
कहावत है कि राजनीति में कुछ भी पुराना नहीं होता है. भारतीय राजनीति में तो नारे, जुमले, भाषण आदि में से कुछ भी पुराना नहीं हो रहा है. गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसी बातों पर साठ-सत्तर के दशक में जैसे नारे और भाषण दिए जाते थे वैसे आज भी दिए जा रहे हैं. अब कांग्रेस पार्टी का उदाहरण लीजिए. लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली हार के तुरंत बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, ‘इस चुनाव के माध्यम से जनता ने हमें एक मैसेज दिया है. इस मैसेज को मैंने और पार्टी ने सिर्फ दिमाग से नहीं, दिल से लिया है. कांग्रेस पार्टी में खुद को बदलने की क्षमता है. कांग्रेस के पास यह क्षमता है कि वह लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरे और कांग्रेस पार्टी यह करने जा रही है. हम और हमारे नेता कांग्रेस के संगठन में बदलाव करके एक ऐसी पार्टी आपके सामने लाएंगे जिस पर आपको गर्व होगा. मुझे लगता है आम आदमी पार्टी अपने साथ लोगों को जोड़ने में सफल रही है, जो हम लोग नहीं कर पाए हैं. हम उनसे सीख लेते हुए अपने आप में बेहतर बदलाव करेंगे.’
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह भाषण दिए हुए करीब तीन साल का वक्त बीत चुका है. इसके बाद से उनकी सरकार को लोकसभा चुनावों समेत कई राज्यों में पराजय का सामना करना पड़ा है. उस समय देश की अगुआई कर रही पार्टी आज लोकसभा में दहाई के आंकड़ों में सिमट गई है. कहा जाए तो कांग्रेस इतिहास के सबसे खराब दौर में है. दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. लोकसभा में हार के बाद से कई नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया है. उसके एक के बाद एक गढ़ ढह रहे हैं. जिन राज्यों में उनकी सरकार हैं, वहां असंतोष की खबरें आ रही हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता के आरोप लग रहे हैं. नेतृत्व के स्तर पर भी असमंजस की स्थिति है. बूढ़े हो चुके नेताओं और नए चेहरों के बीच गुटबाजी चल रही है. विपक्ष के रूप में उसकी भूमिका भी बेहतरीन नहीं रही है. भ्रष्टाचार का आरोप अब भी पार्टी को परेशान कर रहा है.
भाजपा सरकार के दो साल पूरे होने के साथ यह कांग्रेस की हार के दो साल पूरे होने का वक्त है. अब हमें यह भी देखना होगा कि पार्टी ने इन दो सालों में अपने आप में कितना बदलाव किया? बेहद खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने अपने पुनरोदय के लिए क्या किया? क्या इस दौरान कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया या फिर वह और बुरे दौर में पहुंच गई है. जिन वजहों से उसे हार का सामना करना पड़ा था उन पर कितना काम किया गया?
2014 के मई महीने में ही लोकसभा चुनावों का परिणाम आया था. यानी भाजपा सरकार के दो साल पूरे होने के साथ यह कांग्रेस की हार के दो साल पूरे होने का वक्त है. अब हमें यह भी देखना होगा कि पार्टी ने इन दो सालों में अपने आप में कितना बदलाव किया. बेहद खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस ने अपने पुनरोदय के लिए क्या किया? क्या इस दौरान कांग्रेस ने खुद को मजबूत किया या फिर वह और बुरे दौर में पहुंच गई है? जिन वजहों से उसे हार का सामना करना पड़ा था, उन पर कितना काम किया गया? राहुल गांधी ने अपने द्वारा कही गई बातों पर कितना अमल किया और जनता के साथ उनका संवाद कितना बेहतर हुआ है या अगले तीन साल में कांग्रेस ऐसा क्या करेगी जिससे वह दोबारा सत्ता के करीब होती नजर आए?
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से कांग्रेस और कमजोर हुई है. इन दो सालों के दौरान राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा है. इन दौरान महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली जैसे कई राज्य उसके हाथ से फिसल गए हैं. कांग्रेस के लिए सिर्फ बिहार से कुछ अच्छी खबर आई, लेकिन इसका भी श्रेय उसके सहयोगी पार्टियों जेडीयू और राजद को जाता है. फिलहाल अभी कांग्रेस के लिए संतोष करने लायक कुछ भी नहीं है. हालांकि अगले कुछ सालों में कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में जाने से पहले कांग्रेस को इन राज्यों में जीत हासिल करनी पड़ेगी. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन से लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर असर पड़ेगा. कांग्रेस के पास भाजपा से बड़ा संगठन है लेकिन राज्य उसके हाथों से फिसल रहे हैं तो इसका असर पार्टी और संगठन दोनों पर पड़ेगा. कांग्रेस के साथ यह दिक्कत है कि उसके पास कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा नेता नहीं है. उत्तर प्रदेश और बिहार में उनके पास कोई बड़ा नाम नहीं है. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट जैसे नाम हैं, लेकिन उन्हें आगे बढ़ाने का काम पार्टी को करना पड़ेगा. लेकिन राहुल गांधी के सामने उन्हें कितनी तवज्जो पार्टी में दी जाएगी यह देखने वाली बात होगी. कुछ मिलाकर कांग्रेस पार्टी अभी कई विसंगतियों का शिकार है. उसे इसका तोड़ ढूंढ़ना होगा. इसका एक विकल्प परिवार के बाहर के कुछ नेताओं को तवज्जो देकर आगे बढ़ाने का भी हो सकता है.’

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इन दो सालों को अलग तरीके से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘एक कहावत है रस्सी जल गई लेकिन बल नहीं गए. कांग्रेस में किसी ने भी हार की स्पष्ट जिम्मेदारी नहीं ली है. जो भी लोग 2014 की हार के लिए जिम्मेदार थे, वे आज भी अहम पदों पर बने हुए हैं. इसके चलते बहुत सारे कार्यकर्ताओं और विधायकों में असंतोष है, जो विभिन्न राज्यों में टूट के रूप में सामने आ रहा है. लोकसभा चुनावों में हार के लिए जिम्मेदार नेता वास्तव में नहीं चाहते हैं कि शीर्ष नेतृत्व कभी उन पर कोई कार्रवाई करे. कुल मिलाकर चाटुकारों का यह धड़ा शीर्ष नेतृत्व को नीचे स्तर पर संवाद करने ही नहीं दे रहा है. शीर्ष नेतृत्व के साथ यह दिक्कत है कि उसे लगता है कि ये लोग हटें तो उसे दिक्कत हो जाएगी. क्योंकि एक युवा टीम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं है.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक कहते हैं, ‘अगर पुराने राजवंशों की कमियों की झलक आज देखनी हो तो आप कांग्रेस को देख सकते हैं. यह पार्टी उन सारी बुराइयों का शिकार हो गई है. परिवारवाद, गुटबाजी, चुगलखोरी, भितरघात, आपसी कलह से सब इस पार्टी में दिख रहे हैं. सबसे खराब बात यह है कि पार्टी इन सबमें सुधार के लिए कुछ नहीं कर रही है. वह पिछले दो साल से इस इंतजार में बैठी है कि भाजपा सरकार बुरा करेगी तो हमारा भला होगा.’
‘कांग्रेस नेता एके एंटनी ने एक बात कही थी कि पार्टी की हिंदूविरोधी छवि बन रही है तो इसके बाद यह हुआ कि राहुल गांधी कुछ मंदिरों में घूम आए. मतलब आप जनता से संवाद करने के बजाय छवि बनाने के लिए मंदिर और मस्जिद की शरण ले रहे हैं. यह भी राजनीति को निचले स्तर पर ले जाने वाली बात हुई. फिलहाल कांग्रेस अभी वह सूत्र नहीं पकड़ पा रही है जो उसे मजबूती दे’
हालांकि विश्लेषकों के इस नजरिये से कांग्रेस के नेता इनकार करते हैं. कांग्रेस सचिव नसीब सिंह कहते हैं, ‘हम सब लोग मिलकर बेहतर काम कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर और उन राज्यों में जहां हम सत्ता में नहीं हैं पार्टी एक अच्छे विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है. इन जगहों पर हम सरकार की कमियों को जोर-शोर से उजागर कर रहे हैं. हमने हार से सबक लिया है और पार्टी में बदलाव की प्रक्रिया जारी है. जहां भी लोग निष्क्रिय थे उन्हें हटाकर सक्रिय लोगों को लाने का काम पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा किया गया है. यह काम लगातार चल रहा है. हमें बहुत सारा बदलाव देखने को भी मिल रहा है. हाल के चुनावों में जिन राज्यों में हमें हार का सामना करना पड़ा है वहां दो-दो, तीन-तीन बार हमारी सरकारें रही हैं. ऐसे में वे राज्य हमारी बपौती नहीं थे. लोकतंत्र में सरकारें बदलती हैं. इसमें किसी एक पार्टी के पास ठेका थोड़े ही रहता है. यह सिर्फ एंटी इनकंबेंसी का मामला है.’
वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरे देश में अपना जनाधार बढ़ा रही है. बिहार को देख लीजिए, गुजरात में हुए स्थानीय चुनावों में हमारा प्रदर्शन बेहतर रहा है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुए विधानसभा उपचुनावों में हमने बढ़िया प्रदर्शन किया है. तो कुल मिलाकर पिछले दो साल में मामला संतोषजनक है.’
कांग्रेस से जुड़े नेताओं का कहना है कि इन दो सालों के दौरान कांग्रेस पार्टी जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं से मेलजोल भी बढ़ा रही है. इंडियन यूथ कांग्रेस के पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड के सचिव श्रीनिवास बीवी कहते हैं, ‘इन दो सालों के दौरान कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर बहुत सारा काम किया है. यह काम पिछले कुछ सालों में बंद था. अब आप उत्तर प्रदेश को ही लें. इन दो सालों में हमने सारी विधानसभाओं का दौरा किया है. हमारा प्रयास है कि हर बूथ पर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता तैनात रहें. इस दौरान हमें अपार जनसमर्थन भी मिल रहा है. बड़ी संख्या में युवा हमारे साथ जुड़ रहे हैं. लोगों ने हमारे ऊपर भरोसा किया है और अब भी उनकी उम्मीदें हमसे जुड़ी हुई हैं. देश की जनता को पता है कि हम उनके एकमात्र विकल्प हैं.’
कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत नेतृत्व को लेकर है. राहुल गांधी अब भी पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद और उसके पहले भी हर दो-तीन महीने पर ऐसी खबरें आती रही हैं कि वे अध्यक्ष बनने वाले हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बीमार होने के बावजूद अभी कमान सोनिया गांधी के हाथ में है. पार्टी के वरिष्ठ नेता अभी राहुल के साथ कम ही दिखाई देते हैं.
कांग्रेस पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक इस पर कहते हैं कि कांग्रेस में लीडरशिप को लेकर भ्रम की स्थिति है. राहुल गांधी ने अभी पूरे तरीके से कमान संभाली नहीं है और सोनिया गांधी इस इंतजार में अब भी बैठी हैं कि वे सत्ता कब राहुल को सौप दें. इसके अलावा शीर्ष स्तर पर जो नेता हैं जैसे जर्नादन द्विवेदी, अहमद पटेल, मनमोहन सिंह, एके एंटनी आदि उनका संवाद सोनिया के साथ तो बेहतर है लेकिन वे राहुल गांधी के साथ सामंजस्य बिठा पाने में असफल रहे हैं. यानी अभी कांग्रेस को पुरानी लीडरशिप ही चला रही है. नई लीडरशिप जिसका आना बहुत जरूरी है, वह कमजोर ही रह गई है. राहुल गांधी की एक खराबी यह भी है कि वे लोकसभा में नियमित रूप से बोलते भी नहीं हैं. वहां कांग्रेस की तरफ से मोर्चा सिर्फ मल्लिकार्जुन खड़गे संभालते हुए दिखते हैं. इसके मुकाबले राज्यसभा में आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद और अंबिका सोनी ज्यादा बढ़िया ढंग से सरकार को चुनौती देते नजर आते हैं. यानी पार्टी के नेता के रूप में जो आभामंडल उनको बनाना चाहिए वह बनाने में वे बुरी तरह से असफल रहे हैं. राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस और देश को निराशा ही हो रही है. सोनिया गांधी अनंत काल तक कांग्रेस का नेतृत्व नहीं कर सकती हैं.
इस पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘हार-जीत तो राजनीति का एक हिस्सा है, लेकिन अभी कांग्रेस की स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है. जैसे वह खतरा देखते ही मिट्टी में अपना सिर छिपा लेता है वैसे ही कांग्रेस खतरे को देखकर झोल-मोल वाली स्थिति में आ जाती है. कांग्रेस इससे पहले भी इंदिरा और राजीव के जमाने में हारी थी, लेकिन इस बार की हार से कांग्रेस का आत्मविश्वास डगमगा गया है. इसमें सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व को लेकर है. इसे सुलझाने का प्रयास कभी नहीं किया गया. 2004 में ही सोनिया गांधी ने कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री पद की दावेदार नहीं हैं. अभी हमारे यहां जो प्रणाली चल रही है उसके हिसाब से पार्टी नहीं प्रधानमंत्री पद के दावेदार को भी ध्यान में रखकर जनता वोट देती है. अब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि 2019 में कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री का दावेदार कौन होगा. अभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं. राहुल गांधी नेता के रूप में सबके सामने हैं लेकिन उनके नाम की विधिवत घोषणा नहीं की गई है. इसको लेकर क्या कारण हैं इसका खुलासा नहीं हुआ है.’
‘प्रशांत किशोर जी का अलग रोल है. अब जमाना बदला है. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य माध्यम ज्यादा प्रभावी रोल अदा कर रहे हैं. इन्हें मैनेज करने में पार्टी की मदद करने के लिए उन्हें लाया गया है. ऐसा नहीं है कि पार्टी में उनको जगह दी जा रही है. वे सिर्फ सहायक की भूमिका में हैं. उत्तर प्रदेश में हमारी स्थिति थोड़ी खराब थी ऐसे में उनकी सेवाएं लेकर हम खुद को बेहतर बनाएंगे’
इसके अलावा कांग्रेस की एक समस्या परिवारवाद भी है. कुछ विश्लेषक कांग्रेस के पतन का कारण परिवारवाद बताते हैं. उनका मानना है कि कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि पार्टी परिवार के बाहर के लोगों को आगे बढ़ाना नहीं चाहती है. उसे लगता है कि इससे पार्टी में टूट हो सकती है. राशिद किदवई कहते हैं, ‘परिवारवाद कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी और मजबूरी है. गांधी परिवार के बगैर वह एकजुट नहीं रहेगी तो परिवार घोटालों में फंस रहा है. कार्यकर्ता उम्मीद लगाए बैठा है कि शीर्ष नेतृत्व से उसे कुछ बेहतर बदलाव के संकेत मिले तो गांधी परिवार चाह रहा है कि पार्टी भ्रष्टाचार के मामलों पर उसका बचाव करे. इस चक्कर में लीडरशिप गायब है. राहुल को अभी पूरी तरह से कमान सौंपी नहीं गई है. यह भी उलझन पैदा करता है. अभी कांग्रेस में शीर्ष 150 लोगों में वही लोग शामिल हैं जिन्हें सोनिया गांधी लाई थी. राहुल जब कमान संभालेंगे तो इनमें इनके लोग शामिल होंगे. वे जीत और हार की जिम्मेदारी लेंगे लेकिन यह हो नहीं रहा है. ऐसा नहीं है कि इन लोगों से राहुल का कोई मतभेद है. पर हमें ऐसा देखने को मिलता है. जब इंदिरा ने कमान संभाली तो जवाहरलाल नेहरू के करीबी संगठन से दूर हुए. इसके अलावा जब राजीव नेता बने तो संजय गांधी द्वारा लाए गए लोग दूर हुए. सोनिया के आने पर भी ऐसा हुआ. अब राहुल गांधी के आने के बाद भी यह होगा लेकिन इसमें जितना वक्त लगेगा कार्यकर्ताओं में उतनी ही निराशा फैलेगी. वैसे भी टीम राहुल और टीम सोनिया में एक तरह की अंतर्कलह चल रही है. एक समूह कोई नया आइडिया लेकर आता है तो दूसरा उसे खारिज कर देता है.’
हालांकि बेनी प्रसाद वर्मा इन आरोपों को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक नेतृत्व पर सवाल उठाया जा रहा है तो हम जहां तक महसूस किए हैं सोनिया और राहुल गांधी दोनों का कांसेप्ट क्लियर है. उन्हें पता है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है. दरअसल कांग्रेस का उत्थान तो होना ही है. वह आज होगा या कल होगा इसकी परवाह शीर्ष नेतृत्व को नहीं है. अब क्षेत्रीय पार्टियां तो हर चीज के लिए जल्दबाजी में रहती हैं लेकिन कांग्रेस कभी जल्दबाजी में नहीं रहती है.’
दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार के बाद दिए गए अपने भाषण में राहुल गांधी ने संगठन में सुधार करने की बात की थी. हालांकि पिछले काफी समय में कांग्रेस संगठन की कोई बैठक नहीं हुई है. न ही पार्टी पदाधिकारियों की स्थिति में बड़े पैमाने पर बदलाव किया गया है. राहुल गांधी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि 2014 में पार्टी की करारी हार के बावजूद वे कार्यशैली में बदलाव लाने में असफल रहे हैं. जानकार बताते हैं कि कांग्रेस में चितंन शिविर करने की परंपरा रही है. इस दौरान संगठन की बैठक होती है, लेकिन आखिरी शिविर बुराड़ी में 2010 में लगा था. इसके बाद ढंग से एक बैठक जयपुर में लोकसभा चुनावों से पहले हुई थी. चुनाव में हार के दो साल बीत चुके हैं. कांग्रेस संगठन की कोई बैठक ही नहीं हो रही है.

‘कांग्रेस निश्चित तौर पर इस समय बेहाल स्थिति में है. भ्रष्टाचार के आरोप उसके ऊपर साबित हो या न हो लेकिन इसका संदेह ही उसे राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है. भाजपा इस समय सरकार में है. संघ जैसा राष्ट्रव्यापी संगठन उसके पास है. वह संगठित और सुव्यवस्थित तरीके से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का काम करेगी. भाजपा यह चाहेगी कि अगस्ता वेस्टलैंड मामले में जल्दी कुछ परिणाम न आए’
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने प्राइमरी की बात की थी यानी कि कार्यकर्ताओं से पूछा जाएगा कि चुनाव में प्रत्याशी कौन बनेगा. यह एक अच्छा प्रयास था लेकिन यह विफल रहा. फिर कुछ दिनों बाद से ही हाईकमान ने खुद ही फैसले लेना शुरू कर दिया. संगठन का दूसरा चुनाव 2015 मार्च-अप्रैल तक होना था, वह चुनाव हुआ. राहुल गांधी को अध्यक्ष बनना था पर वे बने नहीं मतलब राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयास भी विफल रहा. अब अगर राष्ट्रीय स्तर पर ही चीजें सुव्यवस्थित नहीं रहें तो नीचे के स्तर पर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ता है. कार्यकर्ताओं यहां तक कि विधायकों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता उनसे मिलते ही नहीं हैं. मणिपुर कांग्रेस में जो विवाद हुआ वह यही था. उस दौरान विधायकों ने आरोप लगाया कि हम तीन हफ्ते तक राहुल गांधी से मिलने का इंतजार करते रहे लेकिन उन्होंने मिलने का वक्त ही नहीं दिया. यही हिमाचल प्रदेश में हो रहा है. कुछ ऐसा ही उत्तराखंड में देखने को मिला जहां बागी विधायकों ने आरोप लगाया कि नेतृत्व उनकी बात सुनने को तैयार नहीं हो रहा है. अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधायकों की यही शिकायत रही है.
अब शीर्ष स्तर पर ही नेतृत्व को मजबूत नहीं बनाएंगे तो संगठन में निचले स्तर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और कार्यकर्ता ही आपकी बात जनता तक पहुंचाता है. इसके अलावा कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा था कि वे हार के कारणों पर मंथन करेंगे पर ऐसा कोई मंथन हुआ या नहीं हुआ पता नहीं चल पाया है. दरअसल ऐसा मंथन अंदरूनी होता भी है. निस्संदेह इसमें कांग्रेस की कमजोरियां सामने आएंगी और पार्टी चाहेगी कि यह सार्वजनिक न हो. लेकिन एक बार एके एंटनी ने एक बात जरूर कही थी कि पार्टी की हिंदूविरोधी छवि बन रही है तो इसके बाद यह हुआ कि राहुल गांधी कुछ मंदिरों में घूम आए. मतलब आप जनता से संवाद करने के बजाय छवि बनाने के लिए मंदिर और मस्जिद की शरण ले रहे हैं. यह भी राजनीति को निचले स्तर पर ले जाने वाली बात हुई. फिलहाल कांग्रेस अभी वह सूत्र नहीं पकड़ पा रही है जो उसे मजबूती दे.’