
67 साल की उम्र. 11 सालों तक खुद चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति. पिछले लोकसभा चुनाव में पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती, दोनों की बुरी हार. लोकसभा चुनाव के पहले ही दिल का ऑपरेशन और डॉक्टरों की सख्त हिदायत कि न ज्यादा भागदौड़ करनी है, न ही तनाव लेना है. कुल मिलाकर इस विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव इन्हीं स्थितियों के साथ खड़े थे. एक तरीके से टूटे हुए और बिखरे हुए भी. चुनाव शुरू होने के पहले जिस मुलायम सिंह यादव को ‘समधीजी-समधीजी’ कहकर लालू गले लगा रहे थे, वही ऐन मौके पर अलग हो गए. मुलायम सिर्फ अलग ही नहीं हुए, अपने बेटे अखिलेश को बिहार भेजकर लालू पर निशाना भी साधने-सधवाने लगे. इसके अलावा लालू को सहयोगी कांग्रेस द्वारा भी उपेक्षा ही मिल रही थी. राहुल-सोनिया द्वारा लालू को भाव न दिए जाने के किस्से सामने आ चुके थे. इतने के बाद उनके अपने दल के अंदर छुटभइये नेताओं की बगावत और विरोध अलग था. लालू की मुसीबत यहीं खत्म नहीं हो रही थी, नए-नवेले साथी बने नीतीश कुमार के दोस्त बन जाने के बाद भी उनसे अछूत की तरह बर्ताव कर रहे थे. रही-सही कसर मीडिया पूरी कर रहा था, जहां या तो नरेंद्र मोदी हीरो थे या फिर नीतीश कुमार.
इन तमाम कमजोरियों को देखते हुए ही विपक्षी भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति बनाई कि उसके नेता लगातार लालू यादव पर प्रहार करेंगे. लालू की इन कमजोर स्थितियों को देखते हुए बिहार में एक बड़े तबके ने यह माहौल बनाया कि नीतीश ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है. वे लालू के साथ गए हैं, अब कहीं के नहीं रहेंगे, न तीन में बचेंगे, न तेरह में. देश के कई बड़े विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों ने लिख दिया कि नीतीश कुमार ने अपना भविष्य तो दांव पर लगाया ही, बिहार का भविष्य भी दांव पर लगा दिया है. कुल मिलाकर इस बार के चुनाव में लालू के हिस्से में कांटे ही कांटे थे. कोई और नेता होता तो वह किसी तरह अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ता. कदम फूंक-फूंक कर रखता. अपने लक्ष्य को छोटा कर निर्धारित करता और फिर उसे ही पाने के लिए दिन-रात एक करता. लेकिन लालू ने सब उलटा किया, वह भी अपने तरीके से, अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने को मना किया तो वे बिहार में सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं. पप्पू यादव जैसे नेता रोजाना विरासत को चुनौती देते रहे तो वह जवाब में एक ही बात करते रहे कि पप्पू के बारे में लालू बोलेगा तो वह खुद को बड़ा नेता समझने लगेगा, इसलिए हम कुछ नहीं बोलेंगे. भाजपा ने जंगलराज कहकर निशाना साधना शुरू किया तो उसका जवाब उन्होंने अपने अंदाज में दिया. पहले एक पोस्टर जारी किया, जिस पर लिखा, ‘जब दिया गरीबों को आवाज, उसे कहता है जंगलराज.’ फिर एक वाक्य को सभी सभाओं में दोहराने लगे, ‘भाजपा वाला जंगलराज कहता है तो हम कहते हैं कि जंगल में तुम क्या करने आए हो, जाओ जंगल से बाहर.’ जिस कांग्रेस को लालू से परेशानी थी, उस कांग्रेस की बड़ी नेता सोनिया गांधी को सामने बिठाकर ही लालू ने यह एहसास करा दिया कि आप भ्रम में न रहें. साथ रहकर भी संकोच का आवरण ओढ़कर थोड़ा अलगाव-दुराव का भाव रखने वाले नीतीश को तो उन्होंने इतने तरीके से सिर्फ मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बना दिया और यह सब देखते-जानते हुए भी नीतीश कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं रहे.
लालू ने चुनाव के दौरान सब उलटा किया, वह भी अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने से मना किया तो वे सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं
इसका नतीजा सबके सामने है. इतनी मुश्किल स्थितियों में लालू बिहार के चैंपियन बनकर उभरे हैं. तमाम राजनीतिक भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए उन्होंने खुद के लिए 190 सीटों का लक्ष्य निर्धारित किया और 178 सीटें लाकर उसे प्राप्त करने के करीब भी पहुंच गए. यह सब कैसे हुआ? क्या नीतीश कुमार के साथ आने की वजह से? क्या जनता के मन में भाजपा के प्रति बढ़ी नाराजगी ने लालू को इतना बड़ा मौका दे दिया? क्या संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान ने उन्हें फिर से सबसे बड़ा नेता बन जाने का अवसर दे दिया? ऐसे तमाम सवाल हो सकते हैं और इसके जवाब भी लोग अपने हिसाब से दे रहे हैं, लेकिन जो लालू को जानते हैं, उनकी राजनीति को जानते हैं, वे यह भी जानते और मानते हैं कि सिर्फ इन वजहों से ही लालू प्रसाद को इस बार के चुनाव में ‘मैन ऑफ द मैच’ जैसा नहीं बन जाना था.
लालू की बड़ी जीत को जो नीतीश कुमार का साथ मिलना बता रहे हैं, उनसे यह पूछा जा सकता है कि फिर नीतीश कुमार खुद के लिए ऐसा करिश्मा क्यों नहीं कर पाए, जो लालू ने किया? नीतीश कुमार के पास तो प्रशांत किशोर जैसे चुनावी मैनेजर भी थे. ऐसे कई नेता भी थे, जो टीवी पर नीतीश का पक्ष संभालते थे. उनके पास अतिपिछड़ों, महादलितों और महिलाओं को ज्यादा हक देने का श्रेय भी था तो फिर वे उसे महागठबंधन के साथ ही अपने दल के पक्ष में भी उस तरह से क्यों नहीं करवा पाए. जबकि लालू इसमें सफल रहे. जो लोग मोहन भागवत के बयान को ही एकमात्र बड़ा कारण मानते हैं तो उनसे यह पूछा जा सकता है कि लालू तो संघ प्रमुख के बयान से पहले ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक किए जाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे. जो लोग उनकी इस बड़ी जीत को सिर्फ जाति की राजनीति के जीत के चश्मे से देख रहे हैं और उसे ही स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे यह भी पूछा जा सकता है कि जाति की राजनीति की शुरुआत तो भाजपा ने ही की. सबसे पहले उसने चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति तय की और उसके बाद जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान जैसे नेताओं को साथ मिलाकर बिसात बिछाई. खुद भाजपा ने प्रधानमंत्री को अतिपिछड़ा जाति का बताने से लेकर तमाम तरह की कोशिशें की. क्यों भाजपा का यह ऐलान भी काम नहीं आ सका कि जीत हासिल होने पर कोई पिछड़ा ही मुख्यमंत्री बनेगा? इतने के बाद बिहार में जिस एक बात को सबसे ज्यादा बार कहा जा रहा है, वह यह कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अगर आरक्षण का बयान नहीं दिया होता तो लालू इतने बड़े नेता नहीं बनते और भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं होती. इन लोगों से यह पूछा जा सकता है कि लालू की यह जीत अगर सिर्फ संघ प्रमुख के बयान की वजह से ही हुई है तो फिर उस बयान का खंडन करने में प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के 36 नेता क्यों सफल नहीं हो सके? वह यह बात बिहार की जनता को क्यों नहीं समझा पाए कि आरक्षण पर कोई संकट नहीं है. अकेले लालू कैसे यह समझाने में सफल हो गए कि आरक्षण पर खतरा है. और अगर ऐसा है, तब यह बात भी माननी चाहिए कि लालू की कनविंसिंग पावर प्रधानमंत्री समेत 36 बड़े नेताओं की तुलना में ज्यादा रही.

चुनाव के बाद बिहार में बहुत सारे लोग इस बात की हवा फैला रहे हैं कि परिणाम नीतीश या लालू की जीत से ज्यादा भाजपा की हार वाला है. भाजपा को हराने का अभियान था, इसलिए यह बड़ी जीत हासिल हुई? ऐसे तर्कों के एवज में यह सवाल भी बनता है कि जब किसी तरह भाजपा को हराने का ही अभियान था तो फिर पप्पू यादव जैसे नेता, जो पैसा लेकर अपनी पूरी ताकत लगा दिए, वे अपने कोसी के इलाके में भी प्रभावी क्यों नहीं हो सके. मायावती की बसपा आरक्षित सीटों पर भी जीत के लिहाज से न सही, वोट प्रतिशत बढ़ा लेने में सफल क्यों नहीं हो सकी. इस बार साथ होकर लड़े छह वाम दल ज्यादा सीटों पर जीत क्यों नहीं हासिल कर सके. इनमें सिर्फ माले ही तीन सीट को क्यों ला सकी. बिहार में कभी बहुत मजबूत रही भाकपा जैसी पुरानी पार्टी खुद को उभारने में क्यों सफल नहीं रही?
‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बड़े विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गए थे कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है’
इतने सारे सवालों के जवाब बडे़-बड़े विश्लेषक अपने तरीके से देते हैं. वो जीत-हार के हजार कारण देते हैं लेकिन लालू एक लाइन में जवाब देते हैं, ‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बडे़ विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गया था कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है, इसलिए मैं 190-190 कहता रहा और अपनी धुन में रहा. अपने मसले से टस से मस नहीं हुआ. मैं जनता की नब्ज जानता हूं.’
लालू प्रसाद का यह जवाब सही भी लगता है. वे जनता की नब्ज पकड़ने के उस्ताद नेता हैं. यह पहला मौका नहीं है जब लालू ने जनता की नब्ज को पकड़ा या समझा. कई बार वे नब्जों की गति को भी अपने हिसाब से ढाल लेते हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘इस बार के बिहार चुनाव में एक बड़ी चाल यह रही कि भाजपा लालू पर निशाना साधने की पूरी रणनीति बनाने में लगी रही और उसके अनुसार काम करती रही, लेकिन लालू ने अपनी चालों से पूरी भाजपा टीम को अपनी पिच पर लाकर मैच खेलने को मजबूर कर दिया. लालू की पिच पर उनसे बड़ा बल्लेबाज, बॉलर और फील्डर कोई हो ही नहीं सकता. आप देखिए कि भाजपा नीतीश कुमार को परास्त करने के लिए विकास बम से लेकर पैकेज बम तक फोड़ती रही और तमाम तरह की बातें करती रही लेकिन लालू ने मोहन भागवत का बयान आने से पहले से ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने की मांग करके भाजपा को अपनी पिच पर लाने की कोशिश की. अंत में वह सफल भी रहे. भाजपा के बड़े नेताओं के साथ ही प्रधानमंत्री खुद लालू के बिछाए जाल में फंसे. वो भी जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति की बात करने लगे. और उसी दिन लग गया कि अब लालू से पार पाना इनके बस की बात नहीं.’