हंस अकेला

राजेंद्र यादव को समवप्त हंस का विशेषांक
राजेंद्र यादव को समर्पित हंस का विशेषांक.
राजेंद्र यादव को समवप्त हंस का विशेषांक. सभी फोटोः पूजा सिंह

गत वर्ष अक्टूबर में हंस के पुनर्संस्थापक संपादक राजेंद्र यादव के निधन के बाद यह सवाल तमाम पाठकों-साहित्यकारों के मन में उठा था कि हंस का अब क्या होगा? क्या हंस चलती रहेगी और अगर चलती रहेगी तो उसके तेवर और कलेवर कहीं बदल तो नहीं जाएंगे? उनके निधन के तकरीबन आठ महीने बाद हमने हंस से जुड़े लोगों, साहित्यकारों तथा पाठकों से बात कर इन सवालों के जवाब तलाश करने की कोशिश की.

बात शुरू करते हैं एक उदाहरण से. वर्ष 1997-98 की बात है हिंदी साहित्य की दुनिया से परिचित हो रहा एक युवा, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अपने एक मित्र के घर से हंस के 10-12 अंकों का एक बंडल पढ़ने के लिए ले जाता है. उसे यह देखकर आश्चर्य होता है कि हंस के सभी अंकों के संपादकीय फटे हुए हैं. कुछ अंकों से तो अन्य आलेख भी नदारद थे. यह हंस की वैचारिक हस्तक्षेप की ताकत का प्रतीक है. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा तक उसके संपादकीय एवं अन्य विचारोत्तेजक लेख तथा अन्य सामग्री काट कर संदर्भ के लिए रख लिया करते थे.

उस घटना को लंबा समय बीत चुका है. हंस के अंक ले जाने वाला वह किशोर अब हिंदी साहित्य जगत में कवि-कथाकार शशिभूषण के नाम से पहचाना जाता हैै. अपने जिस मित्र शैलेश के यहां से वे हंस के अंक ले गए थे वह अब प्रशासनिक अधिकारी हैं और मध्य प्रदेश में पदस्थ हैं. जब हमने शैलेश से हंस को लेकर उनके लगाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद वह हंस पढ़ना छोड़ चुके हैं. उनका मानना है कि पत्रिका ने अपनी वह धार खो दी है जो राजेंद्र जी के रहते पत्रिका में नजर आती थी.

शुक्रवार 11 जुलाई, 2014 की शाम तकरीबन 5 बजे जब हम पुरानी दिल्ली की पेचीदा गलियों से गुजरते हुए हंस कार्यालय की ओर जा रहे थे तो मन में तमाम सवाल थे. दरअसल हंस के पुर्नसंस्थापक राजेंद्र यादव के निधन के बाद यह पहला मौका था जब हम पत्रिका कार्यालय जा रहे थे. ऐसे में मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही था कि कार्यालय के भीतर क्या वही बेलौस कहकहेबाजी और बेफिक्र अड्डेबाजी देखने को मिलेगी या फिर राजेंद्र जी के साथ ही वह माहौल भी चला गया होगा.

अंदर जाने के पहले ही कहकहों की आश्वस्त करती आवाज सुनाई दे गई. बाहरी कमरे में हंस की व्यवस्थापक वीना उनियाल जहां हंस के 31 जुलाई को होने वाले सालाना जलसे और कथा कार्यशाला की तैयारी में व्यस्त थीं तो भीतर हंस की प्रबंध निदेशक (स्व. राजेंद्र यादव की बेटी) रचना यादव, संपादक संजय सहाय, कार्यकारी संपादक संगम पांडेय और लेखक अजय नावरिया इसी सिलसिले में चर्चा में लगे हुए थे.

हंस के वर्तमान संपादक संजय सहाय हैं जो महीने में 20 दिन गया में रहते हैं और बाकी 10 दिन दिल्ली में रहकर पत्रिका के लिए काम करते हैं. उनकी अनुपस्थिति में पत्रिका के संपादकीय दायित्वों का निर्वहन कार्यकारी संपादक संगम पांडेय निभाते हैं. संजय सहाय राजेंद्र जी के बिना निकल रहे हंस पर बहुत बेबाकी से कहते हैं कि हंस का तेवर और उसका कलेवर बरकरार रखने की पूरी कोशिश की जा रही है लेकिन राजेंद्र जी के लेखन की कमी को कोई दूसरा पूरा नहीं कर सकता. वह मुहावरेदार भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं, ‘ हंस पत्रिका में राजेंद्र जी की जिम्मेदारी संभालना दरअसल उनके जूतों में घुसने के समान है जो कतई आसान काम नहीं.’ सहाय स्वीकार करते हैं कि राजेंद्र जी के निधन के बाद पत्रिका में उनकी संपादकीय कमी खलने की शिकायत तमाम पाठकों ने की लेकिन सौभाग्यवश पत्रिका की बिक्री पर इसका कोई बुरा असर नहीं पड़ा है.

संपादक संजय सहाय हंस में प्रकाशित होने वाली कहानियों के स्तर में गिरावट की बात तो स्वीकार करते हैं लेकिन वे यह कहना नहीं भूलते कि यह गिरावट समूचे कहानी क्षेत्र में है. जब अच्छी कहानियां लिखी ही नहीं जा रही हैं तो फिर हंस में ही क्या वे किसी भी अन्य पत्रिका में नहीं नजर आएंगी.

युवा साहित्यकार शशिभूषण का साफतौर पर यह मानना है कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद हंस के पाठकों को न केवल उनके धारदार संपादकीय की कमी खलती है बल्कि उनको अब आलेखों तथा स्तंभों में भी उतनी विचारोत्तेजक सामग्री पढ़ने को नहीं मिलती. जितनी उनके जीवनकाल में मिलती थी. वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि पिछले आठ महीनों में उन्होंने हंस का हर अंक लिया है लेकिन उनको कोई उल्लेखनीय सामग्री याद नहीं आती है.

राजेंद्र यादव हंस के संचालन की मौजूदा रूपरेखा को बहुत पहले तय कर चुके थे. हंस का संचालन उनके जीवन की सबसे बड़ी चिंता थी. उनके निधन के तकरीबन एक साल पहले से ही संजय सहाय और रचना यादव का नाम पत्रिका के संयुक्त संपादक के रूप में जाने लगा था. तमाम उम्र विवादों का रिश्ता रखने वाले राजेंद्र यादव का विवादों से नाता उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं टूटा. उनपर यह आरोप लगाया गया कि तमाम उम्र पितृसत्ता का विरोध करने वाले राजेंद्र यादव ने अंतत: हंस पत्रिका में अपनी पुत्री को बड़ा और जिम्मेदारी भरा पद सौंपकर परिवारवाद को ही बढ़ावा दिया.

हंस के बारे में आगे बात करने के पहले हमें इसके अतीत से भी थोड़ा परिचित होना होगा. हंस की स्थापना मुंशी प्रेमचंद ने सन 1930 में की थी. यह अपने समय की अत्यंत महत्वपूर्ण पत्रिका थी जिसके संपादक मंडल में एक वक्त महात्मा गांधी भी शामिल थे. प्रेमचंद की मौत के बाद उनके बेटे अमृतराय ने कुछ वर्ष तक पत्रिका निकाली और फिर यह बंद हो गई.

31 जुलाई, 1986 को मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के दिन राजेंद्र यादव ने हंस का पुन: प्रकाशन आरंभ किया. अपने निधन तक वे इस पत्रिका का लगातार 325 अंकों का संपादन संभाल चुके थे. उस दौर में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को लेकर माहौल यह बनाया जा रहा था कि हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का भविष्य ठीक नहीं है. इसके लिए सारिका और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं के अंत को उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा था. लेकिन हंस चल निकली बल्कि यह कहना उचित होगा कि हंस ने उड़ान भरी. हिंदी की साहित्यिक पत्रिका के लिए 10,000 की प्रसार संख्या सम्मानजनक मानी जा सकती है. पिछली पीढ़ी के हिंदी कथाकारों की बात करें तो हंस ने ही उनकी प्रतिभा को पहचाना और दुनिया के सामने रखा. इनमें उदय प्रकाश, शिवमूर्ति और अखिलेश समेत तमाम कथाकार शामिल हैं.

राजेंद्र यादव के संपादक बनने के बाद हंस का पहला अंक
राजेंद्र यादव के संपादक बनने के बाद हंस का पहला अंक

इतना ही नहीं हंस ने हिंदी साहित्य में धारदार विमर्श की परंपरा शुरू की. इनमें दलित और स्त्री विमर्श प्रमुख हैं. हालांकि इन विमर्शों ने हंस और राजेंद्र यादव को लगातार विवादों के घेरे में बनाए रखा. कई लोग तो इसे चर्चा में बने रहने का हथकंडा तक कहने से नहीं चूकते.

कथाकार सत्यनारायण पटेल से जब राजेंद्र यादव के पहले और उनके बाद के हंस के विषय में उनकी राय पूछी तो उनका कहना था,  ‘ हंस हमेशा से गंभीर और चेतना परक सामग्री के बजाय उथली और अश्लील सामग्री पाठकों के सामने परोसती रही है. वह एक संपादक के रूप में भी राजेंद्र यादव पर कुछ गंभीर इल्जाम लगाते हैं. पटेल कहते हैं, ‘ राजेंद्र यादव लेखन में अपने समकालीन शैलेश मटियानी, मोहन राकेश या कमलेश्वर के समक्ष कहीं नहीं थे. वे मन्नू जी के लेखन के सामने भी बौने थे. वे अपने लेखन की सीमाएं जानते थे और यही वजह थी कि उन्होंने बतौर संपादक हंस का दामन थाम लिया. अगर वे हंस के संपादक न होते तो बतौर लेखक लोग उनको उनके जीवनकाल में ही भुला चुके होते. हंस में छपने वालों में वही स्त्रियां शामिल थीं जो किसी न किसी रूप में पत्रिका को आर्थिक मदद कर सकती थीं या फिर ऐसे लेखक जो निजी तौर पर उनकी चाटुकारिता किया करते थे. हालांकि लाख कमियों के बावजूद वह हंस में अच्छी और बुरी सामग्री प्रकाशित कर एक संतुलन कायम रखते थे लेकिन उनके निधन के बाद वाले अंक मुझे बहुत खराब लगे.’

राजेंद्र यादव के साथ 10 साल तक हंस के संपादन में सहयोग करने वाले बया के संपादक एवं अंतिका प्रकाशन के प्रबंधक गौरीनाथ हंस के तेवर में आए बदलाव को स्वीकार करते हैं लेकिन वह साथ ही यह भी जोड़ते हैं कि हर पत्रिका के संपादक का अपना नजरिया, अपनी पसंद होती है. वह उसी के अनुरूप सामग्री का संकलन करता है. ऐसे में निजी तौर पर सामग्री किसी व्यक्ति को पसंद या नापसंद हो सकती है लेकिन यह सोचना ठीक नहीं है कि पत्रिका में ठीक वैसी ही सामग्री प्रकाशित होती रहेगी जैसी राजेंद्र यादव के दौर में छपती थी.

गौरीनाथ यह भी कहते हैं कि राजेंद्र यादव के निधन के तत्काल बाद उन पर आधारित जो अंक पत्रिका ने निकाला था वह निराश करने वाला था. राजेंद्र यादव पर इससे कहीं बेहतर सामग्री प्रकाशित की जा सकती थी.


हंस का विस्तार करना प्राथमिकता 

हंस की प्रबंध निदेशक रचना यादव से बातचीत .

rachnaहंस से अपने जुड़ाव के बारे में कुछ बताइए?
हंस से जुड़ने का फैसला पूरी तरह भावनात्मक था. पापा के जाने के काफी पहले से उन्होंने मुझे यह कहना शुरू कर दिया था कि मैं हंस के प्रबंधन का काम देखना शुरू कर दूं. वह मुझे कार्यालय आने को कहते थे लेकिन मैं उनसे कहती कि मेरी लाइन अलग है. मेरा अपना करियर है. उन्होंने कभी जोर जबरदस्ती नहीं की लेकिन वह यह जरूर कहते थे कि जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम खुद देखोगी कि क्या करना है.

उनके निधन के बाद यह ख्याल आया कि हंस शायद बंद हो जाए?
कभी नहीं. देखिए आप कह रही हैं तो मुझे लग रहा है कि पाठकों के मन में यह सवाल भी आया होगा. लेकिन हमारे मन में ऐसा कोई सवाल नहीं आया. पापा का निधन पिछले साल 28 अक्टूबर को हुआ और एक नवंबर को हम सब लोग यहां हंस कार्यालय में आगे की योजना बना रहे थे.

फिलहाल पत्रिका में आपकी क्या भूमिका है?
मैं अब यहां प्रबंध निदेशक की जिम्मेदारी संभाल रही हूं. मेरी भूमिका अब पत्रिका के लिए विज्ञापन तथा अन्य वित्तीय संसाधन जुटाना तथा इसके विस्तार की कोशिश करना है. मेरा काम यह सुनिश्चित करना है हंस पहले की तरह निकलती रहे. उसमें कोई अड़चन न आए.

पत्रिका के विस्तार की क्या योजना है?
फिलहाल पत्रिका का सर्कुलेशन करीब 10,000 है. पापा के देहांत के बाद आशंका थी कि इसमें कुछ कमी आ सकती है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि सर्कुलेशन में दो चार सौ का इजाफा ही हुआ है. पश्चिमी भारत में हम इसका विस्तार करना चाहते हैं. नए एजेंट बनाने की कोशिश कर रहे हैं. पापा, बहुत इधर-उधर जा नहीं पाते थे. लेकिन मैं इसका विस्तार करना चाहती हूं. इस साल हम जो दो दिवसीय कथा कार्यशाला कर रहे हैं उसे भविष्य में हम तीन चार दिनों के लिटरेरी फेस्टिवल में तब्दील करना चाहते हैं. हमारी यह भी कोशिश है कि आगे चलकर अपने लेखकों को समुचित पारिश्रमिक दे सकें.

हंस से जुड़ने के बाद किसी तरह का दबाव महसूस करती हैं?
हां, समय का दबाव महसूस करती हूं. मुझे अपनी दोनों जिंदगियों में तालमेल बैठाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है. मैं पेशे से कथक नृत्यांगना हूं. गुड़गांव में मेरा प्रशिक्षण संस्थान है जहां 50 बच्चे प्रशिक्षण लेते हैं. मेरा अपना रियाज है. अब मैं उसी वक्त में कटौती करके हर सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को हंस कार्यालय आती हूं.

पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सामग्री में आपका कितना दखल है?
न के बराबर. वह सारा काम संगम पांडेय जी और संजय सहाय जी के जिम्मे है. किसी सामग्री को लेकर बहुत संदेह होने पर ही संगम जी उसे मुझे पढ़ने के लिए देते हैं. हां, एकदूसरे को सुझाव देने का काम बराबर चलता रहता है.