‘आदिवासी समाज से कोई आगे आएगा तो हिंदी लेखकों की चिंता बढ़ जाएगी’

आपने गांव के स्कूल में पढ़ाई पूरी की. आप कॉलेज नहीं गए. क्या कविता लेखन में रुचि स्कूली जीवन से ही थी?

नहीं, स्कूली जीवन में क्या लिखने की रुचि रही होगी. बस किसी तरह पढ़ाई कर लिया करते थे. छठी क्लास में पहुंचने के बाद लगा कि कोई कक्षा में अव्वल आता है तो उसकी वैल्यू क्लास में बढ़ जाती है. ऐसा सोचकर मुझे लगा कि मुझे भी कक्षा में अव्वल आना चाहिए. फिर मेरी दिलचस्पी पढ़ाई में जगने लग गई लेकिन उसी समय मेरे ऊपर विपत्तियों का पहाड़ भी आ टूटा. मेरे मजदूर पिता ने अपनी कमाई से गांव में ही जमीन का एक टुकड़ा खरीदा तो गांव और आस-पड़ोस के लोगों को यह अखर गया. उन्होंने पिता की इस तरक्की से जल-भुनकर बदला लेना शुरू कर दिया. मेरे पिता को ओझा-गुनी करार दिया गया. समाज ने कई स्तर पर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. बिना वजह अपमान सहने का बोझ पिता बर्दाश्त नहीं कर सके. वे अंदर ही अंदर टूट गए. इतने उद्वेलित और दुखी हुए कि एक रात हमसब को छोड़कर कहीं निकल गए और आज तक उनका पता नहीं चल सका. उनके पीछे हमारे घर में हम दो भाई और मां रह गए. मेरे बड़े भाई को जमीन को लेकर झगड़ा और प्रताड़ना करने वाले ताऊ ने अपनी ओर पहले ही मिला लिया था और पिता से अलग करवा दिया था, जिन्होंने पिता को डायन करार देने में अहम भूमिका निभाई थी. इस तरह से अब मैं और मेरी मां ही इस विपत्ति में एक-दूसरे का सहारा रह गए थे. मां ने ही मां और पिता- दोनों की भूमिका निभाई और मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया. 2006 में मां भी गुजर गईं.

न पढ़ाई-लिखाई की पृष्ठभूमि, न कोई गुरु, तब आखिर आपने पहली बार लिखने की शुरुआत कब की और कविता की विधा को ही लेखन में क्यों चुना?

कविता लिखने का चयन मैंने विधा जैसा कुछ सोच-समझकर शुरू नहीं किया था. न ही यह सोचकर लिखना शुरू किया कि मुझे यह लिखना है, वह लिखना है. सीआईएसएफ की नौकरी में आया तो देश के अलग-अलग हिस्से में नौकरी के लिए जाता रहा. मुझे अपनी भाषा संथाली की ही समझ थी. हिंदी बस काम चलाने लायक बोल लेता था. नौकरी तो करता रहा लेकिन जो पिता के साथ हुआ था, वह कसक हमेशा मन में रहती थी. उसी पीड़ा को मैंने कागज पर उतारना शुरू कर दिया. कविता सोचकर नहीं लिखी लेकिन वह कविता की तरह होता गया. लिखकर पहली बार एक संथाली पत्रिका में भेजी और वह छप भी गई. मैं बहुत उत्साहित हुआ. फिर तो जब भी समय मिले, लिखता ही गया. आॅल इंडिया संथाली राइटर्स एसोसिएशन ने मुझसे संपर्क किया और लिखने के लिए प्रोत्साहित किया. 2001 में जब मैं 27 साल का था तब ऑल इंडिया संथाली राइटर्स एसोसिएशन ने कविता लेखन के लिए मुझे सम्मानित और पुरस्कृत किया. उसके बाद कई संथाली पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया. मुझे सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा और फिर 2011 में मुझे अपनी रचना संग्रह ‘बांचाव लड़हाई’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार/सम्मान मिला.

इस कविता संग्रह में क्या है?

संथाली में जो ‘बांचाव लड़हाई’ है, उसका हिंदी में अर्थ है जीने का संघर्ष. रोजमर्रा के जीवन में इंसानी समुदाय के सामने जो जीवन के संघर्ष हैं, उसी को केंद्र में रखकर मैंने हमेशा लिखा. मैंने इस संघर्ष को बहुत करीब से देखा है. जब मेरी पहली पोस्टिंग केरल में हुई और वहां गया तो मैं खुद को संथाली बताता था तो मुझसे यह सवाल किया जाता था कि हू आर यू? यह मेरे लिए अप्रत्याशित था. अपने देश में मुझे अपनी पहचान बतानी पड़ेगी कि मैं कौन हूं? मैं किस समुदाय से हूं? यह संकट सिर्फ मेरे समुदाय के साथ नहीं, कई समुदाय और अनंत लोग ऐसे हैं, जिन्हें इन सवालों से टकराना पड़ता है. बस, इन्हीं अनुभवों को लिखता गया और संकलन तैयार हो गया.

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आप सीआइएसएफ में कांस्टेबल हैं. समय नहीं मिलता होगा, फिर लेखन कब करते हैं?

लेखन के लिए माहौल की जरूरत होती है, यह मुझे कभी नहीं मिला क्योंकि आप जानते हैं कि अर्द्धसैनिक बलों में काम करने का अपना एक अनुशासन होता है. सबकुछ तय समय से होता है. समय तो अभी भी नहीं मिलता है. लेकिन मुझे जब भी समय मिला, मैं लिखता गया. घर में पत्नी पूरा दिन मेरा इंतजार करती हैं इसलिए ड्यूटी से घर पहुंचते ही तुरंत नहीं लिख सकता हूं. ऐसे आलम में मेरे पास एक ही बहाना बचता है. मॉर्निंग वॉक पर जाने और पार्क या कहीं थोड़ी जगह देखकर लिखने बैठ जाता हूं.

जब आपको साहित्य अकादमी मिला होगा तब तो आप सीआइएसएफ में हीरो की तरह हो गए होंगे. बहुत छोटी उम्र में, मामूली कांस्टेबल के पद पर रहते हुए इतना बड़ा राष्ट्रीय सम्मान आपने पा लिया?

ऐसा कुछ नहीं है. साहित्य अकादमी सम्मान को पानेवाला सैनिक और अर्द्धसैनिक बलों की तमाम कंपनियों से में पहला आदमी था. और साहित्य अकादमी के इतिहास में भी सबसे कम उम्र का कवि-लेखक. लेकिन फौज या अर्द्धसैनिक बलों की अपनी कार्यप्रणाली होती है. वहां खेलकूद आदि की उपलब्धियों को ज्यादा तवज्जो मिलती है, साहित्य से किसी को बहुत ज्यादा सरोकार नहीं है वहां.

आपको जिस साल साहित्य अकादमी मिलाउसी साल हिंदी में काशीनाथ सिंह को भी मिला था. अकादमी का सम्मान मिलने के बाद हिंदी के साहित्यकारों-कवियों ने आपको बधाई दी होगी. आपसे संपर्क किया होगा और आपको प्रोत्साहित करने की कोशिश की होगी?

नहीं. किसी ने नहीं. कोई ऐसा नहीं आया, जो कम से उस सम्मान समारोह में ही कहता कि तुमने बहुत अच्छा काम किया. या कम से कम पूछ लेता कि क्या लिखे हो संथाली में, जरा हिंदी में समझा दो. अब तक किसी ने बधाई नहीं दी. सिर्फ संथाली राइटर्स एसोसिएशन के लोगों ने बधाई दी और रांची में अखड़ा, जोहार दिसुम खबर, सहिया जैसी पत्रिका निकालनेवाले अश्विनी दा, वंदना दीदी जैसे लोगों ने बधाई दी और आगे लिखने को प्रोत्साहित किया. हिंदी वालों को लोकभाषाओं के रचनाकारों से अलग-अलग किस्म का खतरा सताता रहता है इसलिए वे कभी पूछेंगे भी नहीं. आदिवासियों की अलग-अलग भाषाओं के रचनाकारों से तो और ज्यादा. और ऊपर से तो यह भी अखरने वाली बात रही होगी कि मामूली कांस्टेबल, जो न एमए. पीएचडी किया, न बड़े गुरुओं के संपर्क में रहा, यह कैसे साहित्य अकादमी तक पहुंच गया.

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