
आज ही राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से सीधे सऊद परिवार के कार्यक्रम में शामिल होने सऊदी अरब निकले हैं. अमेरिका का सऊद-परिवार से बड़ा खास रिश्ता है. उसी ठग सऊद परिवार से जो अरब-अफ्रीका-दक्षिण एशिया में पेट्रो-डॉलर के जरिये अपनी तमाम नाजायज औलादों से इस पूरे भूभाग को जहन्नुम बनाए हुए है. सिर्फ इसलिए की कहीं उसके मालिकों का शस्त्र-उद्योग मंदी का शिकार न हो जाए और यहां की अवाम पूंजीवाद के उन मोहरों को अपदस्थ न कर दे जो सऊदी अरब से लेकर पाकिस्तान तक हुक्मरान बने बैठे हैं. लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ वाले इस दौर में भी कोई माई का लाल अमेरिका और यूरोप से यह सवाल नहीं पूछता कि मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क्रांति, नास्तिकता, नारीवाद जैसे महान सिद्धांत सऊदी अरब के मामले में निलंबित अवस्था में ही पड़े रहेंगे क्या? और हर तरह की आजादियों के चैंपियन अमेरिका का सबसे ‘घनिष्टतम सहयोगी’ सऊदी अरब आखिर कब तक गैर जवाबदेही काल में मौज करेगा? सऊदी अरब की खड़ी की गई अवैध फौजों की हरकतों पर जवाबदेही क्या उन निरीह सेक्युलर सहिष्णु मुसलमानों की ही बनती है जो शर्ली हेब्दो हत्याकांड की सबसे पहले निंदा करते हैं. लेकिन साथ ही उन्हें ये भी जरूरी लगता है की अश्लील कार्टूनों के जरिये उनके पैगंबर का उपहास न उड़ाया जाए.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार या ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कुल जमा सत्तर-पिछत्तर साल पहले, दुनिया के समक्ष लाया गया सिद्धांत है. ये प्रबोधन काल में पैदा हुई वैयक्तिक स्वतंत्रताओं के सबसे परिष्कृत सिद्धांतों में से एक है. यानी यूरोप में मध्यकाल से शुरू हुए पुनर्जागरण से लेकर लोकतांत्रिक व औद्योगिक क्रांतियों के दौर में हुए सघन सामाजिक आत्ममंथन, वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्रगतिशीलता के सिद्धांतों के चरम बिंदु पर पहुंचकर हासिल, वो उसूल जिसको पाने में यूरोप की छह से ज़्यादा सदियां खर्च हुईं और जिसका सत है ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स-1948’.
इसमें यह भी याद रखना होगा की यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया समेत कोई ऐसा पश्चिमी राष्ट्र नहीं है जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्पूर्ण रूप से दी गयी हो. खुद यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स-1948′ भी किंतु-परंतु से मुक्त न हो कर इनसे लदा-फंदा है. यानी कुछ अभिव्यक्तियां ऐसी हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ को भी नामंज़ूर हैं. इसी के साथ पश्चिम के सभी राष्ट्र-राज्यों के अपने-अपने संविधानों में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीम या परम सिद्धांत न होकर कई किंतु-परंतु में लिपटा हुआ है. खुद भारत का संविधान, जिसे एक प्रोग्रेसिव, दूरअंदेश और आधुनिकता का वाहक-दस्तावेज माना जाता है, उसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीम परम-सिद्धांत न हो कर कुछ जरूरी सावधानियों से लैस है.
ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, कार्टून जैसी व्यंग्यात्मक और उपहास के लिए इस्तेमाल होनेवाली अभिव्यक्ति की शैली को उस समाज के मूल्यों से भिड़ा देना, जिस समाज ने अभी आत्म-मंथन के मुहाने पर सिर्फ पहला कदम रखा है, न सिर्फ शरारतपूर्ण है, बल्कि उस समाज के प्रगतिशीलों और आधुनिकों को असमंजस और ग्लानि से भरना है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में एशिया और अफ्रीका के देशों द्वारा ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स-1948’ पर सरकारों की मोहर लगना एक बात है और इनके अवाम के मन-मस्तिष्क में इन सिद्धांतों को उतरना बिल्कुल दूसरी बात है या कहें कि टेढ़ी खीर है.
किसी पिछड़ी हुई कौम की हर हरकत पिछड़ी हुई कहलाती है। प्रगतिशीलता में उस कौम का कोटा नहीं है। वो जो भी करे पिछड़ापन ही है। मुसलमान सिर्फ वोट बैंक है और उसका विमर्श एक छलावा है। और अरब समेत मुसलिम देश विलासता में मसरूफ हैं, उन्हे फर्क नहीं पड़ता कि किसी मुल्क में उनका पिछलग्गू किस हाल में है, फर्क सिर्फ इस ग़रीब मुसलमान को पड़ता है – कोई सऊदी को गाली दे दे तो उसका खून खौलता है। उसके लिए सऊदी उसके मज़हब का हिस्सा है। ये एक गुलामी है। वक्त आ गया है कि इन ज़ंजीरों को तोड़ कर मुसलमान आगे निकले। शीबा जी आपका ये लेख वाकई आंखे खोल देता है। एक एक शब्सद आइना है। मुबारकबाद। लिखती रहिये।