
आप लाख सफाइयां देते फिरें कि शार्ली हेब्दो के 11 पत्रकारों के नरसंहार की एक खास पृष्ठभूमि है. कोई भी मुसलमान अपने पैगंबर का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह बात मुसलमानों की समझ में तो आ जाएगी, मगर इस दुनिया में 75 फीसद गैर-मुस्लिम भी तो हैं. उनमें से कितनों को पकड़-पकड़कर आप समझाएंगे कि असल में बात यह है… चलिए शार्ली हेब्दो के कार्टूनिस्टों को तो रसूल की तौहीन के जुर्म में मारा गया. बाकी चार यहूदी पेरिस के सुपरमार्केट में किस तौहीन के बदले मार दिए गए? हां, डेनमार्क के एक अखबार ने ऐसे ही अपमानजनक कार्टून छापे थे जो किसी भी मुसलमान को गुस्सा दिलाने के लिए काफी थे. मगर ये गुस्सा भी तो मुसलमानों ने खुद पर ही निकाला और इसके नतीजे में 20 मुसलमान प्रदर्शनकारी दुनिया के अलहदा हिस्सों में मारे गए.
हां, शार्ली हेब्दो में भी ऐसे ही कार्टून छपते हैं, हां एक जर्मन पत्रिका ने भी ऐसा ही किया, हां पश्चिम में कोई भी संता-बंता थोड़े समय बाद ऐसी ही हरकत कर देता है और आइंदा भी करता रहेगा. तो आप चिढ़ते रहेंगे और वो आपको चिढ़ाते रहेंगे. उपाय क्या है? जो भी ऐसी हरकत करे उसे मार डालो! तो क्या आप किसी गैर-मुस्लिम से भी महान, आदरणीय, पवित्र इस्लामी शख्सियत के लिए उतनी ही समानता की उम्मीद रखते हैं, जितना सम्मान एक मुसलमान अपने पैगंबर और उनके सहाबियों को देता है. और अगर कोई गैर मुस्लिम ऐसा न करे तो उसे भी वही सजा मिले जो एक धर्मत्यागी के लिए है. अगर इतना ही सम्मान करना है तो फिर गैर-मुस्लिम मुसलमान ही क्यों नहीं हो जाते. भला इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर मक्का की एक बुढिया रोजाना गली से गुजरते समय गंदगी फेंकती थी. और जब एक दिन उसने आप पर कचरा नहीं फेंका तो उन्होंने लोगों से दरयाफ्त की. लोगों ने बताया कि वह बीमार है. ऐसे में जब वह उसका हाल पूछने उसके घर पहुंचे तो वह बुढ़िया आपके पैरों में गिर गई और आपने उसे गले से लगा लिया. यह किस्सा हर मुसलमान बच्चे को मुंहजबानी याद है, लेकिन सवाल यह है कि इस किस्से से किसने सीखा और क्या सीखा?