स्वास्थ्य मंत्री के ‘स्वस्थ’ विचार

यौन शिक्षा इस दिशा में पहला कदम है, आखिरी नहीं. यह कम से कम नई उम्र के बच्चों को सबसे पहली समझ यह दे सकती है कि जीवन में यह ऐसा वर्जित विषय नहीं, जिस पर मां-पिता या शिक्षक से बात न की जा सके. छोटे बच्चों के साथ होने वाला बहुत सारा दुर्व्यवहार बस इसी समझ से रुक सकता है. क्योंकि यह अनुभव आम है कि ऐसे यौन हमलों का पहला झटका किशोर दिमाग चुपचाप, डरे हुए ढंग से बर्दाश्त करते हैं और धीरे-धीरे उसकी आदत डालते हैं. लेकिन इसके प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर कितनी तरह से पड़ते हैं, यह हम ठीक से समझ तक नहीं पाते. अरुंधती रॉय के उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ का किशोर एस्थर एक सिनेमा हॉल में ऐसे हमले का अबोध-स्तब्ध शिकार होता है और उम्र भर उसका चिपचिपापन अपने मस्तिष्क पर ढोता रहता है. अगर उसके बचपन में कहीं यौन शिक्षा की जगह रही होती और उसे इन विषयों पर बड़ों से बात करने का अभ्यास होता तो शायद वह इस हमले को चुपचाप पीते और जीते रहने की त्रासदी से बच जाता.

दूसरी बात यह कि जब यह यौन शिक्षा बच्चों को अच्छे-बुरे स्पर्श का फर्क समझाएगी, उनके प्रति संवेदनशील बनाएगी तो इससे वह संस्कार भी पैदा होगा जो डॉ हर्षवर्द्धन योग या संयम के जरिए पैदा करने की असंभव-सी कल्पना करते हैं. तब वे एक दूसरे के शरीरों का ज्यादा सम्मान करेंगे और एक-दूसरे की आत्माओं तक ज्यादा बेहतर ढंग से पहुंचेंगे. यह शिक्षा इस लिहाज से लड़कों के लिए जितनी जरूरी है, लड़कियों के लिए भी उतनी ही अपरिहार्य.

यौन शिक्षा बच्चों को सबसे पहली समझ यह दे सकती है कि यह ऐसा वर्जित विषय नहीं, जिस पर मां-पिता या शिक्षक से बात न की जा सके

मुश्किल यह है कि हमारे यहां बहुत सारे लोग यौन शिक्षा को यौन खुलेपन की दिशा में खुलने वाला पहला दरवाजा मान लेते हैं. जबकि इस यौन शिक्षा के न होने का एक नतीजा यह रहा है कि यौन खुलेपन को लेकर भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में कई अजीब-सी और बेतुकी धारणाएं हैं. मसलन, यह कि पश्चिम की सभ्यता व्याभिचार में डूबी हुई सभ्यता है जहां औरत और मर्द बिना किसी रोकटोक के, एक-दूसरे से संबंध बना लेते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि अपने सारे खुलेपन के बावजूद दुनिया की कोई भी सभ्यता ऐसे बेरोकटोक संबंधों को स्वीकार नहीं करती- भले वह उनको लेकर ऐसी बीमार हायतौबा न मचाती हो जैसी हमारे यहां मचती है.

बहरहाल, जहां तक यौन शिक्षा का सवाल है, उसका भी वास्ता सिर्फ शारीरिक मानसिक सूक्ष्मताओं के ज्ञान से नहीं होना चाहिए, उसका एक सामाजिक आयाम होना चाहिए जिसमें यह समझ शामिल हो कि संबंधों का भी अपना एक व्याकरण होता है और बहुत दूर तक उनका निर्वाह किया जाना चाहिए. फिलहाल जो हालत है, उसमें बच्चों के पास कोई शिक्षा नहीं है जो आज के माहौल में उन्हें एक तरह की बर्बरता में धकेलती है. अचानक हम पाते हैं कि बहुत सारे नाबालिग बच्चे बलात्कार के अपराध में शामिल हैं और फिर इस पर बहस करने लगते हैं कि किशोर माने जाने की उम्र क्या हो और उन्हें भी इतने संगीन अपराध की कड़ी सजा क्यों न हो. लेकिन हम यह महसूस नहीं करते कि इन नाबालिग बच्चों से हमें जितना खतरा है, उससे कहीं ज्यादा हमसे इन नाबालिग बच्चों को है. यह खतरा तब खत्म होगा जब हम खुद यौन शिक्षा को लेकर एक सहज-सजग और स्वस्थ रवैया विकसित करेंगे, अपने स्वास्थ्य मंत्री की तरह इससे किनारा करने की कोशिश नहीं करेंगे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here