‘यह मोहम्मद का दीन तो नहीं है’

अगर हेब्दो के हमलावर यह दावा करते हैं कि उन्होंने अल्लाह और उसके नबी की राह पर चलकर यह काम किया है, तो वे गलत हैं. ऐसे मसलों पर अल्लाह का क्या हुक्म है और हमसे किस तरह के व्यवहार की उम्मीद रखता है? यहां तक कि खुद नबी कैसे पेश आते थे ऐसे लोगों के साथ, यह जानना बहुत जरूरी है. अल्लाह फरमाते हैं, ‘और मुश्रिकीन की जानिब से तू अपनी तवज्जो हटा ले, तेरी हिफाजत के लिए, इन हंसी उड़ानेवालों को हम देख लेंगे’. शायद ये आतंकवादी यह समझते हैं कि अल्लाह का यह हुक्म केवल नबी के समय के लिए ही था. सच्चा मुसलमान खुदा के वादे पर यकीन रखता है और उसकी हिदायत पर अमल करता है. आतंकवादी कहीं भी हों वह न केवल अल्लाह की नाफरमानी कर रहे हैं, बल्कि उसके बुरे नतीजे पूरी दुनिया के मुसलमानों को भुगतने पड़ रहे हैं.

सूरा ता हा में अल्लाह फरमाते हैं कि ‘तुम दोनों (मूसा और हारुन) जाओ फिरऔन के पास, बेशक उसने सारी हदें तोड़ दी हैं, और उससे नरमी से पेश आओ’. अगर हम इस आयत को परखें तो पाएंगे कि अल्लाह नरमी से समझानेवालों को पसंद करता है फिर चाहे सामने फिरऔन जैसा शख्स ही क्यों न हो.

आतंकवादी कहीं भी हों वह न केवल अल्लाह की नाफरमानी कर रहे हैं बल्कि उसके बुरे नतीजे पूरी दुनिया के मुसलमानों को भुगतने पड़ रहे हैं

पैगम्बर को अक्सर कुरैश के लोग उनका नाम बिगाड़ कर मोहम्मद की बजाय ‘मुधमम’ कह कर पुकारते थे, जिसका मतलब होता है धिक्कारा हुआ व्यक्ति. मगर पैगम्बर कभी उनकी बात का जवाब नहीं देते थे. वे उनकी बातों को यह कहकर टाल देते थे कि वे लोग किसी और को पुकार रहे हैं. तो फिर हम कैसे मान लें कि शार्ली हेब्दों ने जो कार्टून बनाया है वह हमारे नबी का ही है? जबकि उनकी तो कोई तस्वीर भी मौजूद नहीं. अब ऐसे मामले और सामने आएंगे, क्योंकि मुसलमानों ने अपनी एक कमजोरी जाहिर कर दी है और दुनिया का उसूल ही है कि जो जितना चिढ़े उसे उतना ज्यादा चिढ़ाओ. अगर मुसलमान इन बातों पर रद्दोअमल दिखाने की बजाए अपने किरदार पर ध्यान दें और जिस नबी के मजाक उड़ने पर इतना दुखी हैं उसकी दिखाई सही दिशा में चलें तो उनके लिए तो अच्छा होगा ही, समाज के लिए भी बेहतर होगा.

सुलह हुदैबिया के मौके पर उर्वा इब्न मसूद ने पैगम्बर की बहुत बेइज्जती की, यहां तक कि उनकी दाढ़ी भी खींचने की कोशिश की मगर फिर भी पैगंबर साहब ने कोई बुरा बर्ताव नहीं किया. आज जो लोग नबी के नाम पर लोगों का कत्ल कर रहे हैं, वह आखिर किसके दीन पर चल रहे हैं? यह मोहम्मद का दीन तो नहीं है.

कुछ लोग आतंकवादियों की गैर-इस्लामी हरकतों को यह कहकर जायज करार देते हैं की उस जमाने में मुसलमान कमजोर थे और तादाद में कम इसलिए उनको सब कुछ बर्दाश्त करना पड़ता था. मगर अब ऐसा नहीं है इसलिए मुसलमानों का बदला जायज है. सोचने की बात है कि जंग-ए-बदर में भी तो मुसलमान कमजोर थे और तादाद में कम थे तब भी उन्होंने जीत हासिल की थी. इससे यह साफ जाहिर है कि लोगों के ऊपर असर तादाद का नहीं ईमान का पड़ता है. आज तादाद ज्यादा है मगर ईमान कमजोर है. इस्लाम की आत्मा जो ‘दया’ और ‘क्षमा’ पर जोर देती है, उसे लोग भुला रहे हैं. जो इस्लाम आज सिखाया और पढ़ाया जा रहा है उसमें शायद कुछ कमी है, इसे सुधारना जरूरी है.

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