‘हिंदी में यूरोपीय साहित्य से बेहतर लिखा गया है’

bhaalchandraआपके उपन्यास का शीर्षक  ‘हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़’  में  ‘जीने का…’  के पीछे क्या दर्शन है?

देखिये, ‘कबाड़’ घर का एक हिस्सा होता है, जो दिन-ब-दिन  जमा होता जाता है. आज इस्तेमाल में न आनेवाली सारी चीजें हम फेंक नहीं देते हैं. दादाजी की लाठी हो, दादी का संदूक हो, बचपन में बहन की मरी हुई गुिड़या हो या भाई की गेंद हो, इन्हें बेकार की वस्तुएं मानकर हम फेंक नहीं देते हैं. आज के आधुनिक और व्यक्तवादी परिवेश में छोटे से छोटे होते परिवार और समाज में जो ‘बेकार’ का है, वह सब फेंक देने की प्रवृत्ति स्वयं को उन्नत समझने की निशानी समझी जाती है. इस संस्कृति में दादाजी और दादीजी को भी फेंक देना उन्नति का लक्षण समझा जा सकता है.  कबाड़ ही सही, पर परंपरा को एक मूल्य के रूप में सहेजे रखना- चाहे पुराना ही क्यों न हो, जो-जो भीतर आया,  वह हमारा हुआ, उसे समाहित करके, चाहे उसके लिए तहखाने में, परछत्ती पर जहां जगह मिले, वहीं सम्भाले रखना. सिंधु संस्कृति से भी पहले से हमारी यही परंपरा रही है. हमारी संस्कृति में सब कुछ हमारा अपना हो जाता है इसलिए सब सम्भालकर रखा हुआ है. मुंडा, तिबेटोबर्मन, आदिवासी, नागा, द्राविड़ी, आर्य, ग्रीक, शक, तुर्की, अरबी, मुगल और अंत में पुर्तगीज तथा एंग्लो इंडियन तक का सारा कबाड़ हमने बड़े प्यार से तहखाने में सम्भालकर रखा है और यह मनुष्य समाज में हिंदू संस्कृति की एक अनुपम विशिष्टता है. अभी भी पूरे देश के गांव-गांव में अनेक जीवन-पद्धतियां, मूल्य, आचार-विचार, खानपान, पहनावे की विभिन्न शैलियां, रीति-रिवाज, भाषा, संप्रदाय, वांशिक प्रथाएं, लोक साहित्य, लोक संगीत आदि जिंदा है. इस कारण ‘हिंदू’ शब्द भी अधिकांशतः बहुवचन में प्रयुक्त होता रहा है.

मनुस्मृति में स्त्रियों और शूद्रों के बारे में बहुत  अनाप-शनाप लिखा गया है तो क्या हिंदू धर्म के इस कबाड़ को सम्भालकर रखा जा सकता है?

मनुस्मृति में लिखी गई बातें हमारे काम की नहीं हो सकती हैं लेकिन उसे इसलिए सम्भालकर रखना चाहिए ताकि आप अगली पीढ़ी को यह बतला सकें कि हमारे ग्रंथों में निकम्मेपन के सबूत मौजूद हैं. उस समय के समाज के बारे में यदि अध्ययन करना हो तो फिर मनुस्मृति की जरूरत तो पड़ेगी न. आठ तरह के विवाह उस समय होते थे, यह मनुस्मृति से ही पता चलेगा.

पर इस समय तो  ‘हिंदुत्व’  और   ‘हिंदू’  का मतलब कम से कम व्यवहार में तो कुछ और ही नज़र आ रहा है?

इस बहुआयामी शब्द ‘हिंदू’ को अंग्रेजों के बाद संकुचित और जातीय अर्थ प्राप्त हुआ. इस कारण ‘भारतीयत्व’ और ‘हिंदुत्व’ परस्पर विरोधी अवधारणाएं प्रतीत होने लगी हैं, जिसका मुझे बहुत दुख है. दरअसल, ये दोनों अवधारणाएं परस्पर समानार्थी हैं. भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ‘हिंदुस्तान’ शब्द मुसलमान सहित सभी संप्रदाय के लोगों द्वारा लगातार प्रयोग में लाया जाता रहा है, जो सर्वाधिक सार्थक है. हमारे संविधान में अंग्रेजी में ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग किया गया है. इस उपमहाद्वीप के मेलुहा, भारतवर्ष, आर्यदेश, जम्बूद्वीप, हिमवर्ष, हैमवत, सनातन आदि न्यूनाधिक व्याप्ति के आधार पर दिए गए नाम सर्वसम्मत नहीं बन सके. जरा-सा ध्वनि परिवर्तन से ‘हिंद’ (पश्चिम और मध्य एशिया), ‘इंटू’ (चीन), ‘इंडो’ (यूरोप) आदि शब्द इस उपमहाद्वीप के संलग्न भूभाग और एक स्वायत्त संस्कृति के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं. अब ‘हिंदू’ और ‘भारत’ ये दोनों संज्ञाएं भी परस्पर व्यापक अर्थ प्रकट करती हैं. ‘हिन्दू’ प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा के लिए और ‘भारत’ स्वाधीनोत्तर 66 सालों की एक राजनीतिक इकाई के लिए.

बहुवचनी  ‘हिंदू’  संस्कृति क्या एकवचनी हो गई है? इसे समझना चाहूंगा?

‘हिंदू’ संस्कृति, हमारे देश की विविधता- भाषा, रीति-रिवाज, मूल्य, धर्म, संस्कार आदि का यह समृद्ध पक्ष कैसे तैयार हुआ और इस व्यवस्था के पीछे क्या स्ट्रक्चर है, क्या सिद्धांत हैं, इसे मालूम करना हमारा कर्तव्य है. हमें इसकी जड़ें तलाशने के लिए भूतकाल में जाना होगा.  इसी कारण ‘हिंदू’ उपन्यास में मोहनजोदड़ो युग के ईसा पूर्व 3000 के एक अद्भुत प्रसंग को शामिल किया गया हैै. भूतकालीन महानगरीय लोग नायक को कोड वर्ड बताए बिना भीतर नहीं आने देते थे. उस नायक की तरह हमारा भी कोड वर्ड है ‘बहुवचन भूतकाल’. मुझे लगता है यही हमारी हिंदू संस्कृति की पहचान है. यह बहुवचन भूतकाल एक बार समझ में आ जाए तो हमें अपनी संस्कृति को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती है. बहुवचन भूतकाल यानी हमारी जाे विविधताएं हैं, वे सारी की सारी बहुवचनी हैं. हमारे यहां अनेक जातियां, अनेक जनजातियां, अनेक रिश्ते, कई प्रकार की फसलें, खानपान हैं. हम तो गाय, बैल, सूअर, मोर, बकरे और यहां तक कि कुत्तों का भी खाद्य के रूप में इस्तेमाल करते हैं. यह संस्कृति का बहुवचनी रूप है. कपड़ों के मामले में भी अनेक पद्धतियां हैं. पूरी तरह नंगा रहने से लेकर सूट पहनने तक, सभी प्रकार के लोग हमारे यहां हैं. एकवचन कहीं भी नहीं है. भाषा और धर्म के मामले भी एकवचन नहीं हैं. हम बहुवचनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं इसलिए सांस्कृतिक कट्टरवाद बढ़ रहा हैै. हमारे यहां हिंदू -मुसलमानों में जो दरार पैदा हुई, वह इसी कायर उग्र एकवचन के कारण हुई है. यदि हम बहुवचनी बने रहते तो यह पार्टीशन होना संभव ही नहीं था. क्योंकि बहुवचन से ही सभी लोग हमारे अपने और हम सभी उनके, की भावना बनती है. काबुल-अफगानिस्तान से लेकर तमिलनाडु और असम और उससे ऊपर तक हमारी संस्कृति फैली हुई है. हमने उसे बिसरा दिया है. इसके चलते इस विविधता को बरकरार रख पाना और इसके ह्रास के लिए उत्तरदायी उग्र विचारों को समाप्त करना आवश्यक है. साथ ही हमारे यहां स्त्रीत्व का जो घोर अपमान हुआ है, उसे दूरकर दुबारा मातृसत्ता की स्थापना करना जरूरी है.

बहुवचनी हिंदुत्व का रेशा कब और कैसे बिखरने लगा?

अंग्रेजों के जमाने में मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू होने के बाद और खासकर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के बाद हमारी बहुवचनीय हिंदू भारतीयता की विविधता की बुनावट बिखरती हुई नजर आती है. गौड़पाल बौद्ध पंडित के शिष्य शंकराचार्य ने अद्वैतवाद को प्रतिपादित किया. गुरु नानकदेव के अनुयायी हिंदू और मुसलमान दोनों ही हैं. संत एकनाथ और तुकाराम की गुरु परम्परा सूफी रही है. वराकरी संप्रदाय में मुसलमान संतों की पूजा होती है. रामानंद का शिष्य कबीर और कबीर के हिंदू और मुसलमान शिष्य भी इस महाद्वीप में एक साथ रहते हैं. सांस्कृतिक समन्वय और समरसता की बातें हमारे यहां बहुत लंबे समय से चली आ रही हैं. परंतु 100-150 सालों में हमारा यह तेजस्वी इतिहास एकवचनीय, एकांगी और असहिष्णु होता जा रहा है. धार्मिक समुदायों का काल्पनिक एकधर्मीय केंद्रीकरण होकर उनके राजनीतिक चुनाव के क्षेत्र बन गए हैं. सन 1861 से जनगणना शुरू कर अंग्रेजों ने यहां की लचीली, लगातार परिवर्तनशील जाति-व्यवस्था को स्थिर करके उसे कट्टर, कर्मठ तथा अहंकारी ‘कास्ट’ सिस्टम में परिवर्तित कर दिया. इससे हर जनगणना में नई-नई ‘मेजोरिटी’ जातियां उत्पन्न होने लगीं और इस प्रकार उन्होंने अल्पसंख्यक बहुविविधता के परंपरागत महत्व को समाप्त कर दिया. आगे चलकर धार्मिक समस्याओं पर कठोरतापूर्वक तर्क करनेवाले बुद्धिजीवी भी अस्त होते गए. ‘काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे’ जैसी भाषा का प्रयोग करनेवाले या ‘काबा-ओ-बुतकदा यक महमिल-ए-ख्वाब-ए-संगी (मस्जिद क्या, मंदिर क्या- दोनों को ढंकनेवाली एक नकाब है). इस तरह एकवचनीयता की कड़ी आलोचना करनेवाले हिन्दुस्तानी जनता के लिए गालिब जैसे सारे पूजनीय महाकवि लुप्त हो रहे हैं और पूरे उपमहाद्वीप में फासिस्ट प्रवृत्तियां लहलहा उठीं हैं.

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