हाल ही में फ्रांस की एक पत्रिका शार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हुए जानलेवा हमले के बाद एक बार फिर से यह चर्चा शुरू हो गई है कि इस्लाम एक निहायत ही जालिम और खूनपसंद मजहब है, इस्लाम को माननेवाले यानी मुसलमान खून के प्यासे हैं, हैवान हैं. आज के दौर में इस्लामी अतिवाद एक हकीकत बन गया है और इस हकीकत के चलते ही आम लोगों के मन में यह बात घर कर गई है कि इस्लाम हिंसा को बढ़ावा देता है. इन तास्सुरात को हवा इस हकीकत से भी मिलती है कि मुसलमानों का एक तबका इस तरह के हमलों की हिमायत भी करता है. इस तरह की कार्रवाइयां करनेवाले लोग यह दावा भी करते हैं के वो इस्लाम की हिफाजत कर रहे हैं.
हकीकत यह है कि वह शिद्दत पसंद इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर रहे हैं और हिंसा के जरिए वे लोग इस्लाम की हिफाजत नहीं, बल्कि उसकी बदनामी कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों को इस बात का अंदाजा नहीं है और न ही इस्लामी दर्स व तालीम का जरा भी इल्म है.
यह तस्वीर कि मुसलमान गैर-मजहबी लोगों से द्वेष रखनेवाले आतंकवादी हैं, जिसको आज मीडिया भी उछालता है, बतौर मुसलमान मेरी पहचान के बिलकुल खिलाफ है. कुरान की बेशुमार आयतें न केवल इस बात से रोकती हैं कि संगीन मामलात को इंसान खुद अपने हाथों में ले, बल्कि इस बात पर भी जोर देती हैं कि दरगुजर से काम लिया जाय. कुरान इस बात पर खास जोर देता है कि वे लोग जो इस्लाम या पैगंबर की बेहुरमती या बेइज्जती करते हैं उनको बिलकुल नजरअंदाज कर दिया जाए या उनसे तर्कपूर्ण ढंग से संवाद किया जाए.
चाहे फ्रांस में हुआ मामला हो या सलमान रुश्दी पर जारी किया गया फतवा, सभी कुरान और नबी के उपदेशों के बिलकुल खिलाफ हैं. कुरान हमें जगह-जगह संयम से काम लेने की शिक्षा देता है और रसूल की शान में गुस्ताखी करनेवालों से पूरी तरह किनाराकशी करने का हुक्म देता है. मिसाल के तौर पर कुरान की यह आयत, ‘और अल्लाह ताला तुम्हारे पास अपनी किताब में ये हुक्म उतार चुका है कि तुम जब किसी मजलिसवाले को अल्लाह की आयतों के साथ कुफ्र करते या उनका मजाक उड़ाते सुनो तो उस महफिल में उनके साथ न बैठो’. (4.140)
हकीकत यह है कि आतंकी शिद्दत पसंद इस्लाम की गलत व्याख्या कर रहे हैं और हिंसा के जरिए वे इस्लाम की हिफाजत नहीं, बल्कि उसकी बदनामी कर रहे हैं
‘और जब बेहूदा बात कान में पड़ती है तो उससे किनारा कर लेते हैं, और कह देते हैं के हमारे अमल हमारे लिए और तुम्हारे अमल तुम्हारे लिए’ (28.55).
दूसरी कुछ आयतों में अल्लाह विभिन्न अपराधों की सजा का भी जिक्र करता है, लेकिन वह सजाएं जुर्म के हिसाब से महदूद हैं. इसके बावजूद अल्लाह एक ज्यादा बेहतर और नेक तरीका अपनाने का हुक्म देता है और वह है दरगुजर न कि इंतकाम.
‘और अगर बदला लो भी तो बिलकुल उतना ही जितना सदमा तुम्हें पहुंचाया गया हो और अगर सब्र कर लो तो सबिरों के लिए यही बेहतर है’ (6.126)