जनता परिवार का महाविलय हो रहा है. छह दलों का विलय हो रहा है लेकिन यह मूलतः नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टी का विलय है. इस महाविलय का पहला परीक्षण भी बिहार में ही होना है. इसी साल होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव में. बाकी विलय में शामिल दूसरे चार दलों का बिहार चुनाव में कोई असर नहीं होनेवाला. नीतीश कुमार इस महाविलय के लिए आगे आए, अच्छी बात है. राजनीति में यह सब होता ही रहता है, सो हो रहा है. मैं तो भाजपा से अलगाव के बाद से ही कह रहा था कि नीतीश कुमार का भी अब एजेंडा अगर भाजपा से लड़ना ही हो गया है और लालू प्रसाद का पहले से ही यही एजेंडा है तो अब दोनों के अलग रहने का कोई मतलब नहीं. उन्हें साथ ही आ जाना चाहिए. चलिए, देर से ही सही आ रहे हैं लेकिन अब जिस तरह से आ रहे हैं और जिस तरीके से आ रहे हैं, वह कोई बहुत फलदायी साबित नहीं होने जा रहा. इस संदेह के पीछे कई कारण मुझे दिखते हैं.
पहली बात तो यही कि नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए, सांप्रदायिकता को रोकने के लिए और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं. उनके मुंह से यह बात सुनना किसी को हजम नहीं होता. सांप्रदायिकता को रोकने का मतलब उन्हें भाजपा को रोकने से है और यह सब जानते हैं कि 1992 की घटना के बाद भाजपा ज्यादा सांप्रदायिक थी. वह ज्यादा अछूत थी. जब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ने भाजपा का साथ दिया था. साथ लिया था. और उसके बाद 2002 में गुजरात कांड के वक्त नरेंद्र मोदी या भाजपा ज्यादा सांप्रदायिक थी, तब भी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी भाजपा के साथ ही बने रहे. और आज अचानक कह रहे हैं कि सांप्रदायिकता को रोकने के लिए यह विलय हो रहा है तो यह फालतू बात है. नारे के तौर पर ठीक हो सकता है लेकिन नीयत ठीक नहीं. हां, लालू प्रसाद कहें कि वे सांप्रदायिकता विरोधी हैं तो एक हद तक वह बात समझ में आती भी है.
वैसे यह सवाल भी अपनी जगह बना रहेगा कि इस बार जनता परिवार के विलय में जो लालू प्रसाद या मुलायम सिंह यादव शामिल हो रहे हैं, ये दोनों भी कभी न कभी भाजपा का साथ लेकर सरकार बना चुके हैं. और भाजपा कभी भी गैरसांप्रदायिक पार्टी तो रही नहीं!