दशहरे के दिन खूनी मैदान में बदले पटना के गांधी मैदान की कहानी कुछ दिनों तक देश भर में चर्चा बटोरने के बाद अब उसी तेजी से हाशिये का विषय बनने की राह पर है. उतनी ही तेजी से, जितनी तेजी से छपरा के गंडमन गांव में मिड डे मील में जान गंवा चुके निर्दोष बच्चों वाली घटना को हाशिये पर धकेल धीरे-धीरे निगल लिया गया था. जिस तरह धमहारा में हुई रेल दुर्घटना में बेमौत मरे लोगों की जान पर कुछ दिनों तक बड़ी-बड़ी बातें कर के, चंद दिललुभावन घोषणाएं करके- करवा के बातों को खत्म कर दिया गया था. जैसे कुछ साल पहले फारबिसगंज के भजनपुरा में पुलिस द्वारा मारे गये लोगों पर सियासत कर उस पर बाद में परदेदारी कर दी गयी थी. और कुछ उस तरह भी, जैसे कि इसी गांधी मैदान से ढाई किलोमीटर की दूरी पर ही पिछले साल छठ के दौरान एक हादसे में 18 लोगों की मौत की कहानी पर थोड़े दिन हो-हल्ला मचाने के बाद सब कुछ निगल लिया गया था.
पटना के गांधी मैदान में दशहरे के दिन यानि तीन अक्तूबर की शाम क्या हुआ, यह अब कमोबेश सबको पता है. सार यही है कि हर शहर और हर साल और हर बार की तरह यहां भी रावण दहन का आयोजन था. परंपरागत तौर पर मुख्यमंत्री समेत कई वीवीआईपी मौजूद थे. इस बार पटना सिटी में होनेवाले रावण दहन की इजाजत कोर्ट ने नहीं दी थी, इसलिए उत्सवधर्मी व पर्व के अवसर पर मेले-सा आनंद लेने वाले अधिकतर लोगों की भीड़ गांधी मैदान ही पहुंची. एक अनुमान पांच लाख लोगों का लगाया गया है. माई-भाई-भौजाई-बाल-बच्चों के साथ. रावण का दहन हुआ. मुख्यमंत्री अपने पैतृक इलाके गया में एक भोज में शामिल होने के लिए निकले. फिर एक-एक कर वीवीआईपी अमला निकलने लगा. सुरक्षा की जो व्यवस्था थी, वह वीवीआईपी को निकालने-निकलवाने में लग गयी. पास में ही बिहार के सबसे बड़े होटल में पटना के डीएम साहब की संतान का जन्मोत्सव भी उसी शाम आयोजित था, सो बहुत सारे बड़े लोग उधर पार्टी में चले गये. इस बीच रावण का दहन देखकर और उत्सवी रस से सराबोर होकर निकल रही जनता के बीच भगदड़ मची. कोई कहता है बिजली का तार गिरने के अफवाह की वजह से, कोई कहता है पुलिस के लाठी चार्ज से. कुछ कहते हैं संकरे रास्ते में यह तय था. कुछ कहते हैं कि अंधेरे ने बवाल के लिए रास्ता बनाया. कारण कुछ भी रहा हो लेकिन सच यह रहा कि देखते ही देखते 33-34 लोगों के जीवन की कहानी खत्म हो गयी.
गांधी मैदान हादसे का सार बस इतना ही है. उसके बाद कार्रवाई के तौर पर यह हुआ कि बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को इस घटना की जानकारी 50 मिनट बाद मिली. लगभग उसी वक्त जब दिल्ली से प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का फोन उनके पास आया. किसी अधिकारी ने इस घटना को इतना बड़ा नहीं माना कि वह मुख्यमंत्री तक इस बात को पहुंचाये. हां केंद्र सरकार की ओर से दो-दो लाख और राज्य सरकार की ओर से पांच-पांच लाख रुपये की मुआवजे की घोषणा करके तुरंत कार्रवाई जैसा दिखाने की कोशिश जरूर हुई. यहां तक एक कहानी है. इस कहानी में सूत्रों के हवाले से कुछ छिटपुट जानकारी भी है. एक जानकारी यह भी कि जब गांधी मैदान हादसा हुआ और लोग मर रहे थे, उस वक्त भी पास में ही एक बड़े अधिकारी का जश्न वैसे ही जारी रहा था जिसमें कई आला अधिकारी मौजूद थे और सबको सूचना मिलने के बावजूद वे जश्न के माहौल को छोड़ आने को तैयार नहीं थे.
बहरहाल, गांधी मैदान हादसे की इतनी-सी कहानी के आगे पीछे की जो कहानी है, वह भी कोई कम भयावह नहीं. इस एक हादसे के आगे पीछे की जो कहानी है अथवा कहानियां बन रही हैं, उससे यह पता चलेगा कि कैसे बिहार अब एक ऐसा राज्य हो चुका है, जहां शासन और राजपाट का इकबाल लगभग खत्म हो चुका है और सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों की राजनीति का स्तर रसातल को पहुंच गया है.
कहानी को घटना की रात से ही समझ सकते हैं. घटना के तुरंत बाद पटना के जिलाधिकारी यानी डीएम इतने बड़े हादसे का दोष भीड़ पर मढ़ देते हैं. एसएसपी अंधेरे को दोष देते हैं और कहते हैं कि हर गेट पर तीस-तीस पुलिसवाले थे. ऐसा कहके एसएसपी सफेद झूठ ही बोलते हैं लेकिन वे सीना तानकर यह झूठ बोलते हैं. शर्मनाक यह होता है कि हादसे की रात ही जब पटना में बिजली वितरण की जिम्मेवारी निभानेवाली इकाई पेसू से पूछा जाता है तो जवाब मिलता है कि हाईमास्ट लाइट अगर गांधी मैदान में नहीं जल रही थी तो यह नगर निगम का जिम्मा है, उनसे पूछिए. और जब निगम अधिकारियों से बात होती है तो वे कहते हैं कि लाइट तो लगी हुई थी पहले, चोर चोरी कर लिये थे तो क्या कहें-क्या करें? वे एक बार भी नहीं मानते कि चाहे जिस विभाग की गलती हो या फिर सभी विभागों की मिलीजुली लापरवाही रही हो लेकिन इस हादसे की सबसे पहली और बड़ी जिम्मेवारी सरकारी तंत्रों की ही बनती है.
इस बीच यह तथ्य भी बताते चलें कि सबको पता था कि चूंकि इस बार पटना सिटी में रावण दहन मेला नहीं लगनेवाला इसलिए भीड़ का बोझ गांधी मैदान पर हर बार से ज्यादा रहेगा लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि जिला प्रशासन, पुलिस और मेला आयोजन समिति के बीच एक बार भी व्यवस्था पर बैठक नहीं हुई. यह कोई और नहीं बल्कि आयोजन समिति के सचिव अरुण कुमार ही बताते हैं. जहां तक अंधेरे की बात है तो उससे जुड़ा तथ्य यह रहा कि गांधी मैदान में कहने को तो जिला प्रशासन ने 90 लाइट टांग दी थी, लेकिन सारी ही नहीं जल रही थीं. गांधी मैदान में स्थाई रूप से लगी छह में से चार हाईमास्ट लाइट से ही पांच लाख लोगों को संभालने की व्यवस्था की गई थी. एसएसपी ने जहां तक हर गेट पर तीस-तीस पुलिसवालों को तैनात रखने की बात कही, उसकी सच्चाई यह है कि अव्वल तो पब्लिक के लिए सारे गेट खोले ही नहीं गये थे और जिस गेट को खोला गया था, वह अंधेरे में डूबा हुआ था और जो पुलिसवाले थे वे वीवीआईपी को ही निकालने में ही सारी ऊर्जा लगाए हुए थे. बाद में जब भीड़ को नियंत्रित करने की बारी आई तो वे लाठी चार्ज कर आग में घी डालने जैसा ही काम कर गए. बहरहाल, पुलिस-प्रशासन की यह गलती किसी को भी दिखी थी, इसलिए सरकार ने भी आनन-फानन में एसएसपी, डीएम, डीआईजी वगैरह का तबादला कर अपनी जान बचाने की कोशिश की और यह बताया कि कार्रवाई हुई है.