‘असली निशाना तो जेएनयू की संस्कृति और लोकतांत्रिकता है’

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देखिए, पहली बात कि मैं यह कन्फर्म नहीं कर सकता कि नौ फरवरी को वह घटना घटी या नहीं, क्योंकि मैं डीयू में एक सेमिनार में था. इसलिए उस घटना के बारे में कोई राय नहीं दे सकता. लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि मान लिया ऐसी कोई घटना घटी तो क्या हुआ, उसमें कौन लोग शामिल हैं, इसकी तहकीकात होनी चाहिए. अगर ये कैंपस की घटना है तो कैंपस के अंदर पहले से एक इंस्टीट्यूशनल मैकेनिज्म है. मैं 40 साल से कैंपस में हूं. कोई भी ऐसी घटना घटी है तो उसका हमने निदान निकाला है. हमारा अपना आंतरिक तंत्र है जिसके जरिये हम बिना भेदभाव के जांच करते हैं, जो गलत है उसे गलत करार देते हैं और जरूरी कार्रवाई करते हैं.

हमारा विरोध ये नहीं है कि ये घटना घटी, हम इसका बचाव नहीं कर रहे हैं. हमारा विरोध ये है कि इसकी जांच हमारे इंस्टीट्यूशन मैकेनिज्म के तहत होनी चाहिए थी जो कि नहीं हुई. जब भी कोई घटना हो, महिलाओं के खिलाफ कोई घटना हो, हम आंतरिक जांच करते हैं. सुप्रीम कोर्ट भी पहले कह चुका है कि ऐसे मसलों को कोर्ट आॅफ लॉ में लाने के पहले आप आंतरिक जांच करो. जेएनयू पहला संस्थान है जिसने जीएस कैश स्थापित किया. और सिर्फ एक नहीं, हमने कई सारे लोकतांत्रिक मैकेनिज्म तैयार किए हैं. इसको बनाने में, इसकी उत्पत्ति और विकास में, इसे बनाने में लगातार सोच और संघर्ष की प्रक्रिया होती है. किसी सोच या समझ को बदलना इतना आसान नहीं होता. इसमें लंबी प्रक्रिया चलती है. जब इस प्रक्रिया को आप नजरअंदाज करते हैं तो आप स्टेट और उसके दमनचक्र का हिस्सा बन जाते हैं. विश्वविद्यालय इसी दमनचक्र की मुखालफत करता है.

जब घटना घटी तब हमने प्रशासन से पूछा कि आपके पास पूरी रिपोर्ट थी? क्या आपने जांच की? हमारे यहां प्राॅक्टोरियल इन्क्वायरी सिस्टम है जो कि एक्ट आॅफ पार्लियामेंट के तहत है. उसे आपने महत्व नहीं दिया. पुलिस के एक खत पर आपने मान लिया कि देशद्रोह का मामला है और आप कैंपस में आ जाइए और किसी के कमरे में चले जाइए. आप यह भी तय मत कीजिए कि आपके पास कोई सर्च वारंट है या नहीं.

पुलिस के पास कोई सबूत नहीं था. उस दिन से लगातार पुलिस कैंपस में है. कितने आतंकवादी यहां मिल गए? अब यह और बात है कि आप मुझे उठा ले जाएं और आतंकवादी करार दे दें. पुलिस आपकी है, प्रशासन आपके पास है. हमारे पास ऐसा साहित्य भी मिल जाएगा, क्योंकि मैं समाजशास्त्र का विद्यार्थी हूं, समाजशास्त्र पर व्याख्यान देता हूं, नेशन और स्टेट पर आलोचनात्मक लेख लिखता हूं तो आपको कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा, होगा ही. जिसको चाहे आप उठाकर देशद्रोही कह दें.

जब हम किसी चीज की लोकतांत्रिक आलोचना करते हैं तो उसके जरिये हम उसकी कमजोरियों को ठीक करने की कोशिश करते हैं. क्योंकि कहीं-कहीं संरचना में कमी है. हां, देश अगर किसी के निशाने पर है तो उसके लिए सबसे पहले खड़े होंगे. यह देश चंद लोगों का बनाया हुआ नहीं है. इसे मेहनतकश लोगों ने अपने मेहनत और बलिदान से हासिल किया है. जिन्होंने देश के लिए कोई बलिदान नहीं दिया, वे देश के अग्रणी बने हुए हैं. उनको ये सवाल अपने आप से पूछना चाहिए. आप कहते हैं कि हम आलोचना और अध्ययन के जरिये समाज तोड़ रहे हैं. तो ये समाज ऐसे ही टूटेगा न! अगर समाज में सामंती और तालिबानी प्रवृत्तियां हैं कि कोई मांस खाएगा तो वह देशद्रोही है तो इसे टूटना ही चाहिए. आपने मनुष्य विरोधी समाज बनाया है तो हम तोड़ रहे हैं. यह देश, समाज तो हमारा ही है.

जेएनयू पहले से निशाने पर था. इस बेवकूफी ने उसे बहाना दे दिया. यह जिसने भी किया, योजना के तहत किया या अचानक हुआ यह और मसला है. यहां पर वह घटना नहीं, असली निशाना जेएनयू की संस्कृति और यहां की लोकतांत्रिकता है, जिससे उनको बहुत तकलीफ है. बाकी शिक्षक संघ का पहला बयान ही यह था कि हम किसी भी असंवैधानिक चीज के खिलाफ हैं. हम इसकी निंदा करते हैं. लेकिन हम साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि भेदभावपूर्ण ‘विच हंटिंग’ मत कीजिए. इसीलिए हम शिक्षक एक साथ खड़े हुए हैं. यहां के सभी छात्र पूरे हिंदुस्तान से आते हैं, अपने घर से दूर रहते हैं. यहां पर हम ही उनके माई-बाप और अभिभावक हैं. उनके हित की रक्षा और भटकाव की जिम्मेदारी हमारी है. हम उनसे बात करेंगे, संभालेंगे. लेकिन आप उन्हें देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दें, यह बिल्कुल ठीक नहीं है.

आप कहते हैं कि हम आलोचना और अध्ययन के जरिये समाज तोड़ रहे हैं. तो ये समाज ऐसे ही टूटेगा न! अगर समाज में तालिबानी प्रवृत्तियां हैं कि कोई मांस खाएगा तो वह देशद्रोही है तो इसे टूटना ही चाहिए

जेएनयू के कुछ छात्रों ने गलती की, लेकिन निशाने पर पूरा जेएनयू है. पूरा जेएनयू गड़बड़ नहीं हो गया. यह जेएनयू ही है जिसने तमाम लड़ाइयां लड़ी हैं. निर्भया कांड हुआ तो दिल्ली सोई हुई थी. यहां के छात्रों ने उसकी लड़ाई लड़ी. बंधुआ मजदूरों, दलितों पर अन्याय होता है तो यहीं के छात्र जाते हैं. वे क्यों जाते हैं? उन्हें खाना मिलता है, रहने को मिलता है. अपनी पढ़ाई करें और अफसर बनकर निकल जाएं. लेकिन वे दबे-कुचले लोगों की जबान बनते हैं. ये उनकी संवेदनशीलता है, जो सामाजिक न्याय के फ्रेमवर्क से आती है जो हमारे संविधान में निहित है. अब इस बात को समझना चाहिए कि हम संविधान के पक्ष में हैं या उसके खिलाफ हैं? उन्हें इन सारी चीजों से परेशानी है. वे ऐसे हर संस्थान को बंद करना चाहते हैं. यह सिर्फ एक पार्टी की बात नहीं है. वह एक रूलिंग क्लास है. वह किसी पार्टी से जुड़ा नहीं है. उस वर्ग की अपनी एक विचारधारा है, जो मिलजुल कर हमारा विरोध करते हैं.

इसके पहले जब कभी इस तरह के सवाल आए हैं तो जेएनयू खुद उस मामले को संभालता था. एक बार गिलानी कैंपस में आए थे. यूपीए की सरकार थी. दिल्ली पुलिस कह रही थी कि उन पर देशद्रोह का आरोप है, आप उन्हें कैंपस में बोलने नहीं दे सकते. हम अंदर आएंगे. एबीवीपी और कुछ और लोगों ने भी विरोध किया था. उस समय भी जेएनयू प्रशासन ने मामले को खुद संभाला और सुनिश्चित किया कि लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहना चाहें तो कहें, नहीं कहना चाहते तो बाहर जाएं. रामदेव के आने का विरोध हुआ तो भी हमने आलोचना की कि अभिव्यक्ति की आजादी हर किसी को मिलनी चाहिए, वह किसी भी विचारधारा या समुदाय का हो.

इमरजेंसी के समय हमने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विरोध किया, क्योंकि इमरजेंसी और वैसी दूसरी चीजों के लिए उनका विरोध था. लेकिन बाद में जब वे डिस्कोर्स के लिए आईं तो हमने स्वागत किया और बहस की. ये चर्चा, बातचीत और अभिव्यक्ति का परिसर है.

इस बार यह चूक प्रशासन से हुई. वाइस चांसलर नए हैं, उन्हें कम अनुभव है. शिक्षक संघ ने प्रस्ताव दिया था कि आप अपनी स्वायत्तता में हस्तक्षेप मत करने दीजिए. उन्होंने हमारी बात सुनी और स्वीकृति भी दी कि आपकी बात समझता हूं, लेकिन यह देशद्रोह का आरोप है. हमने कहा कोई भी चार्ज है, पर आपसे इजाजत मांगी गई है तो प्रशासन इसे समझता है. आप इसे न कह सकते हैं और आंतरिक मैकेनिज्म से संभाल सकते हैं.

जेएनयू एक शैक्षणिक संस्था का प्रांगण है, कोई कारागार नहीं. यहां के छात्र इसी देश के भविष्य की बात करते हैं, इसी की मिट्टी से जुड़े हुए हैं. वे उन लोगों से नहीं जुड़े हुए हैं जिनका आधा धन विदेशों से आता है या विदेशों में जाता है. अगर वे लोग हमको देशभक्ति का सबक सिखाएंगे तो ये सबक हम उनसे तो नहीं सीखने वाले, क्योंकि यह देश हमारा भी है.

(लेखक जेएनयू शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं )
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)