मुठभेड़ चाल

गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई एनकाउंटर हुए जो विवादों में रहे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी  एनकाउंटर हुए. फर्जी एनकाउंटर को लेकर गुजरात के कुल 32 पुलिस अधिकारी जेल गए, जिनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं. हाल ही में गुजरात के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, 1987 बैच के आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा नौ साल बाद गुजरात पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया. वे 2007 में गिरफ्तार किए गए थे. 2015 में जमानत मिली, लेकिन सीबीआई कोर्ट ने उनके गुजरात में प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. बाद में कोर्ट ने यह रोक हटा ली. वंजारा 2002 से 2005 तक अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस थे. इस दौरान राज्य में करीब बीस लोगों का एनकाउंटर हुआ. बाद में जब सीबीआई जांच हुई तो पता चला कि इनमें से कई एनकाउंटर फर्जी थे. वंजारा के बारे में कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत करीबी थे. 2007 में गुजरात सीआईडी ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल भेजा. उन पर सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति, सादिक जमाल, इशरत जहां समेत आठ लोगों की हत्या का आरोप है. इन सभी एनकाउंटरों के बाद गुजरात क्राइम ब्रांच ने दावा किया था कि ये सभी पाकिस्तानी आतंकी थे और गुजरात के मुख्यमंत्री को मारना चाहते थे, लेकिन बाद में कोर्ट के आदेश पर सीबीआई जांच में साबित हुआ कि ये सभी एनकाउंटर फर्जी थे.

आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)
आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)

इशरत जहां एनकाउंटर केस 15 जून, 2004 को अहमदाबाद में हुआ था. इसमें 19 वर्षीय इशरत के साथ जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्लै, अमजद अली, अकबर अली राणा और जीशान जौहर मारे गए थे. इस मामले में पृथ्वीपाल पांडेय (पीपी पांडेय) व जीएल सिंघल समेत सात अधिकारियों को सीबीआई ने चार्जशीट में अभियुक्त बनाया था. बाद में जीएल सिंघल ने यह कहते हुए इस्तीफा भी दिया था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही, जबकि उन्होंने क्राइम ब्रांच में रहते हुए जो भी किया, वह सब सरकार के दिशा-निर्देश पर किया.

पीपी पांडेय 1982 बैच के अधिकारी हैं जो 2003 में अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया बने. उनकी अगुवाई में क्राइम ब्रांच ने 11 कथित आतंकियों को मुठभेड़ों में मार गिराया. इन मुठभेड़ों में कई के फर्जी होने के आरोप लगे. इनमें से इशरत जहां मुठभेड़ भी शामिल है. सीबीआई का दावा था कि पांडे ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के अफसरों के साथ मिलकर इस कथित फर्जी मुठभेड़ की ‘साजिश’ रची. अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित किया. बाद में उन्होंने आत्मसमर्पण किया था. फरवरी 2016 में सीबीआई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर से बहाल करके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) बनाया गया. अप्रैल में उन्हें गुजरात पुलिस का प्रभारी महानिदेशक बनाया गया.

हाल में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने एक इंटरव्यू में कहा कि इशरत मामले में दूसरा हलफनामा गृह मंत्री पी चिदंबरम के कहने पर बदला गया था. इसी बीच गृह मंत्रालय के एक मौजूदा अधिकारी आरवीएस मणि ने आरोप लगाया कि इशरत मुठभेड़ के मामले में हलफनामा बदलवाने के लिए सतीश वर्मा ने उन पर दबाव बनाया और प्रताड़ित किया. गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा इशरत जहां एनकाउंटर की जांच करने वाली कोर्ट की गठित उस एसआईटी के सदस्य थे. वर्मा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा, ‘ये पूरा आईबी नियंत्रित ऑपरेशन था. चार लोगों को पकड़ा गया. इनमें से दो के बारे में आईबी को जानकारी थी कि वे संभवत: लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे. इन सभी पर आईबी और गुजरात पुलिस की नजर थी और फिर ये लोग कथित मुठभेड़ में मार दिए गए. ये पूरा ऑपरेशन बड़ा कामयाब था. लेकिन साथ ही फर्जी भी था.’

26 नवंबर, 2005 को सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस हुआ. सोहराबुद्दीन शेख पर हत्या, उगाही करने और अवैध हथियारों का धंधा चलाने जैसे 60 आपराधिक मामले चल रहे थे. 23 नवंबर को वह अपनी बीवी कौसर बी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहा था तभी गुजरात एटीएस ने दोनों को उठा लिया. तीन दिन बाद पुलिस हिरासत में ही सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. आरोप है कि कौसर बी को भी मारकर अधिकारी डीजी वंजारा के गांव में दफना दिया गया. इस घटना के करीब एक साल बाद सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसी प्रजापति का भी एनकाउंटर हो गया. इस एनकाउंटर को लेकर भाजपा नेता और गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगे कि यह एनकाउंटर उनके कहने पर किया गया है. अमित शाह को जेल भी जाना पड़ा था. इन मुठभेड़ों में जेल जाने वाले वंजारा ने भी दावा किया था कि ‘गृहमंत्री अमित शाह ने कई लोगों के एनकाउंटर का आदेश दिया था.’ 2014 में विशेष कोर्ट ने अमित शाह के खिलाफ आरोप खारिज कर दिए.

‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. कुछ ऐसे जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी’

सितंबर 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस ने दो संदिग्ध आतंकियों को मारने का दावा किया. दो आतंकी पकड़े गए थे और एक भागने में सफल रहा था. इस मुठभेड़ में एक इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा भी मारे गए. जामा मस्जिद के शाही इमाम समेत मानवाधिकार संगठनों से इस एनकाउंटर को फर्जी बताया और जांच की मांग की. हालांकि, जांच के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अाैर अदालत ने फर्जी एनकाउंटर के आरोप को खाारिज कर दिया. 

हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में कई ऐसे मामले सामने आए जब पुलिस-नक्सल मुठभेड़ को लेकर सवाल उठे. पुलिस का दावा है कि उसने नक्सली मारे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि पुलिस ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार रही है. कुछ दिनों पहले प्रदेश कांग्रेस ने जनाक्रोश रैली की जो इसी मसले पर थी. इस रैली में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने कहा, ‘चिड़िया मारने वाली बंदूक रखने वाले आदिवासियों को 5 से 10 लाख तक का इनामी नक्सली बताकर पुलिस झूठी मुठभेड़ में उन्हें मार रही है. पुलिस को नक्सलियों को मारना ही है तो पहले ऐसे आरोपियों के नाम और पहचान की सूची उजागर करे जो सभी थानों में सहज सुलभ हो. बस्तर में फर्जी मुठभेड़ का खेल खेलकर पुलिस झूठी वाहवाही ले रही है. बेकसूर आदिवासियों को या तो जेल में ठूंसा जा रहा है या मार दिया जाता है.’

उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘राजनीति में अपराधी तत्वों का बढ़ता प्रभाव कथित फर्जी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं, उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जबकि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारूढ़ राजनेताओं को खुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाइयां करती है.’

जब अपराधियों को सजा देने के लिए पुलिस, कानून और अदालतें मौजूद हैं तो किसी को कानून से परे जाकर मारने की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है, इसके जवाब में पूर्व अधिकारी प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. आपको सुनकर अजीब लगेगा, लेकिन सारा समाज चाहता है. उसका कारण यह है कि समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व या जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. अगर पकड़ता भी है तो जमानत हो जाती है. मुकदमे 20 साल चलते हैं. तब तक गवाह टूट जाते हैं. लोग कहते हैं कि इनको मारो और खत्म करो. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी. ऐसे बदमाश से छुट्टी मिली. मुख्य कारण तो यह है कि लोग चाहते हैं और खुलकर कोई नहीं कहता है. दूसरे, हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना विलंब से काम करता है, कछुए की चाल चलता है कि इस तरह की कार्रवाई को सामाजिक मान्यता मिली हुई है. अब आप कह रहे हैं कि इसकी वजह से कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं, यह भी सही है. जब आप इस तरह की छूट दीजिएगा तो जाहिर है कि पुलिस इसका दुरुपयोग करेगी और करती भी है.’

रिहाई मंच संगठन से जुड़े वकील मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘कानून फर्जी एनकाउंटर की इजाजत बिल्कुल नहीं देता है. पुलिस एनकाउंटर के मसले में किसी भी तरह से नियमों का पालन नहीं करती है. पुलिस को ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है. हां, पुलिस को अगर अपनी जान का खतरा है तो वह किसी को मार सकती है. लेकिन जानबूझकर किसी को मारा जाए, तो यह कानूनन गलत है. जिस व्यक्ति से उनको जान का खतरा नहीं है, उसे भी मार देना गलत है. ज्यादातर एनकाउंटर में पुलिस लोगों को पहले से पकड़ती है, बाद में मार देती है और उसे दिखाती है कि यह एनकाउंटर में मारा गया. एनकाउंटर के बाद उस मसले की जांच तभी होती है जब कोई शिकायत आती है, वरना तो पुलिस के दावे को ही मान लिया जाता है. पुलिस कहती है कि फलां आदमी मुठभेड़ में मारा गया, और इसे ही सच मान लिया जाता है. फर्जी एनकाउंटर के बाद भी अगर कोई इस मसले को उठाता है तो उसे इतना डरा दिया जाता है कि वह चुपचाप बैठ जाए.’

प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘इसका एक ही उपाय है कि आपका क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना प्रभावशाली हो कि जघन्य अपराध में भी एक आदमी को दो साल में सजा हो जाए. 20 साल न चले मुकदमा, इसका और कोई उपाय नहीं है. इसके लिए पुलिस सुधार चाहिए. न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहिए. जमानत के प्रावधानों में सुधार चाहिए. मामलों का जल्दी से निस्तारण हो. चार्जशीट 60 दिन में फाइल हो जाती है. दो साल में मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए. अभी तो लोगों को सिस्टम में विश्वास ही नहीं है कि आदमी पकड़ा तो गया, लेकिन उसको सजा कहां होगी. शहाबुद्दीन ज्वलंत उदाहरण हैं. उन्होंने जेएनयू के प्रेसिडेंट चंद्रशेखर की हत्या करवा दी. अभी तक उन्हें कोई दंड नहीं मिला, उल्टा वे पार्टी की नेशनल एक्जिक्यूटिव के सदस्य हो गए. इसका मतलब उनको राजनीतिक संरक्षण हासिल है. न्यायिक तंत्र से सजा भी नहीं हो पाती है. ऐसे लोगों के लिए क्या उपाय है. हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे लोग न रहें तो अच्छा है. समाज के पाप और व्यवस्था के निकम्मेपन की गठरी पुलिस अपने सर पर ढोती है.’