आश्रय संबंधी सामान्य नियमों के अनुसार, कहा गया है कि विवाह के साथ ही स्त्री, अपने पति को यह अधिकार दे देती है कि वो जब चाहे अपनी इच्छानुसार उससे शारीरिक संबंध बना सकता है और इस नियम में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं हो सकता. हालांकि कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इसे रद्द कर दिया गया है. जस्टिस वर्मा कमेटी का कहना है, ‘हमारा दृष्टिकोण ‘सीआर वी यूके’ मामले में यूरोपियन कमीशन ऑफ ह्यूमन राइट्स से प्रेरित है जिसके अनुसार एक बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होता है, भले ही उसका पीड़ित से कोई भी संबंध हो.’ कमेटी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की सैंड्रा फ्रेडमैन की बात का हवाला देते हुए कहती है, ‘विवाह को स्त्री के कानूनी और यौनिक अधिकारों के खत्म हो जाने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.’ वर्मा समिति 1993 में आए ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन की घोषणा’ और उससे पहले आए ‘महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन का समागम (सीईडीएडब्ल्यू)’ का हवाला देते हुए अपनी बात आगे बढ़ाती है. फरवरी 2007 में संयुक्त राष्ट्र की सीईडीएडब्ल्यू कमेटी ने सिफारिश की थी कि भारत को चाहिए कि वह अपने दंड संहिता में बलात्कार की परिभाषा का दायरा और बढ़ाए ताकि महिलाओं द्वारा भोगे जा रहे यौन उत्पीड़न की व्यथा को समझकर उसका कोई समाधान निकाला जा सके. साथ ही ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपवाद की श्रेणी में न रखकर ‘बलात्कार’ की श्रेणी में रखा जाए. (25 जून 1993 को भारत ने सीईडीएडब्ल्यू को अंगीकार किया था.) यहां वर्मा कमेटी का कहना था कि महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा से निपटने के लिए देश में अपेक्षित कानून का न बन पाना एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय परंपरा के उल्लंघन के रूप में देखा जाएगा. फिर भी इसके खिलाफ आवाज उठानेवालों में तमाम वकील कानूनविद, राजनीतिक दलों के सदस्य और धार्मिक गुरु और विद्वान शामिल हैं. अब तक केंद्र में रही सरकारों, चाहे वो यूपीए सरकार हो या वर्तमान की राजग सरकार, दोनों ने ही वैवाहिक बलात्कार को लेकर यथास्थिति बनाए रखने पर ही जोर दिया है. धर्म और राजनीति दोनों मिलकर इस मुद्दे को और जटिल बना रहे हैं. हाल ही में इस्लाम और ईसाई धर्म के कुछ उपदेशक सरकार के इस रवैये के समर्थन में नजर आ रहे थे.
इस्लाम के अनुसार ‘बलात्कार’ और ‘वैवाहिक बलात्कार’ में कोई फर्क नहीं है. इसलिए दोनों तरह के अपराधों की सजा एक ही होनी चाहिए. भारतीय दंड संहिता में संशोधन की जरूरत है ताकि वैवाहिक बलात्कार की स्थिति में महिलाओं को उचित न्याय मिल सके. इसके बिना स्त्री-पुरुष समानता की बात करना बेमानी है
मौलाना वहीदुद्दीन खान, इस्लामिक विद्वान
बहरहाल सरकार का अपना मत है. पिछले साल दो जुलाई को राजग सरकार ने कहा था कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 यौन हिंसा समेत सभी प्रकार की हिंसा से स्त्रियों का बचाव करता है. इसके बाद हाल ही में हुई आलोचनाओं से अपना बचाव करते हुए सरकार ने जवाब दिया कि साल 2000 में आई विधि आयोग और 2003 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखे जाने के विचार को सिरे से खारिज कर दिया गया था. बलात्कार संबंधी वर्तमान कानूनों को देखते हुए विधि आयोग का कहना था कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपवाद न मानकर आईपीसी के तहत अपराध की श्रेणी में रखा गया तो ये वैवाहिक संबंधों में कानून का हस्तक्षेप और ज्यादा बढ़ा देगा.
प्रख्यात अधिवक्ता राम जेठमलानी भी इस पहलू का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘अगर आपकी शादी में सब कुछ ठीक नहीं है और पति द्वारा पत्नी पर जोर-जबरदस्ती का आरोप है तो पत्नी के पास उसे छोड़कर जाने का विकल्प हमेशा खुला रहता है. विवाह संबंधों के बीच बलात्कार के प्रावधान को क्यों लाया जाना चाहिए? घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम और आईपीसी की धारा 498ए के तहत महिलाओं को नागरिक अधिकार मिलते हैं.’ इसके इतर समय-समय पर कई सांसदों ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने की पैरवी की है, मगर उनकी पार्टी इससे इत्तेफाक नहीं रखती. सीपीएम की पोलितब्यूरो सदस्य बृंदा करात कहती हैं कि विवाह के प्रमाण पत्र को जबरन संबंध बनाने का लाइसेंस नहीं माना जा सकता. कई बार संसद में भी सांसदों ने ये मुद्दा उठाया मगर उनकी आवाज कानून में किसी तरह का बदलाव करने लायक समर्थन नहीं जुटा पाई. पिछली बार संसद में इसकी गूंज यूपीए सरकार के कार्यकाल में सुनाई दी थी. मार्च 2013 में गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की ओर से आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2012 पर 167वीं रिपोर्ट पेश की गई थी. तब समिति ने जस्टिस वर्मा कमेटी की ओर से दी गईं सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया था. आईपीसी की धारा 375 पर चर्चा करते हुए समिति के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया था कि विवाह के समय दी गई सहमति को हमेशा के लिए नहीं माना जा सकता और अगर पत्नियों को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे संबंधों के बीच वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठा सकें. हालांकि कुछ सदस्यों का ये भी मानना था कि इसे अपराध का दर्जा देने से विवाह नाम संस्था खतरे में पड़ सकती है. राजग सरकार में संसदीय मामलों और शहरी विकास मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने इस समिति की अध्यक्षता की थी. उस वक्त आई कुछ मीडिया रिपोर्टों की माने तो नायडू का भी यही कहना था कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया तो समाज में परिवार नाम का तंत्र खत्म हो जाएगा.
इस समिति के प्रस्तावों को लेकर तत्कालीन सांसद डी. राजा और सीपीआई के प्रसंता चटर्जी ने असहमति जाहिर की थी. उनका कहना था कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानना भारतीय संविधान के उस प्रावधान के खिलाफ है जिसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिया गया है और जो उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता से, किसी भी हिंसा के बिना (शादी के पहले या बाद) सम्मान से जिंदगी जीने का अधिकार देता है. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति दर्ज कराई कि अलग रह रही बीवी पर किए गए यौन उत्पीड़न को भी आईपीसी की धारा 376बी के तहत रखा जा रहा है जो सामान्य स्थिति में उत्पीड़न की धारा है, जबकि विवाह के बाद किया गया दैहिक शोषण ज्यादा गंभीर है.
वैवाहिक बलात्कार को अपराध करार देने से शादी का स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा. यौन सुख या शारीरिक सुख लेना शादी का एक सहज हिस्सा है. मियां-बीवी दोनों को ये समझना चाहिए. इस्लाम किसी भी प्रकार की जबरदस्ती या जबरन संबंध बनाने का समर्थक नहीं है. स्त्री हो या पुरुष दोनों को समानता का अधिकार है