विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार जहां शिशु मृत्यु दर का वैश्विक औसत प्रति एक हजार पर 32 है वहीं भारत का औसत 38 है. नवजात शिशु मृत्युदर (प्रति एक हजार पर 28) और जन्म के पहले पांच सालों में होने वाली मौतों (प्रति एक हजार पर 48) के मामले में भी भारत आगे है, जो कि चिंताजनक है. शिशु मृत्यु पर रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय न्यूनतम विकास लक्ष्य अभी भारत की पहुंच से कोसों दूर है. कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति किसी से छिपी नहीं है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 5 साल से कम आयु के 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं. दुनिया के 10 अविकसित बच्चों में से चार भारतीय होते हैं और पांच साल से कम उम्र के लगभग 15 लाख बच्चे हर साल भारत में अपनी जान गंवाते हैं. इस बारे में विशेषज्ञों की राय है कि इन मौतों का मुख्य कारण बच्चों में संक्रमण और उनका औसत से कम वजन का पैदा होना है. ऐसे ही बच्चे बाद में कुपोषण, निमोनिया, डायरिया जैसे रोगों के शिकार हो जाते हैं, जिसके चलते उनकी असमय मौत हो जाती है. इस स्थिति में एक बच्चे के लिए मां का दूध जीवनरक्षक साबित होता है. नवजात शिशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता मां के दूध से ही विकसित होती है. मां का दूध उसके लिए एंटीबॉयोटिक (प्रतिजैविक) का काम करता है, जो पूर्ण पोषण देते हुए भविष्य में होने वाले किसी भी संक्रमण से उसे बचाता है. जिन बच्चों को उनके जीवन के शुरुआती घंटे से छह माह तक अच्छी मात्रा में स्तनपान नसीब होता है, उन्हें उन अन्य बच्चों के मुकाबले मधुमेह, हाइपरटेंशन जैसी गैर-संक्रमणीय बीमारियां होने का खतरा काफी कम रहता है, जिन्हें स्तनपान पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता. पर्याप्त स्तनपान का लाभ बच्चों को बड़े होने के बाद भी यानी प्रौढ़ावस्था/वृद्धावस्था में भी मिलता है. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हर साल दुनियाभर में जन्म लेने वाले 13.5 करोड़ बच्चों में से 60 प्रतिशत को मां का दूध नसीब नहीं होता (ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार). इसलिए उन्हें केवल बकरी, गाय के दूध या फिर फॉर्मूला मिल्क का ही सहारा होता है, जिससे उनमें बीमारियों, संक्रमण और असमय मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण 2005-2006 के अनुसार भारत में केवल 23% माताएं ही शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर उन्हें स्तनपान करा पाती हैं. अगर नवजात के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करने की दर में वृद्धि कर दी जाए तो नवजात शिशुओं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के अनुपात को कम किया जा सकता है. इस तरह हर साल भारत में करीब दस लाख शिशुओं की जान बचाई जा सकती है.
देश की बाल मृत्युदर और कुपोषण से संबंधित इन भयभीत कर देने वाले आंकड़ों से रूबरू होने के बाद योग गुरु देवेंद्र अग्रवाल को अपने अनाथाश्रम के बच्चों के बिगड़ते स्वास्थ्य का कारण समझते देर नहीं लगी. जो फॉर्मूला मिल्क वह अपने आश्रम के बच्चों को दे रहे थे, वह मां के दूध का एक सर्वोत्तम विकल्प साबित नहीं हो पा रहा था. जिससे उनके अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता का समुचित विकास नहीं हो रहा था. इसका विकल्प केवल मां का दूध ही हो सकता था. इस दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने राज्य सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा जिसमें एक ऐसा बैंक खोलने की इच्छा जताई, जहां अपने शिशु को स्तनपान कराने के बाद बचे मां के अतिरिक्त दूध का संग्रह किया जा सके और उन बच्चों की मदद की जा सके जिन्हें मां का दूध नहीं मिल पाता. इस प्रस्ताव को राज्य सरकार द्वारा हरी झंडी मिलने पर उदयपुर जिले के आरएनटी मेडिकल कॉलेज स्थित शासकीय पन्ना धाय महिला चिकित्सालय के एक हिस्से में योग गुरु देवेंद्र अग्रवाल की स्वयंसेवी संस्था ने अपने खर्चे पर ‘दिव्य मदर मिल्क बैंक’ की स्थापना की. देवेंद्र अग्रवाल बताते हैं, ‘दो साल से संचालित हमारे बैंक में अब तक 2,911 महिलाएं 20,807 यूनिट यानी तकरीबन 624 लीटर (एक यूनिट में 30 मिलीलीटर दूध होता है) दूध दान कर चुकी हैं जिससे 1,661 नवजात और 1,793 मांएं लाभांवित हुए हैं. हमारे बैंक में पहली प्राथमिकता एनआईसीयू (नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट) में मौत से लड़ रहे शिशुओं को दी जाती है और बचा हुआ दूध आश्रम के बच्चों को मिलता है.’
दिव्य मदर मिल्क बैंक की तर्ज पर ही राज्य की राजधानी जयपुर के जेके लोन अस्पताल में चल रहे महिला चिकित्सालय में राज्य सरकार और नॉर्वे सरकार की भागीदारी से ‘जीवनधारा’ नाम का मदर मिल्क बैंक खोला गया है जो राज्य का पहला सरकारी और उत्तर भारत का दूसरा मदर मिल्क बैंक है. मदर मिल्क बैंकिंग पर प्रकाश डालते हुए ‘जीवनधारा’ की मिल्क काउंसलर ममता महावत बताती हैं, ‘शिशु और मां का नाता केवल भावनात्मक ही नहीं होता, यह दोनों के लिए जीवनदायी भी होता है. मां का दूध अपने शिशु के लिए अमृत से कम नहीं होता. स्तनपान के अभाव में एक शिशु के जीवनभर गंभीर रोगों से ग्रस्त रहने की आशंका बढ़ जाती है तो मां के अंदर भी स्तनपान न कराने से स्तन कैंसर की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. मां के दूध के विकल्प के तौर पर हम आज जिस फॉर्मूला दूध का इस्तेमाल करते हैं, उसे विशेषज्ञों द्वारा शिशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया जा चुका है. स्तनपान का विकल्प केवल मां का ही दूध हो सकता है. वे अनाथ शिशु या वे शिशु जिनकी मां किसी कारणवश उन्हें दूध नहीं पिला पाती हैं, उन्हें मदर/ह्यूमन मिल्क बैंक के माध्यम से अस्पताल की नर्सरी में भर्ती उन दूसरी मांओं का दूध पिलाया जाता है जिनके पास अपने शिशु को स्तनपान करने के बाद भी प्रचुर मात्रा में दूध बनता है. इन महिलाओं के दूध को पॉश्च्युराइज कर माइनस 20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर संग्रह किया जाता है. जिसे बाद में स्तनपान से वंचित शिशुओं को आवश्यकतानुसार पिलाया जाता है. इसके अलावा कुछ ऐसी महिलाएं भी बाहर से आती हैं जो अपना दूध दान करने की इच्छा जताती हैं.’
वर्तमान में भारत के विभिन्न राज्यों में 20 ऐसे मिल्क बैंक हैं, जिनमें से अधिकांश हाल ही में खुले हैं. भविष्य में कई राज्य सरकाकों की इस तरह के और भी बैंक खोलने की योजना है. ‘जीवनधारा’ की शुरुआत के बाद राजस्थान सरकार ने राज्य के दस जिलों में भी मिल्क बैंक स्थापित करने की घोषणा की है. राज्य की इस योजना से बतौर सलाहकार जुड़े देवेंद्र अग्रवाल कहते हैं, ‘भारत में स्तनपान की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बदतर है, जो शर्म की बात है. यही कारण है कि शिशु मृत्युदर के आंकड़े हमारे लिए चिंता का सबब हैं. मां के दूध का मोल तो बताया नहीं जा सकता पर यह हर नवजात को मिलना ही चाहिए. इससे नवजात शिशु मृत्युदर में 22 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है. इसके लिए मदर मिल्क बैंक की स्थापना एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा.’
पिछले दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता द्वारा राज्य के सात जिला अस्पतालों में मदर मिल्क बैंक खोले हैं, जिसके बाद राज्य में इनकी संख्या आठ पर पहुंच गई है. हालांकि ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के केंद्रीस समन्वयक डॉ. अरुण गुप्ता शिशु मृत्युदर और कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में मदर मिल्क बैंक को क्रांतिकारी कदम के तौर पर नहीं देखते. उनका मानना है, ‘केवल मिल्क बैंक बना देने से समस्या का हल नहीं हो जाएगा. यह महज स्वास्थ्य बजट के नाम पर आया पैसा खर्च करने की सरकारी कवायद है. बाकी चीजें जो इतने सालों से नहीं हो रही हैं पहले उन पर तो ध्यान दीजिए.’ वह जोर देते हैं कि भारत में स्तनपान के मामले में महिलाओं में काफी भ्रांतियां हैं. उन भ्रांतियों को दूर करने और स्तनपान कराने के लिए महिलाओं को प्रेरित करने हेतु प्रशिक्षित सलाहकारों की कमी है. वह कहते हैं, ‘समय पूर्व जन्मे अल्पविकसित और कम वजन के शिशुओं के लिए मिल्क बैंक लाभदायक तो हो सकते हैं पर स्तनपान की कमी, किसी अन्य मां का दूध पूरी नहीं कर सकता. मां के दूध में जीवित कोशिकाएं होती हैं जो स्तन से बाहर आते ही मृत हो जाती हैं. साथ ही मिल्क बैंक के दूध में हाइजीन की भी समस्या बनी ही रहती है, क्योंकि इसे पिलाने के लिए चम्मच आदि का ही प्रयोग किया जाता है. इसलिए स्तनपान को लेकर एक व्यापक रणनीति के तहत आगे बढ़ना होगा और ह्यूमन मिल्क बैंकिंग को एक सहयोगी रणनीति में रखना होगा. ब्राजील, जहां विश्व में सर्वाधिक मिल्क बैंक हैं वह यही तो कर रहा है. दूध बैंकों के अलावा वहां डाकियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है कि वो गर्भवती महिलाओं को स्तनपान से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराएं. परिणाम सबके सामने है, आज वहां शिशु मृत्यु दर में 73 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.’
मुंबई के लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल अस्पताल में 1989 में स्थापित किए गए एशिया के सबसे पहले ह्यूमन मिल्क बैंक ‘स्नेहा’ को अब ‘सायन मिल्क बैंक’ के नाम से जाना जाता है. यहां की वर्तमान निदेशक डॉ. जयश्री मोंडकर कहती हैं, ‘मां का दूध तो शिशु का सर्वोत्तम आहार है ही लेकिन कई बार उच्च रक्तचाप, अधिक रक्तस्राव या तेज बुखार के चलते मां शिशु को दूध नहीं पिला पाती हैं. उस स्थिति में किसी दूसरी मां का दूध ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प होता है, लेकिन यह सीधा स्तन से निकालकर शिशु को नहीं दिया जा सकता है. उससे पहले कुछ सेफ्टी टेस्ट करने पड़ते हैं और सावधानियां भी बरतनी होती हैं. सबसे पहले तो डोनर मदर का स्वस्थ होना जरूरी है. उसे सर्दी, खांसी, टीबी या अन्य कोई बड़ी बीमारी न हो. उसके खून में एचआईवी, हेपेटाइटिस और बीडीआरएल टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव हो. फिर ऐसी मांओं से इलेक्ट्रिक पंप की सहायता से दूध निकाला जाता है, जिसे बैंक में 62.5 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान पर 30 मिनट तक पॉश्च्युराइज करने के बाद 4 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर ठंडा किया जाता है. इसके बाद हर डिब्बे से एक मिलीलीटर दूध का नमूना माइक्रोलैब में टेस्टिंग के लिए भेजा जाता है. रिपोर्ट निगेटिव आने पर इसे शून्य से 20 डिग्री नीचे के तापमान पर बर्फ के गोले के रूप में बैंक के फ्रीजर में संग्रहित कर लिया जाता है. इस स्थिति में यह छह महीने तक प्रयोग किया जा सकता है. जब इसे किसी शिशु को पिलाना होता है तो उसे गर्म पानी में पतलाकर नली या चम्मच के सहारे पिला दिया जाता है. एक बार तरल रूप में आने पर यह अधिकतम चार घंटों तक ही उपयोगी होता है.’ आगे वह जो भी बताती हैं उससे डॉ. अरुण गुप्ता की बात को बल मिलता है. वह कहती हैं, ‘हम एक शिशु को मिल्क बैंक के सपोर्टिंग सिस्टम पर सिर्फ तब तक ही रखते हैं जब तक कि उसकी मां को इतना सक्षम नहीं बना देते कि वह खुद अपने शिशु को स्तनपान करा सके, क्योंकि पराई मां का यह दूध महज एक विकल्प है जो मां के स्तनपान की जगह नहीं ले सकता है.’
वर्तमान में मां का दूध हर मिल्क बैंक में निशुल्क उपलब्ध है पर इस संबंध में कोई ठोस सरकारी नीति का न होना भविष्य में इसे एक व्यापार में भी तब्दील कर सकता है. डॉ. अरुण गुप्ता भी ऐसी आशंका व्यक्त करते हैं. वह कहते हैं, ‘ठोस सरकारी नीति के अभाव में देश में जिसे देखो वो मदर मिल्क बैंक खोल रहा है. इस तरह तो एक दिन मां के इस अनमोल अमृत का मोल लगाया जाने लगेगा. इससे काफी समस्याएं खड़ी होंगी. ममता बिकने लगेगी. जो समाज का भी नैतिक पतन होगा. इसलिए एक सरकारी व्यवस्था बनाकर ही इस पर आगे बढ़ा जाए तो ठीक रहेगा. कहां ऐसे बैंक की ज्यादा जरूरत है यह भी देखना होगा.’ डॉ. अरुण गुप्ता की यह आशंका व्यर्थ नहीं है. विकसित देशों में आज मानव दूध का एक बड़ा ऑनलाइन बाजार सज चुका है. भारत अब तक इससे अछूता है तो शायद इसीलिए ही कि यहां अभी ह्यूमन मिल्क बैंक की उपलब्धता शुरुआती दौर में है.
ह्यूमन मिल्क बैंक में दूध दान करने वाली प्रमुख तौर पर तीन प्रकार की महिलाएं होती हैं. पहली वे जिनका दूध अधिक बनता है, दूसरी वे जिनके शिशु एनआईसीयू में होने के कारण दूध नहीं पी सकते और तीसरी वे जिनके शिशु की मृत्यु हो जाए. इनमें कुछ ऐसी महिलाएं भी होती हैं, जिन्हें दूध तो बनता है पर किन्हीं कारणों से वे शिशु को पिला नहीं पाती. ऐसी महिलाओं का दूध इलेक्ट्रिक पंप की सहायता से निकालकर उनके शिशु को पिलाया जाता है और बाकी बचा दूध बैंक में संग्रहित कर लिया जाता है. कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो प्रसव के बाद कुछ दिन तक अपने शिशु को स्तनपान नहीं करा सकी थीं और विकल्प के अभाव में उनका बच्चा शुरुआती आवश्यक मां के दूध से वंचित रहा. ऐसी ही एक महिला सोनू नागदा से ‘तहलका’ ने बात की. सोनू की दोनों ही डिलीवरी सीजेरियन पद्धति से हुई थीं जिसके चलते उनके सामने दूध न बनने की समस्या आई. वह बताती हैं, ‘मैंने अपने बच्चों का दर्द महसूस किया था जब मैं उन्हें स्तनपान नहीं करा पाती थी. डॉक्टर कहा करते थे कि शिशु के उचित पोषण के लिए मां का दूध जरूरी है, पर मैं बेबस थी. जब सब सामान्य हुआ तो लगा कि उन बच्चों का क्या जिनकी मां ही नहीं हैं? जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ था, उसके कुछ ही दिन बाद अखबार में मदर मिल्क बैंक के बारे में जाना, जहां माताएं अपने शिशु को पिलाने के बाद अतिरिक्त दूध दान कर सकती थीं, जिसका उपयोग ऐसे जरूरतमंद बच्चों के लिए किया जाना था जो किसी कारणवश मां के दूध से वंचित हों. मैनें तब ही ठान लिया था कि मुझे भी दूध दान करना है.’
हालांकि हकीकत ये है कि देश में मिल्क बैंक का नेटवर्क तेजी से बढ़ रहा है पर इन्हें दानदाताओं की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है. मुंबई के सायन मिल्क बैंक में अस्पताल आधारित दान व्यवस्था है अर्थात जो महिलाएं अस्पताल में इलाज के लिए आती हैं वही दानदाता होती हैं. सालभर में ऐसी आठ से दस हजार महिलाओं से बैंक को 1000 से 1400 लीटर तक दूध प्राप्त हो जाता ह,ै जिसका हर साल औसतन चार हजार बच्चे लाभ उठाते हैं. किसी दिन दूध पर्याप्त रहता है तो किसी दिन कमी भी पड़ जाती है. इसी तरह सूरत म्युनिसिपल चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान में 2011 से संचालित मिल्क बैंक भी दानदाताओं की समस्या से जूझ रहा है. उनकी वेबसाइट पर दिए आंकड़े मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर दिखा रहे हैं. अप्रैल से जुलाई 2015 के बीच मिल्क बैंक में 12.5 लीटर दूध दान में मिला है जबकि 21 लीटर से अधिक दूध जरूरतमंदों में बांटा गया है. लेकिन राहत की बात यह है कि अब महिलाएं दान के लिए खुद ही आगे आ रही हैं.
दिव्य मदर मिल्क बैंक के दो साल के इतिहास में रेखा चेदवाल सबसे ज्यादा दूध दान कर चुकी हैं. जब वह गर्भ से थी तो इलाज के लिए जाते वक्त उन्होंने अस्पताल परिसर में खुल रहे मदर मिल्क बैंक का विज्ञापन देखा था. वह बताती हैं, ‘जब मेरा पहला बच्चा हुआ तो मुझे काफी अतिरिक्त दूध बनता था. इसके बाद दूसरे बच्चे के समय मैं जब अस्पताल गई तो देखा कि अस्पताल में खुले मिल्क बैंक में माताएं अपना अतिरिक्त दूध दान कर सकती हैं. इससे अच्छी और क्या बात हो सकती थी कि मेरा दूध उन जरूरतमंद बच्चों के काम आ रहा था जो अनाथ हैं, अल्पविकसित हैं या जिनकी मां उन्हें स्तनपान कराने में सक्षम नहीं हैं. इसके बाद मैं अपना दूध दान करने लगी.’ डॉ. मोंडकर बताती हैं, ‘कई ऐसी महिलाएं हैं जो अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी दो से छह महीने तक अपना दूध मिल्क बैंक को दान करने आती रहीं. चूंकि हमने उन्हें बता दिया था कि वह अपना दूध निकालकर सात दिन तक घर के फ्रिज में बर्फ के गोले के रूप में जमाकर रख सकती हैं. तो वह यही करती और जैसे ही समय मिलता हमें आकर दे जातीं.’
वैसे दानदाताओं की कमी का एक कारण यह भी है कि हमारे रूढ़िवादी समाज में अगर कोई महिला कुछ नया करने निकले तो उसे तानों और टीका-टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है. उदयपुर के पास स्थित सज्जनगढ़ से गायत्री नागदा रोजाना 15-20 किलोमाटर की दूरी तय करके दिव्य मदर मिल्क बैंक जाया करती थीं. उनकी दिनचर्या कुछ ऐसी हो गई थी कि अलसुबह उठना और रोजमर्रा के कामकाज निपटाकर नौ बजे तक आरएनटी मेडिकल कॉलेज पहुंचना. गायत्री बताती हैं, ‘डिलीवरी के बाद मुझे जितना दूध बनता था, उतना मेरा बच्चा पी नहीं पाता था, इसलिए दूध बर्बाद हो जाता था. उस वक्त ख्याल आता था कि काश कोई ऐसी जगह होती जहां दूध का सदुपयोग हो सकता.’ उनकी पीड़ा समझते हुए उनके पति ने एक मिल्क बैंक ढूंढ निकाला. गायत्री बताती हैं, ‘जब मैं रोज-रोज वहां जाने लगी तो घर-परिवार वालों ने रोकना-टोकना शुरू कर दिया. पड़ोसी मजाक बनाने लगे, फब्तियां कसने लगे. टेम्पो में जाओ तो शोर वाले अश्लील गाने बजते थे. मेरा बच्चा 15 दिन का था, उसे शोर से दिक्कत होती थी. उस वक्त बहुत संघर्ष करना पड़ा था, लेकिन अब दिली सुकून मिलता है. मैंने 25 लीटर दूध दान किया. न जाने कितने ही बच्चों को उससे जीवन मिला होगा.’
शायद इन्हीं समस्याओं की आशंका के चलते मिल्क बैंक को ब्राजील की तर्ज पर व्यापक सरकारी रणनीति के तहत आगे बढ़ाने की बात कही गई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील में अभी विश्व के सर्वाधिक 250 से अधिक ह्यूमन मिल्क बैंक संचालित हैं. अग्निशमन विभाग से जुड़े कर्मचारियों को अग्निशमन के साथ वहां महिलाओं का दूध एकत्रित करने के काम पर लगाया गया है. बाकायदा टीवी पर सूचना प्रसारित की जाती है कि इस निश्चित समय पर अग्निशमन विभाग आपके क्षेत्र में आएगा जिसे दूध दान करना हो वह कर सकता है. उसी समय महिलाएं अपना दूध कप में भरकर देती हैं.
भारत में मिल्क बैंकिंग को शुरू हुए भले ही ढाई दशक बीत गए हों पर अभी भी वह अपने शैशवकाल में ही है. स्तनपान का केवल शिशु को ही लाभ नहीं होता, यह स्तनपान कराने वाली मां को भी गठिया और स्तन कैंसर जैसे घातक रोगों से बचाता है. अगर यह बात ही भारत की महिलाओं को समझ आ जाए तो शिशु मृत्युदर और कुपोषण पर काफी हद तक लगाम कसी जा सकती है. बहरहाल ह्यूमन मिल्क बैंक भारत में शिशु स्वास्थ्य की बदहाली पर कहां तक लगाम लगा सकते हैं यह तो भविष्य ही बताएगा पर फिलहाल यह उन नवजातों के लिए वरदान साबित हो रहे हैं जो कि स्तनपान से वंचित हैं और रेखा, सोनू, गायत्री जैसी उन महिलाओं के चेहरे पर भी खुशी ला रहे हैं जो अपना अतिरिक्त दूध बर्बाद होने से नहीं रोक पाती थीं.