उत्तराखंड: अनर्थ को आमंत्रण

फोटो साभारः मोहित हिमरी

वन्य जीव संरक्षण कानून लागू होने तक, कुछ दशक पहले हम भारतीय जान जोखिम में डाल कर भी आखेट करते थे. बाजार में वधिक की दुकान पर हर तरह का मांस सुलभ होने के बावजूद पूरे दिन और कभी-कभी तो कई दिनों तक जंगलों में एक हिरन या खरगोश की तलाश में भटकते थे. इसमें निहित जोखिम का रोमांच, स्वयं के तीस मार खां होने की दंभ पूर्ति और स्वयं को बुरी तरह थका देने का जुनून इसके पीछे प्रमुख कारण था. मध्य हिमालय में नंदा देवी राज जात के नाम से होने वाले धमाल को मैं इसी रूप में देखता हूं. प्रायः हर बारहवें साल होने वाले इस आयोजन को हिमालयी कुम्भ कह कर महिमा मंडित किया जाता है. बगैर यह सोचे– समझे कि हरिद्वार, प्रयाग, नासिक या उज्जयिनी में होने वाले कुंभ पर्व एक समतल भूमि पर होते हैं जहां महान सरिताएं वहां जमा होने वाले अनगिनत मनुष्यों के दैहिक कलुष धोने में  यथा शक्ति सक्षम हैं. वहां की स्थिर और समतल भूमि उन सबका बोझ भी उठा लेती है. लेकिन उच्च हिमालय का जो क्षेत्र खुद अपना ही बोझ उठा पाने में सक्षम नहीं है, वहां एक साथ हजारों लोगों की धमा चौकड़ी क्या कहर बरपाएगी? सचमुच यह भेड़ चाल है. सड़क पर दो मनुष्यों, दो गाड़ियों या दो सांडों की टक्कर को देखने, एक के पीछे एक हम जिस तरह मजमा लगा देते हैं, भले ही हमारा उससे कुछ भी लेना देना नहीं होता. लेकिन चूंकि दस लोग वहां पहले से जमा हैं इसलिए ग्यारहवां भी अपनी गाड़ी साइड लगा कर दर्शक बन जाता है.

उत्तर मध्य युग में कभी गढ़वाल के राजा, उसके उप सामंतों और पुरोहितों द्वारा शुरू की गयी यह रस्म वर्ष 2000 तक स्थानीय स्तर पर ही निभायी जाती रही है. शिव उत्तराखंड और खास तौर पर गढ़वाल के आराध्य देव रहे हैं. एक सह्स्राब्धि पूर्व, यहां देश के अन्य हिस्सों से उच्च जाति के सवर्ण समुदाय के आ बसने तक शिव ही यहां के आदिवासी और दलित मूल निवासियों के मुख्य आराध्य थे. बाहरी लोगों ने यहां आकर उन पर तथा उनकी मूल परंपराओं पर कुठाराघात किया. (उन बाहरी लोगों में हमारी जाति के बंद्योपाध्याय भी शामिल थे, जो यहां आकर बहुगुणा कहलाए). मूल निवासियों की कुछ मान्यताओं को अपनी सुविधा के अनुसार ढाल दिया गया जिसमें नंदा देवी राज यात्रा भी शामिल है. चार सींग वाले एक मेंढे को नंदा देवी का वरद मवेशी मान कर उसकी अगुआई में चमोली जिले के नौटी गांव से नंदा देवी पर्वत शिखर की ओर एक वार्षिक लोक यात्रा आयोजित की जाने लगी. हर बारहवें साल इस पर्व को बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता था, फिर भी इसमें गढ़वाल और कुमाऊं के कुछ सौ स्थानीय लोग ही शामिल होते थे. वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य गठन की प्रक्रिया अंतिम चरण में थी. उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने लोगों को रिझाने के लिए इस यात्रा के लिए एक भारी-भरकम बजट का प्रावधान कर दिया. संयोगवश उस वक्त उत्तर प्रदेश के धर्म और संस्कृति पद पर इस क्षेत्र  के स्थानीय विधायक आसीन थे. उन्होंने इस आयोजन के महिमा मंडन में विशेष रुचि ली. भारी राजकीय ढिंढोरे के फलस्वरूप हजारों लोग इस यात्रा में शामिल होने को यहां इकट्ठा हो गए जिनमें से कुछ दुरूह प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काल कलवित भी हुए. तबसे यह नितांत स्थानीय आयोजन एक तमाशा बन गया. मैदानी क्षेत्रों में पावस की उमस से आकुल और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटे प्रवासी जन भी इस यात्रा में भागीदार बनने को बढ़-चढ़ कर दौड़े आये. दिल्ली- बद्रीनाथ हाईवे पर बसे कर्णप्रयाग कस्बे से 20 किलोमीटर दूर नौटी गांव से शुरू होने वाली 200 किलोमीटर से अधिक की इस 19 दिवसीय यात्रा में शामिल होने के लिए उत्तराखंड के प्रवासी जिस तरह से तन , मन और धन से शामिल होने टूट पड़ते हैं, काश ऐसी ही त्वरा उन्होंने यहां चिपको, टिहरी बांध विरोधी या नशा विरोधी आंदोलनों में दिखाई होती तो आज राज्य की तस्वीर ही कुछ अलग होती. मीडिया के द्वारा रचित आभा मंडल के कारण इस बार की यात्रा में भी 50 हजार ‘श्रद्धालु’ आ जुटे. नौबत यहां तक पहुंची कि केदारनाथ जैसी दुर्घटना की आशंका को भांप सरकार को अपील जारी करनी पड़ी, कि अब विशाल जन समूह 12 हजार फीट की ऊंचाई से आगे न जाए, जबकि पहले सरकारी तौर पर ही इस यात्रा को हिमालयी कुंभ की संज्ञा देते हुए भारी प्रचार किया गया था.

कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी शहर मेंआकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें

जात का अभिप्राय स्थानीय भाषा में यात्रा या पशुबलि से है. उत्तराखंड के निवासी बहुधा परंपरा से ही मांसाहारी रहे हैं इसलिए इस तरह की ‘जात’ का प्रचलन यहां शुरू से ही रहा है. सार्वजनिक तौर पर और बड़े पैमाने पर पशु बलि की प्रथा सामाजिक प्रयासों से समाप्त प्रायः हो चुकी है. पहले यहां देवी के विविध मंदिरों में खास अवसरों पर एक साथ सैकड़ों बकरों, भेड़ों और भैंसों की बलि दी जाती थी. उन्हें देवी को अर्पित करने के बाद भक्तगण खुद खा जाते थे. अब देवी के नाम पर एक मात्र सार्वजनिक और बड़ा मजमा नंदा देवी राज जात पर ही जुटता है. यद्यपि इस जलसे के नायक खाडू ( चमत्कार नर मेढ़े ) को 19 दिन की कठिन यात्रा में यात्रा समाप्ति के बाद इस मान्यता के साथ वहीं छोड़ दिया जाता है कि वह सशरीर देवी के पास चला जाता है, लेकिन स्वतः ही समझा जा सकता है कि वह कहां जाता होगा. यह मान्यता है कि यह चार सींग वाला खाडू बारह साल में एक बार देवी की विशेष अनुकम्पा के फलस्वरूप खास गांव और खास घर में जन्म लेता है, लेकिन कौन नहीं जानता कि किसी पशु के दो की बजाय चार सींग उग आना कोई दैवी चमत्कार नहीं बल्कि एक जन्मजात शारीरिक विकृति है जो मनुष्यों और दूसरे प्राणियों में भी होती है. इसी बार की यात्रा में वीआईपी खाडू के अलावा कम से कम चार खाडू ऐसे शामिल थे जिनके दो की बजाय चार सींग थे.

स्थानीय लोगों द्वारा अपने स्तर पर पहले की तरह यह आयोजन होता रहे, तो शायद ही किसी को आपत्ति हो, लेकिन हर तरह के मीडिया और प्रचार माध्यमों के जरिए हजारों लोगों को यहां हांका लगाकर जुटा लाना भारी अनर्थ का द्योतक है. यह यात्रा चार हजार फीट से शुरू होकर अठारह हजार फीट से अधिक ऊंचाई तक पहुंचती है. इस क्षेत्र में कस्तूरी मृग, मोनाल, गोरल, काकड़ जैसे दुर्लभ और संकट ग्रस्त प्रजाति के थल और नभ चर पशु-पक्षियों का सुरक्षित आवास है. उनका एक अलग ही लोक है. उन्हें शायद यह आभास भी नहीं होगा कि इस सृष्टि में मनुष्य नाम का कोई प्राणी भी है. कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी गांव या शहर में आकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें ? कभी-कभार इक्का-दुक्का बाघ या हाथी के आबादी में आ जाने पर हम कैसी हाय-तौबा मचाते हैं? मुझे यह तथ्य इसी बार और इसी संदर्भ में विदित हुआ कि कस्तूरी मृग के शिकारी कस्तूरी मृग को देखते ही जोर से शंख बजाते हैं. इस अपूर्व शंख ध्वनि को  सुनते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ता है. तब उस पर गोली चलाई जाती है. हजारों लोगों की तुमुल ध्वनि और अनगिनत शंख नाद से उनकी क्या गति हुई होगी, यह कल्पनातीत है.

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