में अपने दोनों बेटों को स्थापित कराने के बाद अब देश की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाह रहे हैं. इसके लिए अब उनकी कोशिश होगी कि वे दिल्ली में अपना ठीक-ठाक इंतजाम करें. बताया जा रहा है कि लालू खुद केंद्र की राजनीति में अब सिर्फ किंगमेकर की ही भूमिका निभा सकते हैं इसलिए वे पहले से बिसात बिछाना चाहेंगे. इसके लिए वे राज्यसभा में पत्नी राबड़ी देवी को भेजेंगे. कयास मीसा भारती को लेकर भी लगाए जा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘राबड़ी देवी की संभावना इसलिए ज्यादा है, क्योंकि राबड़ी के जाने से प्रमुख जगह पर आवास मिलेगा, जहां रहकर लालू एक केंद्र बनना चाहेंगे. मीसा को भेजने पर यह नहीं संभव होगा.’
नीतीश मूलतः लालू का ही विस्तार हैं. लालू ने सामाजिक न्याय की राजनीति की तो नीतीश ने उसका विस्तार किया और उसमें जातीय, लैंगिक व आर्थिक न्याय का फॉर्मूला जोड़कर उस एजेंडे को आगे बढ़ाया
