
एयर इंडिया में फ्लाइट पर्सर के रूप में करियर की शुरुआत, फिर अचानक लंदन बस जाना और हिंदी कहानियां लिखना. सरसरी तौर पर देखें तो कोई तारतम्य नहीं बनता.
हिंदुस्तान में ये होता कहां है कि हर कोई अपने मन का काम करे. मेरे ख्याल से यहां सिर्फ 5 फीसदी लोग ही ऐसे होंगे जो अपनी पसंद का काम करते होंगे. मेरे पिताजी को ही लीजिए, वह लेखक थे लेकिन सारी उम्र रेलवे में नौकरी करते रहे. इस तरह आप कह सकती हैं कि मैंने लेखन जीन में पाया. मैंने जब पहली कहानी लिखी उस समय मैं एमए में था. मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया है. मैं अंग्रेजीदा था और अंग्रेजी में सोचता और लिखता था. मेरी पहली किताब 25 साल की उम्र में छप चुकी थी. इस तरह लिखने तो बहुत पहले लगा था लेकिन हिंदी लिखने की शुरुआत पत्नी इंदु की वजह से हुई. इंदु मेरी पहली पाठक, आलोचक और टीचर भी हुआ करती थीं. वह हिंदी साहित्य से एमए थीं. उनके जोर देने पर ही मैंने हिंदी में कहानियां लिखना शुरू किया. वे इन मायनों में मेरी गुरु थीं कि वे मेरी कहानियों की वर्तनी सुधारा करती थीं.
आप खुद लंदन में रहते हैं. प्रवासी हिंदी लेखन पर आपकी गहरी नजर रहती होगी. नया प्रवासी हिंदी लेखन कैसा है. भारत में रचे जा रहे साहित्य और विदेशों में बैठकर भारत अथवा भारतीयों पर रचे जा रहे साहित्य में क्या कोई महत्वपूर्ण अंतर देखते हैं?
देखिए बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रवासी हिंदी लेखन से मुझे कोई उम्मीद नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि सभी प्रमुख प्रवासी साहित्यकार पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं. अब तक कोई प्रवासी लेखक देखने को नहीं मिला है जो अमेरिका या ब्रिटेन में जन्मा हो तथा हिंदी साहित्य लिखता हो. साफ है कि बाद वाली पीढ़ी हिंदी से उस तरह जुड़ाव महसूस नहीं करती जैसा हम करते हैं. अगर प्रवासी साहित्य को मजबूत करना है तो यहां भारत में हिंदी को मजबूत करना होगा. क्योंकि आज के बच्चे ही कल विदेश जाएंगे अगर उनको आज हिंदी नहीं आएगी, वे हिंदी में सोचेंगे नहीं तो हिंदी में लिखेंगे कैसे? हां यह जरूर है कि जिस तरह भारत में महानगरों में रहने वाले लेखक अपने गांव-घर के बारे में नॉस्टैल्जिक होकर लेखन कर रहे हैं उसी तरह विदेशों में रह रहे लेखक भारत की अपनी यादों को कलमबद्ध कर रहे हैं.
किसी भी लेखक के लिए विचारधारा अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है. इंदु शर्मा कथा सम्मान के बारे में आपका एक वक्तव्य पढ़ा था कि उसके विजेताओं के चयन में कोई राजनीतिक विचारधारा आड़े नहीं आती. लेकिन बतौर लेखक आपकी कोई विचारधारा तो होगी.
मेरे लिए हमेशा से विचार, विचारधारा की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं. विचार भीतर से पैदा होता है जबकि विचारधारा बाहर से आरोपित की जाती है. किसी के दर्द को महसूस करने के लिए विचारधारा की जरूरत नहीं. अगर किसी मजलूम पर अत्याचार होगा, किसी का दमन होगा तो सबको तकलीफ होगी, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी. आप मुझे एक बात बताइए. अगर किसी व्यक्ति को चोट लगती है तो क्या यह हो सकता है कि नरेंद्र कोहली व चित्रा मुद्गल को उसका दुख देखकर दर्द हो लेकिन असगर वजाहत व संजीव को न हो? नहीं न. विचारधारा कभी भी साहित्य को संचालित नहीं कर सकती वह केवल राजनीतिक जुमलेबाजी करवा सकती है. मेरा स्प्ष्ट मानना है कि विचारधारा नारे उछालने और पैम्फलेट के लिए तो ठीक है लेकिन साहित्य के लिए गैर जरूरी. विचारधारा व्यक्ति को बांधती है जबकि विचार उसे उदार बनाता है.
यह सही है कि विचार भीतर से पैदा होती है। लेकिन यह सही नहीं है कि विचारधारा बाहर से आरोपित की जाती है। मैं ‘आरोपित’ के बदले इसे ‘आयातित’ कहना अधिक उचित समझता हूं। मैं तो यह मानता हूँ कि विचार व्यक्ति का सवभाव होता है। अपने व्यक्ति स्वभाव को सामाजिक स्वभाव बनाने/ से जोड़ने की माँग हमें विचारधारा की ओर उन्मुख करती है। मैं क्या समझता हूँ वह उतना महत्त्पूर्ण नहीं है, साक्षात्कार महत्त्वपूर्ण है। बधाई।
satik, rochak, gyanprad