सात सितंबर को पटना लाल रंग में रंग हुआ था. हरे और भगवा रंग के बीच सत्ता की राजनीति पर वर्चस्व के लिए छिड़ी जंग के दौरान यह लाल खेमों के हस्तक्षेप का दिन था. यह इसलिए भी खास था, क्योंकि इस दिन भारत के अलग-अलग हिस्से में सक्रिय छह वाम दलों के बीच एक सम्मेलन के जरिये सामंजस्य का एेलान होने वाला था. ऐसा हुआ भी. भाकपा, माकपा, भाकपा माले, एसयूसीआई-सी, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाॅक के तकरीबन 40 प्रमुख नेता जब एकजुट हुए तो सम्मेलन का मंच भर गया था.
सीपीआई की ओर से वरिष्ठ नेता एबी वर्धन, सीपीएम की ओर से पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी, आरएसपी के महासचिव अवनी राय, फाॅरवर्ड ब्लाॅक के महासचिव देवब्रत्त विश्वास, भाकपा माले की ओर से पार्टी के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य और एसयूसीआई-सी की ओर से केंद्रीय कमेटी की सदस्य छाया मुखर्जी मौजूद रहे. बेहद अनुशासित तरीके से सम्मेलन हुआ, जो वाम दलों के आयोजनों की पहचान भी होती है. कैडर संयमित ढंग से अपने नेताओं की बात सुनते रहे. बीच-बीच में इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगते रहे. सभी नेताओं ने जोरदार तरीके से, तेज आवाज में अपनी बातें रखीं.
नवउदारवाद, सांप्रदायिक ताकतें, सामाजिक न्याय के नाम पर जाति का खेल खेलने वाले और ठगने वाले नेताओं को कोसा जाता रहा. भाजपा, कांग्रेस, लालू, नीतीश सभी निशाने पर आते रहे. तालियां बजती रही और आखिरी पंक्ति में बैठे कार्यकर्ता आपस में ही सवाल पूछते रहे कि सांप्रदायिकता और नवउदारवाद का विरोध तो ठीक है, लेकिन लालू-नीतीश भी भाजपा-कांग्रेस की तरह ही हैं और देश या राज्य के भविष्य को बर्बाद कर रहे हैं, ये बातें वाम दलों को इतनी देर से क्यों समझ में आई. अभी जो छह दल एक साथ आकर ताल ठोक रहे हैं, आपस में सामंजस्य बनाकर लड़ने की बात कर रहे हैं, ये काम वे पांच साल पहले ही क्यों नहीं कर सके थे. छह दल की बात तो दूर, बिहार में सक्रिय रहे कम से कम तीन वामदल- भाकपा, माकपा और भाकपा माले, भी अगर साथ रहे होते तो विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस तरह की एकजुटता दिखाने की नौबत ही नहीं आती. लेकिन अब तब साथ आए हैं, जब अपनी जमीन अपनी ही गलतियों से गंवा चुके हैं.
सीपीआई के नेता एबी वर्धन जब यह बात बोल रहे थे तो पीछे से कुछ कार्यकर्ता आपस में बात करते रहे कि आज नीतीश इतने बुरे लग रहे हैं, सांप्रदायिक लग रहे हैं तो यह तो कुछ माह पहले भी समझ जाना चाहिए था, जब भाजपा और नीतीश के बीच दूरियां बढ़ी तो सबसे पहले भाकपा के इकलौते विधायक के ही समर्थन का प्रस्ताव नीतीश के पास गया था. लालू प्रसाद और कांग्रेस ने तो फिर भी थोड़े दिन का समय सोचने-समझने, भाव दिखाने में लिया था.
देखा जाए तो दोनों में से कोई गलत नहीं था. मंच से बोलने वाले नेता जिन मसलों को उठाकर एक साथ आने की दुहाई दे रहे थे और बिहार की जिन चुनौतियों का हवाला दे रहे थे, वे भी गलत नहीं थे और पिछली कतार में बैठकर कार्यकर्ता जो आपस में कानाफूसी कर रहे थे, वे भी गलत नहीं थे. दोनों के सवाल सही थे. क्योंकि बिहार में हर कोई यह जानता और मानता है कि यहां का जो राजनीतिक मन-मिजाज रहा है, वह सदा ही वाम दलाें के लिए अनुकूल रहा है. बिहार के जो मसले रहे हैं या अब भी हैं, वे ऐसी स्थितियां हमेशा ही तैयार करते हैं कि वामपंथी दल यहां अपनी ताकत दिखा सकें. बिहार में जिस तरह की राजनीतिक पृष्ठभूमि रही है, वह भी इसके लिए अनुकूल माहौल बनाती है. और इन सबसे बढ़कर बात यह कि जिस तरह से वामपंथी दल राज्य में समय-समाज और संस्कृति के सामयिक सवालों पर राजनीति और राजनीतिक हस्तक्षेप करते रहे हैं, उससे भी उम्मीद जगती है कि बिहार में वाम दल एक मजबूत और बेहतर विकल्प के तौर पर उभर सकते हैं.
ऐसा मानने वालों की संख्या बिहार में काफी है और इसके पीछे ठोस वजहें भी हैं. बिहार में हालिया वर्षों की ही घटनाओं की बात करें तो ये वाम दल ही थे, जो सदन में मौजूद नहीं रहने के बावजूद सड़कों पर आंदोलन करते रहे और मीडिया में प्रश्रय नहीं मिलने के बावजूद जनता के सवालों को मुद्दा बनाने में ऊर्जा लगाते रहे. वह सवाल चाहे लक्ष्मणपुर बाथे-बथानी टोला-शंकर बीघा जैसे कांडों में अपराधियों का हाईकोर्ट से बरी हो जाने का हो, चाहे बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट को दबा दिए जाने का हो, चाहे अमीर दास आयोग को भंग कर दिए जाने का हो, चाहे हालिया दिनों में हुई एक से बढ़कर एक अत्याचारी घटनाओं का हो.
यह तो वर्तमान के प्रसंग हैं, जो वामदलों को बिहार के लिए जरूरी बनाते हैं. इतिहास के पन्नों को पलटें तो लगता है कि वाम दलों में हमेशा से इतनी संभावनाएं रही हैं. बिहार में वामदलों का चुनावी राजनीति में आने का इतिहास 1956 से शुरू होता है. 1956 में पहली बार बेगुसराय से काॅमरेड चंद्रशेखर सिंह जीतकर बिहार विधानसभा पहुंचे थे. उसके बाद तो बेगुसराय जैसे जिले भाकपा के लिए गढ़ ही बन गए. उसे बिहार का लेनिनग्राद कहा जाने लगा. 1972 में भाकपा के 35 विधायक सदन में पहुंचे और 1977 में जब जनता पार्टी की आंधी आई, तब भी 21 सीटों पर भाकपा ने जीत हासिल की. वह भी तब जबकि उस समय भाकपा ने इमरजेंसी का विरोध नहीं कर के अपने लिए एक जोखिम मोल लिया था. यानी जोखिम की स्थितियों में भी वाम दलों की मजबूती बनी रही. यह तो भाकपा की बात हुई. बाद में जब भाकपा माले का चुनावी राजनीति में प्रवेश हुआ तो वह बिहार की राजनीति में रचनात्मक विपक्ष का पर्याय ही बन गई. उसने न सिर्फ सीटों पर जीत भी हासिल की, बल्कि सीट नहीं मिलने पर भी जनता के सवालों पर धारदार राजनीति करती रही. लेकिन ठोस नीति-रणनीति नहीं होने और आपस में सामंजस्य की भारी कमी रहने के कारण वाम दल अपना मर्सिया खुद लिखने लगे और 2010 के चुनाव में स्थिति ऐसी आई कि तीन प्रमुख वाम दलों के चुनाव लड़ने पर भी मात्र एक सीट पर खाता खुल सका, वह भी भाकपा का.