
साल 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसे ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ कहा था. जानकारों की मानें तो राव के ऐसा कहने के पीछे वजह यह थी कि जिस दलित वोट के दम पर मायावती ने यह कामयाबी हासिल की थी, उसको अब तक कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. उस दौर में सत्ता की धुरी सवर्णों के इर्द गिर्द ही घूमा करती थी.
उस दौर में एक स्थापित धारणा यह भी थी कि अच्छी खासी तादाद में होने के बाद भी दलित वर्ग अपने समुदाय के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकता है. लेकिन कांशीराम के सानिध्य में मायावती ने दलित समाज की अगुआई की और उनका वोट कांग्रेस से छिटक कर बसपा के पाले में आ गया. बहरहाल 1995 के बाद मायावती 1997 और 2002 में फिर से मुख्यमंत्री बनीं, इन मौकों पर भी दलित वोट ने ही माया की नैया पार लगाई थी. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में ऐसा चमत्कार हुआ कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे समीकरण ही धराशाई हो गए. उस चुनाव में दलितों के साथ ही ब्राह्मणों ने भी मायावती को अपना समर्थन दे दिया और वे चौथी बार अपने दम पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई. इन नतीजों ने राजनीतिक पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया था कि, आखिर वे ब्राह्मण, बसपा के साथ कैसे खड़े हो गए जिन्हें मायावती ने एक दौर में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था.
इस चमत्कार की नींव 2007 के विधानसभा चुनावों से साल भर पहले ही पड़ चुकी थी. दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के इस कारगर फार्मूले को ईजाद करने में मायावती के साथ सतीश चंद्र मिश्र नाम के एक ब्राह्मण जोड़ीदार ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी. मिश्र को पार्टी का ब्राह्मण चेहरा बनाकर मायावती ने ब्राहमणों का दिल जीता और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नये गठजोड़ की इबारत लिखी. सतीश चंद्र मिश्र को मायावती की इस सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी का मुख्य कर्ताधर्ता माना जाता है. उन्होंने मायावती के सारथी के रूप में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को हाथी पर मुहर लगाने के लिए प्रेरित किया.