अपना-अपना राष्ट्रवाद

HindiCover28Feb2016WEB

जिस समय भारतीय संसद में राष्ट्रवाद पर बहस हो रही थी, उसी समय देश के कई हिस्सों में कथित राष्ट्रवादी समूहों की उच्छृंखल कार्रवाइयां भी जारी थीं. कई जगहों पर हिंदूवादी संगठन बुद्धिजीवियों के साथ मारपीट करने और सेमिनार आदि में व्यवधान डालने जैसे कारनामे कर रहे थे. करीब एक दर्जन विश्वविद्यालयों में आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) छात्रों से या शिक्षकों से भिड़ी हुई है. एबीवीपी का कहना है कि वे लोग ‘देशद्रोही’ हैं और ‘देशद्रोही गतिविधियों’ में लिप्त हैं.

23 फरवरी को डीयू के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में एक लेख लिखा, जिसे लखनऊ के समाजशास्त्र के प्रोफेसर राजेश मिश्रा ने फेसबुक पर शेयर किया. उन्होंने पोस्ट पर लिखा, ‘यह राजनीतिक विचारधारा में अंतर के बावजूद अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन करने के लिए है.’ उनकी इस पोस्ट पर एबीवीपी ने उनका पुतला फूंका. कक्षाएं नहीं चलने दीं. एबीवीपी के एक सदस्य अनुराग तिवारी ने बयान दिया कि ‘वे देशद्रोही हैं. जब वे यूनिवर्सिटी परिसर में आएंगे, तो मैं जूतों का हार पहनाकर उनका स्वागत करूंगा.’ विश्वविद्यालय ने प्रोफेसर को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. हालांकि, उस लेख के लेखक अपूर्वानंद और अखबार पर कोई सवाल नहीं है. एबीवीपी को आपत्ति इसलिए है कि वह लेख जेएनयू विवाद के बाद चर्चा में आए उमर खालिद के समर्थन में था.

‘राष्ट्रवाद का यह जो छद्म है, यह फासीवाद की ओर ले जाता है. फासीवाद इसी पर टिका होता है. यह हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ वाला मामला है. बुद्धिजीवियों पर हमला उसी प्रयोग की पहली कड़ी है’

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘अब देखिए कि मूर्खता किस हद तक जा रही है कि वह लेख राजेश मिश्रा ने लिखा नहीं है, सिर्फ शेयर किया है. उस लेख में कोई हिंसा का आह्वान नहीं है. लेकिन उनके खिलाफ हिंसा होती है और उन्हीं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाता है. हम लोग धीरे-धीरे कहां जा रहे हैं?’

इसी तरह जम्मू विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में 18 फरवरी को ‘कश्मीर में बहुलतावाद’ पर सेमिनार हुआ, जिसमें कई विद्वान और पत्रकार शामिल हुए. हिंदूवादी संगठनों ने इसे ‘देशविरोधी’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ गतिविधि बताया, आपत्ति जताई और कुलपति ने विभाग को नोटिस जारी कर दिया.

जनवरी की शुरुआत में ही सामाजिक कार्यकर्ता व मैग्सेसे पुरस्कार विजेता डॉ. संदीप पांडेय को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बर्खास्त कर दिया गया. वे वहां गेस्ट फैकल्टी थे. उन पर धरना-प्रदर्शन जैसी ‘नक्सली और देशद्रोही’ गतिविधियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया. संदीप पांडेय पर भी यह आरोप एबीवीपी का था, जिसकी शिकायत पर यूनिवर्सिटी प्रशासन ने कार्रवाई की. संदीप पांडेय का कहना है, ‘मैं आपसे पूछता हूं कि अगर मैं नक्सली या देशविरोधी हूं, तो केस दर्ज कर मुझे जेल में डालना चाहिए या फिर मेरा निष्कासन होना चाहिए? दरअसल, यह एक वैचारिक लड़ाई है. हम संघ की विचारधारा के विरुद्ध हैं, इसीलिए ये लोग हमसे परेशान हैं.’ संदीप पांडेय ने अपनी बर्खास्तगी को हाई कोर्ट में चुनौती दी है.

महाराष्ट्र में लातूर जिले के पानगांव में 19 फरवरी को शिवाजी की जयंती मनाने के लिए जमा हुए कुछ लोग भगवा झंडा फहरा रहे थे. यह इलाका सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील है. पानगांव पुलिस चौकी पर तैनात असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर एएसआई यूनुस शेख ने उन्हें भगवा फहराने से रोक दिया. अगले दिन भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला किया और एएसआई यूनुस शेख को पकड़कर उनकी बुरी तरह पिटाई की और उनके हाथ में भगवा झंडा पकड़ाकर पूरे गांव में परेड कराई. भीड़ ने यूनुस से ‘जय भवानी, जय शिवाजी’ के नारे भी लगवाए.

इन सभी घटनाओं के मद्देनजर ही भारतीय संसद में राष्ट्रवाद पर बहस हुई. बहस में राष्ट्रवाद की तमाम परिभाषाएं तो दी गईं लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि इस तरह की घटनाएं रोकी जाएंगी या नहीं. यह बहस भी इसलिए हुई क्योंकि जेएनयू में कथित देशविरोधी नारे लगने की घटना के बाद वहां के छात्रों पर कार्रवाई को लेकर बहस और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ. राष्ट्रवाद की इस बहस के बीच हैदराबाद, जेएनयू, इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर और जम्मू विश्वविद्यालय में अकादमिक जगत पर हुए हमलों ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं.

21 फरवरी को ग्वालियर में आंबेडकर विचार मंच की ओर से ‘बाबा साहब आंबेडकर के सपनों का भारत’ विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. कार्यक्रम में जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार भी शिरकत करने पहुंचे थे. आरोप है कि उनके व्याख्यान के दौरान भारतीय जनता युवा मोर्चा और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने वहां पहुंचकर उपद्रव शुरू कर दिया. इन कार्यकर्ताओं ने वहां तोड़फोड़ की और हवाई फायर भी किए गए.

प्रो. विवेक कुमार के मुताबिक, ‘वह कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था. आंबेडकर पर केंद्रित अकादमिक कार्यक्रम में व्यवधान डालने का सीधा मतलब है कि वे कार्यक्रम नहीं होने देना चाहते. हिंदूवादी आंबेडकर का नारा तो लगाते हैं, लेकिन यह उनकी मजबूरी है. वे दलितों के विचार-विमर्श को भी रोकना चाहते हैं. कार्यक्रम अांबेडकर विचार मंच ने रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो ये कोई बात नहीं हुई. वे एकदम से हिंसात्मक मुद्रा में सीधे अंदर चले आए थे. अंदर घुसने से रोकने पर उन्होंने गोली चलाई.’

‘बुद्घिजीवियों पर हमले इसलिए हो रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये सब हिंदुत्ववाद या किसी एक तरह की विचारधारा के खिलाफ हैं. देश का नारा है अनेकता में एकता, लेकिन ये लोग एकता में एकता चाहते हैं’

25 फरवरी को इलाहाबाद में वकीलों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला किया और उनके साथ जमकर मारपीट की. प्रदर्शन करने वाले लोग वामपंथी संगठनों व सिविल सोसायटी के लोग थे. वे रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरण के विरोध में इलाहाबाद कचहरी में धरना-प्रर्दशन कर रहे थे. हमलावर लोगों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों को ‘देशद्रोही’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ कहा और उन्हें दौड़ाकर पीटा. हमले में ट्रेड यूनियन के एक कार्यकर्ता अविनाश मिश्रा का सिर फट गया. प्रदर्शन में शामिल महिलाओं को भी पीटा गया. अविनाश का आरोप है, ‘हमला करने वाले वकीलों की ड्रेस में थे, लेकिन वे सभी वकील नहीं थे. यह भाजपा के गुंडों का काम है.’ कथाकार दूधनाथ सिंह ने बताया, ‘हम लोग धरने पर थे. वकील लोग आए. पहले भागने को कहा, मना करने पर मारपीट शुरू कर दी. वहां पर लगे पोस्टर-बैनर सब फाड़ दिए.’

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 15 फरवरी को एक कार्यक्रम आयोजित था, ‘हाशिये का समाज और आधुनिकता’. जेएनयू के प्रो. बद्रीनारायण इसके मुख्य वक्ता थे. उनके अलावा व्योमेश शुक्ला, चंद्रकला त्रिपाठी, बलिराज पांडे, राजेंद्र शर्मा, नीरज खरे अादि कवियों का काव्य पाठ भी था. ऐसा आरोप है कि इस कार्यक्रम में भी एबीवीपी के करीब सौ लड़कों ने पहुंचकर उपद्रव किया. कार्यक्रम के बीच पहुंचकर उन्होंने ‘बाहर निकालो गद्दारों को, जूता मारो सालों को’ जैसे नारे लगाते हुए माथे पर भगवा पट्टी बांधी और तिरंगा लिए छात्र व्याख्यान कक्ष में घुस गए और कार्यक्रम रुकवा दिया. बद्रीनारायण ने बताया, ‘कार्यक्रम चल रहा था, उसी समय एबीवीपी के कार्यकर्ता आ गए. काफी हंगामा और तोड़फोड़ की. राष्ट्रवाद का यह जो छद्म है, यह फासीवाद की ओर ले जाता है. फासीवाद इसी पर टिका होता है. यह हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ वाला मामला है. बुद्धिजीवियों पर हमला उसी प्रयोग की पहली कड़ी है.’

राष्ट्रवाद का चरम दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में दिखा जब हाथ में तिरंगा लेकर कुछ लोग जेएनयू के छात्रों को पीट रहे थे और महिलाओं को, वकीलों को गाली दे रहे थे. मोटी लाठी में बंधा लहराता तिरंगा, भारत माता की जय का नारा और साथ में मां-बहन की गालियों के अनूठे संगम से राष्ट्रवाद का जो चेहरा दिखता है वह बेहद भयानह है.

दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘बौद्धिक जगत का जनता पर बहुत अधिक असर होता है. उनकी संख्या बढ़ ही रही है. अब मसला यह है कि भाजपा और संघ के लोग एक खास तरह का विचार सारी जनता पर लादना चाहते हैं. देश को एकरूपता देना चाहते हैं. देश में जहां इतनी विविधता है, उस पर एक विचार थोपना चाहेंगे तो यह तो संभव नहीं है. इलाहाबाद में हम लोगों पर हमला दिल्ली की घटना का दोहराव था. बौद्धिक जगत पर हमले इसलिए हो रहे हैं कि उन्हें लगता है कि ये सारे प्रोफेसर हिंदुत्ववाद के, किसी एक तरह की विचारधारा या एकरूपता के खिलाफ हैं. जो देश का पुराना नारा है अनेकता में एकता, वह नारा ये लोग नहीं चाहते. ये लोग एकता में एकता चाहते हैं. अब उसमें ये सफल नहीं हो पा रहे हैं तो मारपीट और हिंसा पर उतरते हैं.’

वकीलों के पार्टी या सरकार के पक्ष में हमलावर होने पर चिंता जताते हुए दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘यह वकीलों का मामला बेहद आश्चर्यजनक है. वकील जो न्याय प्रक्रिया से संबंधित है, उसका दिमाग इस तरह से बंद क्यों है? हो सकता है कि दिल्ली की कोर्ट में जो हुआ, उससे इलाहाबाद के वकीलों ने प्रेरणा ली. उस सामान्य धरने से वकीलों को, सरकार को या संघ को क्या परेशानी हो सकती थी?’

जेएनयू के प्रोफेसर सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘लखनऊ के अध्यापक ने अपूर्वानंद का लेख सिर्फ शेयर किया था, लेकिन उन्हें उसके लिए कारण बताओ नोटिस दे दिया गया. फिर तो अपूर्वानंद को जेल में होना चाहिए था. जबकि वह लेख एक बहुत प्रभावशाली वक्तव्य है. इससे जाहिर है कि वह तबका जिसके पास कोई तर्क नहीं है, वह घबराया हुआ है. क्योंकि जनमानस को यह बात जिस दिन समझ में आती है, वह अपनी पोजिशन लेने को तैयार हो जाता है. जब आम आदमी के बीच बरगलाने वाली बातों को खुलासा होता है, और जनता जागरूक होती है तो ऐसे तबके को सबसे ज्यादा खतरा नजर आता है जिसके पास कोई तर्क नहीं हैं. डंडे के जोर से अपनी बात मनवाना चाहते हैं.  राजनीति में धर्म और लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. इसका नतीजा यह होने वाला है कि लोगों के बीच बिखराव होगा. जितना ही यह बढ़ेगा, आपको अपना हित साधने का और ज्यादा मौका मिलेगा. यह एक नए तरीके का अछूतवाद या अस्पृश्यतावाद है. पहले जाति के नाम पर था, अब यह धर्म और सोच-विचार के नाम पर किया जा रहा है. मसलन आप लेफ्ट हो, आप जेएनयू वाले हो, आप मुसलमान हो वगैरह. अखबारों या चैनलों को यह भी नहीं मालूम था कि उमर खालिद कश्मीरी नहीं है, लेकिन कोई उसे कश्मीर भेज रहा था, कोई उसे पाकिस्तान भेज रहा था.’

‘जो राष्ट्रवाद पहले से स्वीकृत है, वह बेहद समावेशी है. वह तरह-तरह के विचारों, जीवनशैलियाें व संस्कृतियों को जगह देता है. संघ का राष्ट्रवाद एक ही तरह के राष्ट्र और विचार को स्थापित करना चाह रहा है’

इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए संघ विचारक राकेश सिन्हा ने कहा, ‘विवेक कुमार की सभा में एबीवीपी का कोई हाथ नहीं था. एबीवीपी के कोई लोग नहीं थे और यह जांच का विषय है कि कभी-कभार किसी संस्था को बदनाम करने के लिए ऐसी हरकतें की जाती हैं. जैसे जो भगवा ध्वज काॅन्स्टेबल को दिया उसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है. सभी लोगों ने उसकी आलोचना की. लेकिन अगर कोई ताकत इसी तरह का काम करना चाहेगी तो वह इसकी जिम्मेदारी लेगी. कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं.’

दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘देशप्रेम ही तो राष्ट्रवाद है कि हम एक देश में रहते हैं, जिसकी एक व्यवस्था है. इससे अलग राष्ट्रवाद क्या चीज है? अब इनका एजेंडा हिंदू राष्ट्रवाद है. गुरु गोलवलकर की किताब ‘इंडिया डिवाइडेड’ संघ की विचारधारा का आधार है. यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का नारा है. लेकिन आप यह बताइए कि इस देश में केवल हिंदू तो नहीं रहते हैं! अब अगर आप हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के मुताबिक चलेंगे तो देश के और टुकड़े होंगे क्योंकि हर आदमी आपका राष्ट्रवाद नहीं मानेगा. यह हर कहीं आरएसएस का एजेंडा लागू करने की कोशिश है. हमारी जनता की चेतना शायद इस स्तर तक नहीं पहुंची है कि वह चीजों की भीतरी तहों को समझ सके. भाजपा इसी का फायदा उठा रही है.’

बद्रीनारायण कहते हैं, ‘यह जो मुहिम चलाई जा रही है कि हमसे जो असहमत हैं वे राष्ट्रविरोधी हैं, यह बहुत गलत है. जो हमसे सहमत हैं, वे राष्ट्रवादी हैं, जो विरोधी हैं वे राष्ट्रविरोधी हैं, यानी हमारे राष्ट्रवादी स्वरूप का जो समर्थन करता हो, वही राष्ट्रवादी है. किसी दूसरे स्वरूप का समर्थन करने वाला राष्ट्रवादी नहीं है. राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्र को आलोचनात्मक ढंग से देखने पर होगा. वही राष्ट्र परिपक्व माना जाता है, जो अपनी आलोचना भी सहता है. जो राष्ट्रवाद अपने यहां पहले से स्वीकृत है, वह बेहद समावेशी है. तरह-तरह के विचारों, तरह-तरह की जीवनशैलियाें, तरह तरह की संस्कृतियों को जगह देता है. ये राष्ट्रवाद जो बार-बार टकराव की स्थिति उत्पन्न कर रहा है, यह एक ही तरह के राष्ट्र और विचार को स्थापित करना चाह रहा है.’

भाजपा के दोहरे मापदंड को रेखांकित करते हुए बद्रीनारायण कहते हैं, ‘भाजपा आंबेडकर को अपना नायक बता रही है, लेकिन उनके लोग हर जगह दलितों पर ही हमला कर रहे हैं. दलितों और दलित राजनीति से भाजपा का संबंध बेहद जटिल रहा है. यह उनके लिए वैसा ही है कि न निगलते बने न उगलते बने. भाजपा दलित समूहों से मेल-मिलाप की कोशिश तो कर रही है, लेकिन वह जानती है कि उनका जो कोर समर्थक है, वह इसे स्वीकार नहीं करेगा. भाजपा का राष्ट्रवाद दरअसल एक छद्म है. लेकिन छद्म को अगर सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है. वह भावनाओं का दोहन करता है. वह राष्ट्रवादी डिस्कोर्स के साथ भावनाओं का इस्तेमाल करता है. वह राष्ट्र से प्रेम की जो भावनाएं जुड़ी होती हैं, उनका दोहन करता है.’

इन घटनाओें पर प्रतिक्रिया देते हुए इतिहासकार इरफान हबीब कहते हैं, ‘इस पूरी बहस के सहारे कोशिश की जा रही है कि भाजपा और आरएसएस के खिलाफ जो भी लोग हैं उन्हें राष्ट्रविरोधी घोषित किया जाए. यह मुहिम जनता में बंटवारे की कोशिश है. राष्ट्र काफी पुराना शब्द है, उसका मतलब एक देश से होता है. एक ऐसा मुल्क जिसके लोग चेतना संपन्न हों, उन्हें यह एहसास हो कि हम इस मुल्क के हैं और हमारी हुकूमत होनी चाहिए. वह राष्ट्र बनता है. 1947 से पहले तो वही लोग देशभक्त कहे जा सकते थे जो अंग्रेजों के विरोधी हों. उसमें तो आरएसएस और हिंदू महासभा ने कोई खास काम नहीं किया. आरएसएस ने तो बिल्कुल नहीं. 1947 तक इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलाई. मुसलमानों और कांग्रेस का विरोध करते रहे. यह समझ में नहीं आता कि ये कैसी देशभक्ति है! जब देश को देशभक्ति की जरूरत थी तब तो आप मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. अब बुद्धिजीवियों पर हमले करके यह कोशिश की जा रही है कि वे और लोगों की आवाज बंद कर दें. सरकार जो कर रही है, वह सब राष्ट्रवाद के लिए तो बिल्कुल नहीं है. क्योंकि इससे राष्ट्र को फायदा हो रहा है या वह और बदनाम हो रहा है? ​इससे हमें क्या फायदा होगा? जितना नुकसान वे कर सकते थे, वह कर चुके हैं. राष्ट्रवाद का अर्थ गुंडागर्दी तो बिल्कुल नहीं होता है.’