
‘मित्रो मरजानी’ के 50 साल पूरे हुए हैं, आज मित्रो को कहां पाती हैं?
अब मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही, समय के साथ-साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गई है. वह अब एक संयुक्त परिवार की स्त्री नहीं है जो हर बात में पीछे रखी जाती है. उसे अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का भी अधिकार है और ये अधिकार उसने अर्जित किया है. और यह एक विस्मयकारी बात भी है कि एक इतना चुलबुलाहट पैदा करने वाला नाम अब इतनी गंभीरता से लिया जा रहा है. पिछली सदी की जो दस बड़ी किताबें हैं उनमें मित्रो मरजानी आती है और ये मैं जानती हूं कि ये लेखक का काम नहीं है. ये उसका अपना व्यक्तित्व था, जिसे उसने खुद तैयार किया.
मित्रो को आए आधी सदी बीत चुकी है. इस काल खंड में स्त्री स्वतंत्रता और समानता के अधिकार पर ढेरों बहसें हुईं. इन बहस-मुबाहिसों के बीच क्या मित्रो अब भी कहीं खड़ी है?
देखिए, मित्रो इसी दुनिया का हिस्सा है और अब दुनिया बदल रही है. अब हमारे एक छोटे-से गांव की लड़की को भी जागृति है कि मैं वह नहीं जो मैं हुआ करती थी. और वह इस बात को खुद में ही नहीं टटोलती बल्कि दुनिया में भी देखती है. तब उसे वो शब्द याद आते हैं जो उसने तब कहे थे जब वो शिक्षित भी नहीं थी. अगर ऐसा न होता कि उसकी उलझनों के पीछे वह गंभीरता न होती जिसका संबंध सिर्फ आजादी से नहीं था, शिक्षा से भी नहीं था पर उसका संबंध सेक्स से भी है, जिसे ये मान लिया गया है कि उस पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं है. उस पर सिर्फ पुरुषों का अधिकार है. ये भी अजीब बात है कि इस वक्त पूरी दुनिया में इस बात का एहसास तीखा होकर उभर रहा है कि स्त्री, जिसे इस पूरे लोक को कायम रखने की ताकत दी गई, उसे हम नीचे कुचल रहे हैं. इसके पीछे कई कारण भी हैं. हमारे यहां संयुक्त परिवार ने कई बातों का अपने रूप में अनुवाद करके स्त्री पर थोपा हुआ है. पर अब शिक्षा के साथ, आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ये बदलेंगी.
50 साल पहले की मित्रो अपनी सेक्सुअल डिजायर को लेकर जिस आजादी की बात करती है वह वर्तमान में भी नहीं दिखती. शिक्षा, समानता और आर्थिक अधिकारों की बात होती है पर स्त्री अपनी यौन इच्छाओं को जाहिर नहीं कर सकती. इसे ‘नैतिकता’ के परदे में डाल दिया गया है.
ये दुनिया बहुत बड़ी है. इसमें कई तरह के आवरण हैं. आज जो लड़कियां शिक्षित हैं, पढ़ रही हैं उन्हें इस बात का एहसास है. हमारे समाज में इन बातों को लेकर नैतिकता का जो कोड है वो बहुत सख्त रहा है. पर अब ये बदलेगा क्योंकि अब वह सिर्फ घर में नहीं है, परिवार में नहीं बाहर भी है. वह अपनी जीविका कमा रही है. मेरा तो यह कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी जीविका नहीं कमाता वह पूरा नागरिक ही नहीं है. वो भी इस समाज में, जहां संयुक्त परिवार हैं. संयुक्त परिवार में जितनी भी खूबियां हों, यह आपको और स्त्रियों को कितनी भी सुरक्षा देता हो, पर उनके आत्मबल, आत्मविश्वास को कम कर देता है.
तो ये कह सकते हैं कि कहीं न कहीं संयुक्त परिवार स्त्रियों को पीछे खींचता रहा है?
जी, बिल्कुल खींचता रहा है और अब जो परिवर्तन हो रहा है वो सिर्फ इसलिए कि बेटियां बाहर निकल रही हैं, बेटे देश से बाहर जा रहे हैं. परिवार का जो पहला स्वरूप था वो छिन्न-भिन्न हो रहा है. ये तो समाजशास्त्री भी मानेंगे.
पर समाजशास्त्रियों का ये भी कहना है कि एक समाज के बतौर इन संयुक्त परिवारों का टूटना नकारात्मक है. पर अगर स्त्रियों की बात करें तो संयुक्त परिवार से निकल कर ही वे कुछ कर पाती हैं.
बिल्कुल. मैं खुद संयुक्त परिवार से हूं पर मेरी अपनी आजादी का एक हिस्सा है जो सभी संयुक्त परिवारों में नहीं मिलता. वहां आपको सुरक्षा मिलती है यानी अगर आप नहीं भी कमा रहे हैं तब भी आराम से रह सकते हैं. लोग इन्हीं बातों पर समझौते करते हैं. इसके अलावा एक व्यक्ति के रूप में अकेले रहकर अर्जित की हुई खूबियां नहीं आ सकतीं. संयुक्त परिवार में अपना अलग अस्तित्व बना पाना बहुत मुश्किल है.
आज जब स्त्री मुद्दों पर बात होती है तब उसे स्त्री विमर्श का नाम दिया जाता है. इस स्त्री विमर्श पर क्या कहेंगी?
ये जो शब्द है ये भी एक खास किस्म की इंटेलेक्चुअल धोखाधड़ी है. इस तरह की बातों से आप एक तरह से उन्हें गलत रास्ते पर जाने के लिए लगातार प्रोत्साहित कर रहे हैं कि तुम्हारी सुरक्षा का प्रश्न है तो इतना तो चलेगा. और इसके साथ हमारी नैतिकता भी चलेगी. आप किसे कह रहे हैं नैतिकता! आज की तारीख में चीजें बदल गई हैं. अब पुरानी चीजें नहीं चलेंगी. अब ये एक स्वतंत्र लोकतंत्र है. लोकतंत्र होने की कुछ शर्तें होती हैं, उसकी एक जलवायु होती है. अगर आप अपने समाज के एक हिस्से को लगातार दबाए रहेंगे तो ये मानकर चलिए कि आपकी अगली पीढ़ियां वैसी नहीं होंगी जैसा उन्हें होना चाहिए.
सालों पहले मित्रो जिस तरह अपनी शारीरिक इच्छाओं को लेकर आजादी की बात करती है, अब तक कहीं चर्चा का हिस्सा नहीं है.
हमें ये कहने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि हम कुछ चीजों पर अटक जाते हैं. उनसे जुड़े रहना चाहते हैं. हम दिखाना चाहते हैं कि हम बदल रहे हैं पर हम इतना ही बदल रहे हैं जितनी हमारी सहूलियत है.
पहले तो स्त्रियां लिखती नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं
साहित्य में महिलाएं कहां हैं? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्त्री प्रेम और त्याग में ही अटकी हुई है.
साहित्य की बात कुछ बदलकर करनी होगी. हमारे यहां समाज के बदलने की रफ्तार जरा धीमी है. पर चीजें बदलती हैं. तो ये बातें अपने आप आती हैं. आप किसी पर थोप नहीं सकते कि तुम्हें क्या करना चाहिए. पहले तो स्त्रियां लिखती भी नहीं थीं, न साहित्य का हिस्सा ही होती थीं, अब वे बहुत संघर्ष के बाद वहां पहुंची हैं. तो अभी इस नई मिली आजादी को महसूस कर रही हैं. वे बदलाव की तरफ अग्रसर तो हैं.
पर जिस तरह समाज बदला है उस बदलाव को साहित्य में उतनी जगह नहीं मिली है.
ये वो देश है जहां नागार्जुन ने कहीं लिखा है कि घर में भी मेरी और मेरी पत्नी की बात नहीं होती थी तो हमने सोचा कहीं भाग चलते हैं. तो जिस तरह का दबाव समाज में है वो साहित्य में भी है. वैसे कुछ लेखिकाओं के लेखन में आपको नयापन मिलेगा.

2010 में आपने पद्म सम्मान लेने से मना किया. तब आपने कहा था कि लेखक को शासक वर्ग से दूर होना चाहिए. वजह?
मैं अब भी ऐसा ही सोचती हूं. अगर शासक और राजनीतिक दलों द्वारा अपने फायदे के लिए ऐसे सम्मान मिलते हैं तो उससे आप बड़े नहीं हो जाते. इसके बिना आपके पास ये अधिकार रहता है कि अगर आपको कोई बात गलत लग रही है तो आप उस पर बोल सकते हैं.
तो क्या ये समझें कि ये पुरस्कार इसलिए दिए जाते हैं ताकि आप शासन का पक्ष लें?
प्रबुद्ध वर्ग का विरोध का अपना तरीका होता है. जैसे कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था पर जब आप इसे भी गालियां दे रहे हैं तो ये गलत है. ये समझना चाहिए कि ये एक ऐसा मुल्क है जहां कोई साधारण लेखक हो या बड़ा, उसके पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके.
इस बार पुरस्कार वापसी पर भी लेखकों का विरोध हुआ. कहा गया कि ये मोदी विरोधी लेखक हैं जो ऐसा कर रहे हैं.